कोई अपनी पूरी ईमानदारी एक काले बैग में समेट कर आपके सामने आकर बैठ जाए तो आप उस व्यक्ति से मुख़ातिब नहीं होते बल्कि सत्ता तंत्र के भयावह रूप के सामने किसी निरीह और अकेले कबूतर की तरह उस व्यक्ति को फड़फड़ाते देखते हैं। इतने बड़े सिस्टम से लड़ने वाले उस शख्स ने मेरे सामने अपना काला बैग खोल दिया। एक एक कर दस्तावेज़ निकालने लगे। कहा कि पूरी रात सोचता रहा कि आपको कौन कौन सा दस्तावेज़ दिखाऊंगा। रवीश जी मैं झूठ नहीं बोल रहा। सौ फीसदी ईमानदार अफ़सर हूं और हज़ारों मज़दूरों का भला किया है। जितने दस्तावेज़ लेकर आए थे, उसे पढ़ने में ही मेरी कई रातें निकल जातीं।
पवन कुमार रांची के श्रम प्रवर्तन अधिकारी हैं। आप नागरिक और हम पत्रकार भी श्रम अधिकारी के काम और अधिकार के दायरे के बारे में कम जानकारी रखते हैं। इसलिए अपनी आशंकाओं के बाद भी पवन कुमार की बातों को ग़ौर से सुनता रहा। एक अधिकारी क्यों किसी पत्रकार के पास अपने आंसू रोएगा? मैं टीवी पर दिखा भी दूंगा तो पवन कुमार का अपना कौन सा ऐसा एजेंडा पूरा हो जाएगा जिससे वे एक स्टोरी के बाद श्रम मंत्री के तौर पर शपथ ले लेंगे। पवन की बातों को सुनते हुए सिहरता रहा कि आम मज़दूरों के साथ क्या क्या होता होगा। श्रम मंत्रालय के इन कार्यालयों में किस तरह का नेक्सस बना हुआ है क्या हम जानते भी हैं? तमाम श्रम अधिकारियों और कर्मचारियों के घर छापे मारे जाएं तो मज़दूरों की पसीने की कमाई का कितना बड़ा ख़ज़ाना निकल सकता है।
पहले पवन कुमार का काम बताता हूं। इनका काम है कंपनियों के रिकॉर्ड चेक करना ताकि मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी मिले और रिटायर होते ही कंपनी ग्रेच्युटी की पूरी रक़म का समय पर भुगतान करे। अगर कोई श्रम अधिकारी ये सुनिश्चित कराने लगे तो किसी भी सरकार की कितनी प्रशंसा होगी। मगर सरकार का तंत्र ही इसके ख़िलाफ़ हो तो आप रवीश कुमार जैसे ज़ीरो रेटिंग वाले पत्रकारों के पास अपना दुखड़ा रोकर क्या कर लेंगे। क्या समाज या पाठक वर्ग ऐसे अफ़सरों के लिए खड़ा होगा। नहीं होगा।
पवन कुमार ने अपना काम करना शुरू किया और हर दिन फ़ाइल पर कंपनियों और कॉन्ट्रेक्ट पर लेबर रखने वाले संगठनों के ख़िलाफ़ लिखने लगे। आपत्ति उठाने लगे। उनकी आपत्तियों की न्यायिक जांच की जा सकती है। नतीजा यह हुआ कि सब ख़िलाफ़ हो गए क्योंकि ऐसा करने से मज़दूरों को हक़ मिलने लगा। रोते रोते पवन ने कहा कि मैं तबादला या निलंबन से नहीं डरता। मैंने मज़दूरों की भलाई के लिए ईमानदारी से काम किया है। मुझे कोई बर्ख़ास्त करके नहीं झुका सकता। मैं उन आरोपों को नज़रअंदाज़ कर आराम से उस जगह पर जा सकता हूं जहां मेरा तबादला हुआ है।
पवन की बातों से लगा कि उनके दफ्तर के चपरासी से लेकर सहकर्मी और वरिष्ठ तक कंपनियों से मिले हुए हैं। वे छापा मारने निकलते हैं, चपरासी और क्लर्क सूचना दे देते हैं। उनकी अनुपस्थिति में लोक अदालत लगाकर शिकायतों का कंपनियों के पक्ष में निपटारा कर देते हैं जबकि श्रम प्रवर्तन अधिकारी के बग़ैर लोक अदालत लग ही नहीं सकती। तीन मई को क्षेत्रीय श्रम आयुक्त कार्यालय के कर्मचारियों ने उन पर जानलेवा हमला कर दिया। इसके सबूत में वे मेडिकल रिपोर्ट से लेकर तमाम रिपोर्ट दिखाते रहे। कितनी भयानक बात है कि कर्मचारी अपने वरिष्ठ अफसर की गर्दन मरोड़ दें। पवन की शिकायत पर इनका तबादला हुआ था। इस जगह पर वे कई साल से जमे हुए थे। अब तबादला फिर से रुक गया है।
पवन ने जब मारपीट की घटना के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराई तो बदले में भाजपा के स्थानीय नेता ने इनके ख़िलाफ़ कर्मचारियों के साथ मारपीट करने का मामला दर्ज करा दिया। भाजपा नेता क्यों मामला दर्ज करायेंगे? मारपीट की घटना हुई है तो कर्मचारी करा सकते थे। पवन के खिलाफ भारतीय मज़दूर संघ से जुड़े बिहार मिनरल्स मज़दूर संगठन (लोहरदगा) ने भी शिकायत की है कि पवन कुमार हिंडाल्को खान क्षेत्र में बाहरी व्यक्ति लेकर घूम रहे थे और यूनियन बनाने का प्रयास कर रहे थे।
सहकर्मियों ने भी एस टी एस सी एक्ट के तहत मुक़दमे दर्ज कराये और कंपनियों से शिकायतें कराईं। जिस कंपनी ने शिकायत की है उसके ख़िलाफ़ पवन ने ग्रेच्युटी भुगतान के उल्लंघन के दो करोड़ रुपये से ज़्यादा के मामले उजागर किये थे। पवन का पक्ष सुना तक नहीं गया और वो पूरी फ़ाइल नष्ट कर दी गई। एक और कंपनी की चोरी के मामले की फ़ाइल भी गायब कर दी गई। ये सब पवन कुमार के अपने पक्ष हैं लेकिन जिस तरह से इसमें राजनीतिक दलों के नेता शामिल है उससे पता चलता है कि इस विभाग के तेल से कितनों की गाड़ी दौड़ रही है।
पवन से बात कर लगा कि कंपनियां बड़े पैमाने पर न्यूनतम मज़दूरी की चोरी कर रही हैं। राज्य में कहीं भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जा रही है। ऐसा दूसरे राज्यों में भी हो रहा होगा। श्रम प्रवर्तन अधिकारी मामले की जांच कर शून्य से दस गुना तक जुर्माना लगा सकता है। अगर किसी कंपनी ने किसी मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी के दस हज़ार रुपये नहीं दिये तो श्रम प्रवर्तन अधिकारी दस गुना तक यानी एक लाख तक का जुर्माना लगा सकता है मगर ज्यादातर मामलों में पांच सौ रूपये से अधिक का जुर्माना नहीं लगाया जाता। प्रधानमंत्री तमाम जुर्मानों की सूची वेबसाइट पर प्रकाशित करने के आदेश दे सकते हैं। इसी तरह मज़दूरों की ग्रेच्युटी की चोरी का किस्सा सुनकर सहम गया। अगर ये सब सच है तो स्थिति कितनी भयावह है। यही नहीं बिना प्रशिक्षण और सुरक्षा के मज़दूरों से विस्फोटक सामग्री की ढुलाई कराई जाती है।
पवन ने अपनी शिकायत श्रम मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय से भी की है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसे वापस श्रम मंत्रालय में भेज दिया और मामला वहीं पहुंचा जिनके ख़िलाफ़ शिकायत की गई थी। पवन के अनुसार श्रम मंत्रालय ने जांच कर मामले में लीपापोती ही की है। पवन ने बताया कि वे अब फेसबुक पर खुलकर लिखने लगे हैं। दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस भी किया था जिसमें कन्हैया कुमार भी शामिल हुए थे। पवन जे एन यू से पढ़े हुए हैं। उनकी बातों में वो आदर्शवाद झलकता है जिसे हमारी राजनीति अंत में हरा ही देती है। तरह तरह के आरोप लगाकर भरमाने का खेल शुरू होता है और ऐसे अधिकारी के मनोबल को तोड़ दिया जाता है।
पवन की कहानी सिर्फ एक अफसर की नहीं है। एक तंत्र की है जो कंपनियों से मिलकर मज़दूरों को लूट रहा है। यह कहानी बताती है कि श्रम आंदोलन भी भीतर से सड़ गया है। वो बाहर से मज़दूरों के हित की बात करता है, अंदर अंदर कंपनियों से हाथ मिला लेता है। मैंने यह कहानी पवन से बात करके लिखी है। और पक्ष हो सकते हैं पर आप जानते हैं कि सरकारी पक्ष के लोग इतनी आसानी से बात नहीं करते। इस कहानी से शोषण और लूट का जो चक्र सामने आता है उससे बहुत हद तक कौन इंकार कर सकेगा।
पवन कुमार को सुनते हुए यही लगा कि कोई अपनी ईमानदारी के कारण कितना अकेला हो जाता है। सत्ता और समाज दोनों उसे हाशिये पर धकेल देते हैं। समाज का भ्रष्ट हिस्सा ही नैतिकता का दावा कर लेता है और बहस लूट ले जाता है। जो ईमानदार होता है वो अकेला रह जाता है। दस्तावेज़ों की फोटोकॉपी जमा करने लगता है, बैग में संभाल कर रखने लगता है इस उम्मीद में कि कोई पत्रकार इन बातों को सामने लाएगा तो कुछ बदलाव होगा। मैं अपनी आशंकाओं के गिरफ़्त में बैठा रहा, पवन यह कह कर जाने लगे कि एक दिन दुनिया बदलेगी।
पवन अपनी मां के लिए मेरी तस्वीर खींचने लगे और मैं आप पाठकों के बारे में सोचने लगा कि क्या वाक़ई इस कहानी को पढ़कर लगता है कि दुनिया बदलेगी! मैं आप पाठकों को अच्छी तरह से पहचानता हूं। पवन कुमार शायद आपको नहीं जानते इसीलिए एक पत्रकार के पास उम्मीदों का बैग कंधे पर लाद कर चले आए थे। इस कहानी को पढ़कर मुझे अपनी व्यथा की फ़ाइलें न भेजें। पवन कुमार की तरह अपनी लड़ाई अकेले लड़ें। मैं नहीं लड़ सकता।
This Article is From Jun 28, 2016
श्रम कार्यालयों के जाल में फंस गया है एक ईमानदार अफ़सर
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 28, 2016 20:03 pm IST
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Published On जून 28, 2016 13:10 pm IST
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Last Updated On जून 28, 2016 20:03 pm IST
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