किसान आंदोलन का मुक़ाबला सूचना तंत्र से

दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन के 30 दिन पूरे हो गए. इस दौरान सरकार ने भी अपना सम्मेलन आंदोलन का जाल फैला दिया है.

दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन के 30 दिन पूरे हो गए. इस दौरान सरकार ने भी अपना सम्मेलन आंदोलन का जाल फैला दिया है. एक महीना पहले हाईवे को बीच से काट देने और सीमेंट के बने भीमकाय बोल्डरों से रास्ता रोकने की तस्वीरों से लगा था कि किसान बैरिकेड की दीवार नहीं पार कर पाएंगे. बेशक सरकार ने किसानों को दिल्ली आने से रोक दिया लेकिन किसानों ने भी अपने आंदोलन को बैरिकेड में बदल दिया है. किसान आंदोलन सरकार के बनाए बैरिकेड की दीवारों से अपनी दीवार ऊंची करने लगा. मगर बैरिकेड सिर्फ वही नहीं थे जिसे पुलिस लगा रही थी.

एक दूसरा बैरिकेड भी था जो पुलिस के लगाए बैरिकेड से ज़्यादा ऊंचा और मज़बूत था. गोदी मीडिया का बैरिकेड. जल्दी ही किसान खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी नाम के बैरिकेड से घेर दिए गए. आप देखेंगे कि सरकार से बातचीत को लेकर आंदोलन में 6 महीने इंतज़ार का धीरज है लेकिन पहले ही दो तीन दिनों में गोदी मीडिया को लेकर धीरज चला गया. आंदोलन के भीतर गोदी मीडिया के बहिष्कार के तरह तरह के पोस्टर लगा दिए गए. रिपोर्टरों ने अपनी माइक की पहचान उतार दी, जिसे चैनल आईडी कहते हैं ताकि वे किसानों के बीच चैनल के नाम से पहचाने न जा सकें. इन रिपोर्टरों की गलती नहीं थी लेकिन स्टूडियो से जब किसानों को आतंकवादी कहा गया तो उनके रिपोर्टरों का विरोध किया जाने. मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों का कारोबार अरबों रुपये का है लेकिन कर्ज़े में डूबे किसानों के बीच उनकी साख मिट्टी में मिल गई. किसान यूट्यूब में स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को देखने लगे और स्थानीय चैनलों का नाम उनकी ज़ुबान पर बड़े ब्रैड की जगह आने लगा. किसान आंदोलन को लेकर इन खुदरा चैनलों की रिपोर्टिंग पर अलग से रिसर्च पेपर लिखा जा सकता है. लेकिन किसान आंदोलन जल्दी ही गोदी मीडिया को लेकर अपनी समझ बदलने लगा. इस आंदोलन में पहली बार एक अखबार ने जन्म लिया जिसका नाम है ट्रॉली टाइम्स. किसान एकता मोर्चा के नाम से ट्विटर हैंडल और यू ट्यूब चैनल बना लिया जिसके अब दस लाख से ज़्यादा सब्सक्राइबर हो गए हैं.

किसानों का यह आंदोलन मीडिया से लड़ने के आंदोलन के रूप में भी जाना जाएगा. उन्होंने कोई हिंसा नहीं की लेकिन आदर के साथ अपने विरोध से जता दिया कि उनका विश्वास गोदी मीडिया में नहीं रहा. यह आंदोलन कई तरह की ऐसी छवियों को साथ लेकर आया था जिसके लिए दिल्ली का मीडिया और गोदी मीडिया दोनों तैयार नहीं थे. आपने प्राइम टाइम में देखा होगा कि किस तरह पंजाब से आए 32 किसान संगठनों की सदस्यता केंद्र के कानून के बाद बढ़ने लगी है और लोग मुख्यधारा के दलों से जुड़ने के बजाए इन संगठनों से जुड़ने लगे हैं. एक पेपर इस पर भी लिखा जा सकता है. भले ही अखबारों में क्लोज अप वाली तस्वीरों में पुरुष किसान दिख रहे हैं, क्योंकि उनकी चेहरे की झुर्रियां और गहराई आंदोलन को एक प्रभावी रूपक दे रहे थी.

लेकिन इस आंदोलन में आईं महिलाओं के पास भी किसानी की ही पहचान थी. मीडिया ने इन्हें लंगर के आस-पास ही ढूंढा लेकिन वो यहां भी थीं. मंच के ऊपर और मंच के सामने. भाषण देते हुए और भाषण सुनते हुए. आधी आबादी या जीवनसंगिनी के रूपक को उतार ये महिलाएं अपने किसान होने की पहचान की दावेदारी कर रही थीं जो भारतीय खेती किसानी का पिछले तीन चार दशकों का नया चेहरा है. छवियों का जीवन इतना ठोस होता है कि महिलाएं ज़्यादा खेती करती हैं लेकिन किसानों की तस्वीर पुरुषों की छपती है. हरिंदर बिंदु के पिता की हत्या खालिस्तानी ने कर दी थी तो यहां जसबीर कौर एक संगठन के पैसे का हिसाब किताब रखने में मशगूल थी. आपने किसी आंदोलन में ऐसी तस्वीर कब देखी थीं. इस जीप को महिला चला रही हैं. सवार सारी महिलाएं हैं. 2020 की तमाम तस्वीरों पर यह तस्वीर भारी पड़ जाएगी. आपने सोचा भी नहीं था कि खेतों से ऐसी तस्वीर आपने ड्राईंग में आकर खड़ी हो जाएगी.

ऐसा लग रहा था कि किसान आंदोलन मांगों से ज़्यादा किसानी को लेकर चली आ रही तस्वीरों को बदलने आए हैं. वैसे पुरुष भी खाना बनाते हैं. लेकिन लंगर में रोटियां बेलते हुए और पकाते हुए इन पुरुष किसानों की तस्वीर के लिए भी मीडिया तैयार नहीं था कि इस एक काम के आने से किसानी का काम कितना साझे का काम हो सकता है. हम शायद पंजाब को नहीं जानते हैं. गुरुद्वारों की व्यवस्था को नहीं जानते हैं जहां करोड़पति भी किसी दूसरी की खाई थाली को धोता नज़र आता है जिन्हें हम जूठी थाली कह कर छूने लायक नहीं मानते. गोदी मीडिया उत्तर भारतीय जाति व्यवस्था का इलेक्ट्रानिक संस्करण है इससे ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

अगर किसान गोदी मीडिया से अपने स्पेस के लिए लड़ रहे थे तो सरकार भी गोदी और अर्ध-गोदी मीडिया में अपने स्पेस के लिए लड़ रही थी. अर्ध गोदी मीडिया क्या है इस पर फिर कभी. बहरहाल 2020 के बाद से आप भारत के मीडिया को संपूर्ण गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया के फ्रेम में देखना शुरू कर दीजिए.

सरकार ने भी मीडिया स्पेस पर अपनी दावेदारी बढ़ा दी. किसानों को लेकर तरह तरह पोस्टर और दावे ट्वीट कए गए. वीडियो कांफ्रेंसिग के ज़रिए लाखों करोड़ों किसानों से मिलने का दावा किया गया. एक महीने से लगेगा कि इस देश में एक ही मंत्रालय है कृषि मंत्रालय और सारे मंत्री कृषि मंत्री हैं. कृषि मंत्री किस किसान नेता से मिल रहे हैं इसकी तस्वीर रेल मंत्री ट्वीट कर रहे थे. खेती को लेकर सरकारी दावे की कहानी वैध और ज़रूरी स्टोरी लगे इसके लिए सरकार मैदान में उतर गई. मीडिया को कवर करना ही था. प्रधानमंत्री संबोधित जो करने वाले हैं. सरकार की तरफ से मीडिया को वैध स्टोरी उपलब्ध कराने की इस रणनीति पर किसी को रिसर्च पेपर लिखना चाहिए. इस एंगल के साथ कि सरकार मीडिया स्पेस के साथ साथ अपने संसाधनों और माध्यमों से भी स्वतंत्र रूप से किसान से संवाद करने के प्रचार युद्ध में उतर गई है. क्या उसका भी आज के संपूर्ण गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया पर कम भरोसा है?

As i said कि पिछले एक महीने से सारे मंत्री कृषि मंत्री हो गए हैं और लग रहा है कि भारत में एक ही मंत्रालय है जिसका नाम कृषि मंत्रालय है. एक महीने से दिल्ली की सीमा पर किसान हैं लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए दिल्ली के भीतर कई मंत्रियों की ड्यूटी लगा दी गई. ये मंत्री चार पांच किलोमीटर की यात्रा कर आंदोलनरत किसानों से मिल सकते थे.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण रंजीत नगर मंडल में प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए गईं तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारका में तैनात किए गए. स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन रामनगर में तो शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी तिलक नगर में. कुल 20 मंत्रियों की ड्यूटी लगाई थी जिनमें से 13 दिल्ली में भेजे गए अटल बिहारी वाजपेयी की याद में होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने के लिए. रेल मंत्री पीयूष गोयल उत्तर प्रदेश में हापुड़ गए और सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर चेन्नई गए.

भारत के इतिहास में किसानों के कानून को लेकर सरकार की तरफ से इतना बड़ा प्रचार युद्ध कभी नहीं लड़ा गया है. इतनी चर्चा अगर संसद में हो गई होती तो इस बिल को लेकर कई बातें बेहतर तरीके से सामने आ जातीं.

गृहमंत्री अमित शाह भी किशनगढ़ के गौशाला मैदान में प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए आए. गृह मंत्री आपदा प्रबंधन विभाग के प्रमुख हैं जिसके नियमों से कोरोना महामारी के समय किसी जगह पर जमा होने के नियमों को लागू कराया जाता है. यहां भी सामाजिक दूरी दिख रही है. इस दिल्ली के लोगों ने मास्क न पहनने पर 25 करोड़ से ज्यादा जुर्माना दिया. मुझे तो यहां सारे मास्क में नज़र आ रहे हैं. इस सभा स्थल को बड़े बड़े पोस्टरों से भर दिया गया था. किसानों को लेकर मोदी सरकार की नीतियों के पर्चे बांटे जा रहे थे. आज के दिन कई जगहों पर बीजेपी ने भी कार्यक्रम किए हैं और सरकारी कार्यक्रमों में भी बीजेपी के नेता शामिल हुए हैं. इसलिए इस फर्क का कोई मतलब नहीं रह जाता कि सरकार का कौन सा था और बीजेपी का कौन सा. अटल बिहारी वाजपेयी पूरे देश के थे.

वीडियो कांफ्रेंसिंग से पूरे देश के किसानों से बात करने का दावा हो रहा है तो दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों से भी बात हो सकती थी. संदेश साफ है जो भी आंदोलन करेगा, उसे सरकारी आयोजनों से छोटा कर दिया जाएगा. वैसे अभी जो आप दिल्ली की सीमा पर देख रहे हैं वो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आंदोलनों का समापन समारोह है. होते रहेंगे और होंगे तो सम्मेलनों से उन्हें घेर दिया जाएगा. इतने बड़े इवेंट के सामने क्या किसानों का आंदोलन टिक पाएगा?

किसने सोचा था कि प्रधानमंत्री के इवेंट के नाम से भारत सरकार एक वेबसाइट ही लांच कर देगी. आज के कार्यक्रम के लिए इस वेबसाइट पर पंजीकरण की व्यवस्था की गई थी. इसके अनुसार 8 करोड़ से अधिक लोगों ने प्रधानमंत्री के इवेंट के लिए पंजीकरण कराया है. कार्यक्रम का नाम तो यही है कि किसानों के साथ माननीय प्रधानमंत्री की बातचीत और पीएम किसान सम्मान निधि की अगली किश्त का वितरण. 24 दिसंबर आधी रात के बाद कृषि मंत्री ने ट्वीट किया था कि पिछली शाम यानी 23 दिसम्बर तक दो करोड़ किसानों का रजिस्ट्रेशन हुआ है, लोगों का नहीं. उन्होंने साफ़ साफ़ कहा था कि किसानों का रजिस्ट्रेशन हुआ है. लेकिन 25 दिसंबर की सुबह देखा तो संख्या 8 करोड़ हो गई थी. 6 करोड़ लोगों ने पंजीकरण करा लिए या कृषि मंत्री को सही जानकारी नहीं मालूम थी. किसानों को इस कार्यक्रम को सुनने के लिए पंजीकरण कराने की ज़रूरत क्यों थी, क्या पंजीकरण कराने वाले सभी 8 करोड़ लोगों को पंचायत से लेकर ज़िला सतर पर बोला गया था भाषण सुनने के लिए, क्या पंजीकरण कराने वाले 8 करोड़ लोगों में कृषि विभाग के अधिकारी कर्मचारी या दूसरे विभागों के कर्मचारी अधिकारी भी हैं, इसका पता तो डेटा ऑडिट से ही चल पाएगा. बहरहाल पीएमईवेंट नाम की वेबसाइट देखकर इंडियन एक्सप्रेस में लिखा मेरा एक लेख याद आ गया. इत्तफाक देखिए वो लेख 31 दिसंबर 2016 को छपा था. उस लेख का टाइटल था “Welcome the eventocracy, tracked by comedia.”

By the way आपने जॉर्ज ओरवेल की 1984 नहीं पढ़ी है न, उनका ख्याल इसलिए आ गया कि ओरवेल का जन्म मोतिहारी में हुआ था. जॉर्ज ओरवेल मेरे होम बड्डी थे. क्या आप पीएम इवेंट साइट के बारे में जानते थे, क्या यह साइट इतनी लोकप्रिय थी कि 2 दिन के भीतर 8 करोड़ लोगों ने इस पर आकर पंजीकरण करा लिया? पीएम इवेंट वेबसाइट नई लगती है क्योंकि इस पर सितंबर महीने से ही पीएम इवेंट के डिटेल हैं. ऐसे कार्यक्रम भी दिखे जिसमें 60 और 39 लोगों ने पंजीकरण कराए थे और ऐसे भी कार्यक्रम दिखे जिसमें 1 करोड़ से अधिक लोगों ने पंजीकरण कराए थे. किसान सम्मान निधि के तहत 9 करोड़ किसानों के खाते में पैसे गए हैं लेकिन पिछली किश्त में 10 करोड़ से अधिक किसानों के खाते में गए थे. ये एक करोड़ क्यों कम हो गए?

इस बीच रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक नई बात कह दी है. उन्होंने कहा है कि इस कानून को एक दो साल के लिए लागू हो जाने दीजिए, फिर कोई कमी नज़र आएगी तो प्रधानमंत्री संशोधन कर देंगे. उधर प्रधानमंत्री ने कहा कि मुद्दों पर बात करने के लिए तैयार हैं लेकिन बात तथ्यों और तर्कों पर होगी. इन बयानों से साफ है कि सरकार कानून के विरोध से बिल्कुल विचलित नहीं है. आंदोलन को तय करना है कि वह संवाद का कौन सा रास्ता तय करता है. 

संसद भवन के सेंट्रल हॉल में महामना मदन मोहन मालवीय, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया गया. वहां पर आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह और भगवंत मान ने किसान बिलों की वापसी को लेकर नारे लगाए. संजय सिंह का यह विरोध साहसिक था. लेकिन विपक्ष के विरोध को भी आप ठीक से देखिए. एक किस्म की औपचारिकता दिखेगी. सरकार और बीजेपी अपना पक्ष रखने के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम कर रहे हैं, पर्चे और पोस्टर छापे जा रहे हैं, जो बातें कही जा चुकी हैं उन्हीं बातों को बार बार कह रहे हैं. जिनका तथ्यों से जवाब दिया जा चुका है, उन बातों को भी बार बार रखा जा रहा है. दूसरी तरफ क्या विपक्ष वापस लो के अलावा आम जनता तक यह पहुंचा पा रहा है कि क्यों इस कानून को वापस लेना चाहिए. तथ्य क्या हैं, तर्क क्या हैं.

उधर शाहजहांपुर बॉर्डर पर धरने पर बैठे किसानों ने शुक्रवार दोपहर 1 बजे जयपुर-दिल्ली हाईवे का दिल्ली से जयपुर जाने वाला रस्ता बंद कर दिया. जयपुर से दिल्ली आने का रास्ता पहले ही बंद किया जा चुका था. बॉर्डर बंद हो जाने से ट्रैफ़िक को NH 8 से रेवाड़ी डायवर्ट करना पड़ा. गाड़ियों का जाम बहुत लम्बा लग गया.

हाल के किसी भी आंदोलन से शौचालय निर्माण के ऐसे प्रेरक दृश्य नहीं आए. खेत से आए लोग शौचालय की महिमा समझ चुके हैं. कम से कम आंदोलन से आ रही इस तस्वीर को प्रधानमंत्री अपने स्वच्छता अभियान की सफलता के रूप में ट्वीट कर सकते थे. But anyway. आंदोलन अपनी दैनिक समस्याओं से भी जूझ रहा है. किसानों की ज़रूरतें पूरी करने के कई मॉडल आजमाए जाने के बाद पास में वेयरहाउस किराये पर लेकर मॉल बनाया गया है. 70 प्रतिशत सामान लोगों ने दान में दिए हैं और 30 प्रतिशत खरीदे गए हैं. सारी खरीदारी आस-पास की दुकानों से हुई है. इससे पास की अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर पड़ा होगा. कोई इस पर रिसर्च पेपर लिख सकता है.

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आप एक कूपन पर जितने चाहें उतने आइटम ले सकते हैं. एक फ़ॉर्म होता है उस पर भर के बताना होता है. आइटम के सामने टिक कर दें. अब ये जानते हैं कि सही इंसान तक सामान पहुंचा पा रहे हैं जिसे सच में ज़रूरत है. अभी देख रहे हैं कि कितने दिन बाद एक आदमी को दूसरा कूपन मिले. अभी 4 दिन ही हुए हैं. 300 ट्रॉली में जा चुके हैं. हम ID वेरिफ़िकेशन कर के एक डेटाबेस भी बना रहे हैं ताकि रिकॉर्ड रहे किसे कब कब क्या सामान मिला है, कौन कहां से आ रहा है.