क्या आज के दौर में दयानंद सरस्वती कह पाते कि मूर्ति पूजा के विरोधी हैं? दयानंद सरस्वती ने काशी में पर्चा तक लगवा दिया कि वे मूर्ति पूजा के ख़िलाफ़ बहस करना चाहते हैं. किसी के पास प्रमाण है तो उनके साथ बहस करे. काशी में बहस हुई और बहस के बाद दयानंद सरस्वती कई दिनों तक काशी में ही रहे. वहां की जनता उन्हें मारने नहीं दौड़ी और न ही दयानंद सरस्वती को लगा कि काशी अब सुरक्षित जगह नहीं है. सोचिए कि भारत का, उस समाज का एक वह भी स्वरूप रहा जो 'श्रेष्ठ भारत' की मुनादी किए बिना भी ज्ञान, तर्क और विचारों की विविधता के हिसाब से व्यवहार कर पाया.
जो समाज मूर्ति पूजा को लेकर किसी प्रकार के प्रश्न को स्वीकार नहीं कर सकता है, उसी समाज में दयानंद सरस्वती ने मूर्ति पूजा को चुनौती दी. क्या आज के समय में हम कल्पना कर सकते हैं कि कोई एक पर्चा छपवा दे कि वह मूर्ति पूजा को चुनौती देता है? आज का गोदी मीडिया दयानंद सरस्वती के सामने किस तरह से अशोभनीय प्रश्न कर रहा होता? क्या उन्हें सम्मान देता? उन्हें धर्म द्रोही घोषित कर दिया जाता और जीवन भर के लिए जेल में डाल दिया जाता. उनके बारे में व्हाट्सएप में अभियान चलाया जाता. दयानंद सरस्वती ने हिन्दू समाज को चुनौती देकर उसे बेहतर ही बनाया. भले ही आज का आर्य समाज बदल चुका है, कई मौक़ों पर संघ का सहयात्री नज़र आता है, लेकिन उसका इतिहास तो विरोध का रहा ही है.
उसी तरह से फूले से लेकर पेरियार और अंबेडकर से लेकर कांशीराम तक ने धर्म की तमाम मान्यताओं को चुनौती दी. बताया कि गौरव के पर्दे के पीछे शर्म का कितना बड़ा भंडार है. जहां एक दलित को लोग पानी नहीं देते, रास्ता नहीं देते हैं. उसके साथ भोजन नहीं करते हैं. वह भोजन छू देता है तो अपवित्र माना जाता है. एक दिन आया कि इसी समाज में छूआछूत के खिलाफ अभियान चला लेकिन यह बहुत बुरी चीज़ है, इसकी पहचान तो इन नायकों ने ही कराई, जिनका नाम हमने ऊपर लिया है. जिनकी वजह से समाज में सुधार हुए और उन सुधारों को संविधान ने गारंटी दी. आज सरकार भी उन सुधारकों की जयंती मनाती है. समाज उन्हें नायक मानता है.
पेरियार और अंबेडकर के लिए न तब आसान था और न अब आसान है. आसान है तो किसी दलित को पानी नहीं देना, बारात में घोड़ी चढ़ने पर मार देना और जाति के दंश से आहत होकर किसी रोहित वेमुला जैसी प्रतिभा का अंत हो जाना. इन दिनों चारों तरफ से कोशिश हो रही है कि फिर से ऐसी क्रूरता को सार्वभौमिक और निर्बाध रूप से स्थापित कर दिया जाए. जब काशी कोरिडोर बन रहा था, तब उसी बनारस में लोग आंदोलन कर रहे थे कि सदियों पुराने घर तोड़े जा रहे हैं, उन घरों में निजी मंदिर हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व हैं, उन्हें हटाया जा रहा है. तब तो किसी की आस्था आहत नहीं हुई?
धर्म और जाति की व्यवस्था एक दूसरे से जुड़ी है. जो भी जाति व्यवस्था से लड़ेगा, धर्म से जाकर टकराएगा. आज बार-बार गुलामी की याद दिलाई जाती है, मेरा मानना है कि भारत में जाति से बड़ा ग़ुलामी का काल कुछ और नहीं था. जाति की ग़ुलामी का यह काल आज भी चल रहा है. जाति के नाम पर इसी हफ्ते के अख़बारों में न जाने क्रूरता के कितने प्रसंग छपे होंगे. अगर सावित्री बाई फुले से लेकर पेरियार और अंबेडकर तक ने इस समाज को नहीं झकझोरा होता तो क्या आप दुनिया के सामने खुद को मनुष्य भी कह पाते? गर्व कर पाते? इन नायकों ने समाज और संस्कृति को गर्व करने लायक बनाया है. एक अच्छी भारतीयता दी है, जिस पर आप गर्व करते हैं. याद रखिए, जब भी आप कहते हैं, भले ही आप यह बात झूठ कहते हैं कि आप जाति में विश्वास नहीं करते, आप केवल और केवल अंबेडकर और पेरियार जैसे नायकों की बात कह रहे होते हैं. अपने भीतर के अंबेडकर को पहचानिए. भारत है ही गर्व करने लायक़, उस पर खूब गर्व कीजिए.
ज़रूर एक बड़ी ग़लती हुई है. इन महान नायकों की जयंती तो ख़ूब मनने लगी है लेकिन इनके फ़ोटो को आगे कर, इनकी बातों को पीछे कर दिया गया है. पेरियार से लेकर अंबेडकर की बातों को अगर दिन रात लिखा जाता, दोहराया जाता, बोला जाता, तब पता चलता कि इनकी जयंतियां मनाने वाले फ़ोटो पर माला चढ़ा रहे हैं या विचारों को भी गले लगा रहे हैं. अगर उनके सामने दस पंक्तियां दोहरा दी जाती हैं, यही कह दिया जाता कि अंबेडकर क्यों अंबेडकर बने, तब असल में आस्था की बात करने वालों की उदारता की परीक्षा हो जाती. पता चलता कि वे अबंडेकर जयंती के दिन मीम तो फॉर्वर्ड कर रहे हैं मगर जयंती नहीं मना रहे हैं.
ऐसा लग रहा है कि धर्म और संस्कृति के रक्षक केवल वही लोग हैं, जो आस्था के नाम पर आहत होते रहते हैं. ऐसे तथाकथित रक्षक हर धर्म में हैं, जो कहीं से भी बवाल मचाने आ जाते हैं. लेकिन, धर्मों के असली यात्री वे असंख्य लोग हैं, जो चुपचाप अपनी आस्था का परिष्कार करते रहते हैं. अपने ईष्ट से संवाद से ही उन्हें वक्त नहीं मिलता. मगर अब तो एक नया गिरोह बन गया है. जो हर दिन तय करता रहता है कि क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं बोलना चाहिए. इसका घेरा इतना छोटा कर दिया गया है कि धर्म को लेकर बोलने की जगह ही नहीं बची है. आलोचना के लिए भी जगह नहीं बची है. यह कैसे संभव है कि आप बोले ही नहीं, और बोलें तो क्या हर बात में जेल भेजे जाएंगे?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रतन लाल पर केस करने वाले और उनकी गिरफ्तारी पर ख़ुश होने वालों को एक बार विचार करना चाहिए. रतन के कई तर्कों के अगर जवाब नहीं हैं तो आस्था के नाम पर उस पर वार करने की कोई ज़रूरत नहीं है. रतन लाल जैसे दलितों को बोलने दीजिए. उनकी कुछ बातें बुरी लगती हैं तो सह लीजिए क्योंकि वे केवल बातें हैं. जो तर्क और बहस के दायरे में कही जाती हैं. जिस किसी व्यक्ति ने रतन पर केस किया है, क्या उसे नहीं मालूम है कि धर्म के नाम पर इस देश में कितनी ठगी होती है. या अब ये भी कहना गुनाह हो चुका है?
लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रो रविकान्त के साथ मार-पीट हुई, क्या ऐसा करने वालों का हौसला नहीं बढ़ाया गया? किस क़ानून ने रविकान्त को मारने की इजाज़त दी है? धर्म का नाम आते ही दनादन फ़ैसले होने लगते हैं. क्या यह सब लोग नहीं देख रहे हैं कि फ़ैसले किनके हित में किए जा रहे हैं? क्या हिंसा करने वाले किसी छात्र को निकाला गया? प्रो रविकान्त ने तो माफ़ी भी मांग ली, क्या इतना काफ़ी नहीं था. तब भी उन्हें असुरक्षित किया जा रहा है.
रतन लाल के परिवार को गालियां दी गईं, जान से मारने की धमकी दी गई. उनके ख़िलाफ़ पुलिस ने क्या किया? आज से नहीं, रतन लाल को कई साल से गालियां दी जाती हैं. जाति की गालियां दी जाती रही हैं. छात्र जीवन से उसे गालियां दी जाती रही हैं. वह गालियों को सहता रहा है. उसे उन बातों के लिए गालियां पड़ी हैं, जिसके लिए वह दोषी ही नहीं है. आप केवल उन गालियों के लिए ही प्रायश्चित करेंगे तो उसी में एक पीढ़ी निकल जाएगी.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.