पूर्णियां की सड़कों पर गुज़रते हुए विश्वेश्वरैया की छोटी सी प्रतिमा देखी थी. वहा के अभियंता समाज ने दिखाया था. आज उनकी जयंती पर इंजीनियरों के बारे में अच्छी अच्छी बातें कही जा रही हैं. उन शुभकामना संदेशों में ऐसी कोई तस्वीर नहीं है जो बताती है कि इंजीनियरों ने उनकी विरासत को कैसे आगे बढ़ाया है. उनकी मौलिकता किस तरह से दुनिया के इंजीनियरों से अलग करती है. हाल फ़िलहाल की कई तस्वीरें मिल सकती थीं. दूसरी तरफ इंजीनियरिंग पास करने वालों के आर्थिक जीवन की सच्चाई का भी प्रकटीकरण हो सकता था.
पता चलता कि लाखों रुपये लोन लेकर पढ़ने वाले जब ये इंजीनियर कॉलेज से निकलते हैं तो उन्हें किस तरह की नौकरी मिलती है? उसमें इंजीनियरिंग कितनी होती है? क्या अब भी इंजीनियर होना श्रेष्ठ है? क्या सरकारी महकमों में इस पद की गरिमा और रचनात्मकता बची रह पाई है? बधाइयों का क्या है, उसकी तो दुकान खुली है. ऐसा कोई दिन नहीं जो किसी महान आत्मा की जयंती से शुरू नहीं होता. सबको मौका मिलेगा बधाई देकर निकल चलो. इंजीनियरों पर बात मत करो. आप चाहें तो अपने अनुभव लिख सकते हैं ताकि दूसरे लोग भी आप इंजीनियरों के जीवन में झांक सकें.
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