पारिवारिक रिश्ते हों या राजनीति, असाधारण परिस्थितियों की मजबूरी हमसे क्या-क्या नहीं करवाती – जिसे हम पसंद नहीं करते, उसके साथ खड़ा होना पड़ता है, जो हम नहीं कहना चाहते, वह सार्वजानिक तौर पर कहना पड़ता है. लेकिन जहां परिवारों की राजनीति में ऐसी मज़बूरियों के पीछे गहरे रिश्ते हो सकते हैं, सत्ता की राजनीति में सिवाय सत्ता के और कोई कारण न कभी रहा है, न रहेगा.
इस तथ्य के उदाहरण हमारे देश में पिछले कई दशकों में दर्जनों बार देखे जा चुके हैं, और इसका सबसे बार-बार दोहराए जाने वाला कारण या सांप्रदायिक ताकतों का विरोध होता, या अभिव्यक्ति की आज़ादी. बिहार में नवंबर, 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में इस 'सिद्धांत' का एक उदाहरण देखने को मिला था, जब जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ कई साल से चला आ रहा गठबंधन यह कहकर तोड़ दिया था कि बीजेपी 'सांप्रदायिक' पार्टी है. यही नहीं, बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए नीतीश ने सार्वजनिक रूप से अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के लालूप्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ महागठबंधन स्थापित किया. प्रचलित कारण भले ही यह दिया गया हो कि नीतीश कुमार और जेडीयू को बीजेपी के सांप्रदायिक चरित्र से अचानक समस्या हो गई थी, लेकिन समस्या के मूल में कहीं न कहीं बीजेपी में नरेंद्र मोदी का उभरता कद था, जिससे नीतीश कुमार असहज थे. और यहीं से राजनीतिक मज़बूरी के उस अध्याय की शुरुआत हुई, जिसके पन्ने अब रोज़ खुल रहे हैं.
नीतीश के बिहार में सफलतापूर्वक चले शासन के पीछे राज्य में कानून-व्यवस्था में सुधार एक बड़ा कारण था. कहा जाता है कि पहले के दिनों में पटना समेत बिहार के अधिकतर शहरों में दिन या शाम को महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकलती थीं, और नीतीश के शासन में गुंडागर्दी पर रोक लगाए जाने की वजह से यह स्थिति बदली थी, और इसीलिए नीतीश की जीत के पीछे महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता एक बड़ा कारण थी. लेकिन विडम्बना तो देखिए, जिन तत्वों पर रोक लगाने और उन्हें जेल भिजवाने के कारण नीतीश लोकप्रिय हुए, अपनी महागठबंधन की सरकार बनने के एक साल के भीतर ही उन्ही में से एक मोहम्मद शहाबुद्दीन की जमानत पर रिहाई हुई और उसने जेल से बाहर आते ही कहा कि उसके नेता तो लालूप्रसाद यादव हैं, नीतीश कुमार नहीं. यहां तक कि शहाबुद्दीन ने नीतीश को 'परिस्थिति-जन्य नेता' तक कह डाला.
विडम्बना यहीं समाप्त नहीं होती – जिस 'साम्प्रदायिकता' के आरोप को उठा फेंकने के लिए नीतीश कुमार ने बीजेपी से रिश्ता तोड़ा, शहाबुद्दीन की रिहाई के बाद उसी साम्प्रदायिकता का एक नया चेहरा अब बिहार में उठने की आशंका व्यक्त की जा रही है. सीवान के बहुचर्चित नेता शहाबुद्दीन पर जघन्य अपराधों के तमाम आरोप हैं और पिछले 11 साल से वह जेल में था. उसके स्वागत समारोह के दौरान तमाम अपराधियों की उपस्थिति भी चर्चा का विषय बनी.
साम्प्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा पर बहस बहुत पुरानी है, और इसका सर्व-स्वीकार्य अर्थ अब भी उपलब्ध नहीं है. ऐसे में ज़ाहिर है कि अलग-अलग रंगों के राजनीतिक दल इसे अपनी तरह से परिभाषित करेंगे. एक पार्टी कह सकती है कि तथाकथित सांप्रदायिक ताकतों को रोकने में सफल हुए गठबंधन की सरकार के लिए एक अपराधी का जमानत पर रिहा हो जाना कोई बड़ी कीमत नहीं है. लेकिन नीतीश कुमार के लिए यह कीमत उनके राजनीतिक जीवन के भविष्य की राह में बड़ी चुनौती बन सकती है. जिस तरह से शहाबुद्दीन का दर्जनों गाड़ियों का काफिला बिहार में एक शहर से दूसरे शहर तक बेरोकटोक चला, उन गाड़ियों के लिए टोल गेट खुलवाए गए (उनके टोल देने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता) और जिस तरह उनके समर्थकों ने उनका भव्य स्वागत किया, उससे यह संकेत तो मजबूती से चला ही गया कि जिस शख्स को नीतीश कुमार ने जेल भिजवाकर वाहवाही लूटी थी, उसकी रिहाई नीतीश की ही सरकार में ही हुई (भले ही इसके पीछे कमजोर पैरवी को कारण बताया जा रहा हो), बल्कि उस रिहा हुए शख्स को यह कहने में कोई हिचक नहीं हुई कि उसके नेता नीतीश कभी नहीं थे.
...तो आज बिहार में नेता है कौन...? भले ही महागठबंधन के मजबूत होने और मजबूत सरकार चलने के दावे किए जा रहे हों, क्या नीतीश कुमार की राजनीतिक पकड़ भी मजबूत है...? पिछले नवंबर के चुनाव में लालूप्रसाद की आरजेडी को नीतीश की पार्टी से ज्यादा सीटें मिलीं थीं, लेकिन चूंकि उस समय नीतीश लोकप्रिय नेता थे, इसलिए उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया गया, भले ही शासन और प्रशासन पर आरजेडी के नेताओं का बोलबाला चल रहा हो. ऐसे में नीतीश कुमार को ही तय करना है कि क्या वह अपने 'सुशासन बाबू' के उपनाम को आज भी सार्थक कर रहे हैं...? क्या नीतीश कुमार अपने पूर्ववर्ती शासनकाल में जैसे फैसले लेते थे – ख़ासतौर पर अपराध नियंत्रण और कानून-व्यवस्था के मामलों पर – वैसे ही फैसले आज भी ले सकते हैं...?
ऐसी खबरें आ रहीं है कि शहाबुद्दीन की जमानत के विरुद्ध नीतीश सरकार सुप्रीम कोर्ट जा सकती है, और अगर ऐसा हुआ तो इस निर्णय से गठबंधन के बड़े घटक आरजेडी का असहज और असंतुष्ट होना स्वाभाविक है. देश के कई नेताओं पर उनके शासनकाल के दौरान हुई चूकों की वजह से उनके ऊपर राजधर्म न निभाने का आरोप लगा है, और ऐसे आरोपों से उनका लम्बे समय तक राजनीतिक नुकसान हुआ है. नीतीश कुमार के सामने भी आज ऐसा ही क्षण आ खड़ा हुआ है - क्या आज उनके लिए राजधर्म निभाना ज्यादा ज़रूरी है या गठबंधन धर्म निभाना...? पिछला राजनीतिक समझौता उन्होंने कथित तौर पर सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए किया था, आज उसी समझौते की बोतल से निकली दूसरी तरह की ताकतें उन्हें ऐसे राजनीतिक कोने में धकेल सकती हैं, जहां से बेदाग़ रहकर निकलना उनके लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकता है.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Sep 14, 2016
शहाबुद्दीन पर नीतीश कुमार के लिए राजधर्म का संकट...
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 14, 2016 16:35 pm IST
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Published On सितंबर 14, 2016 16:26 pm IST
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Last Updated On सितंबर 14, 2016 16:35 pm IST
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