केंद्र सरकार के 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोट बंद करने से विपक्षी दलों को मिली नई ऊर्जा के साथ ही राष्ट्रीय विपक्ष के लगभग खाली स्थान को भरने के लिए दो महिला नेताओं के बीच होड़ तेज हो गई है. जिस तेज़ी के साथ बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मुद्दे पर अन्य विपक्षी दलों की अगुवाई हासिल कर ली है, उससे उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती इस दौड़ में कुछ पीछे रह गईं.
पिछले कई महीनों से बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने हर मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाना शुरू किया था. मंशा साफ थी कि वह अपने को ही प्रधानमंत्री और केंद्र के प्रमुख दावेदार के तौर पर पेश करना चाहती थीं. इसी क्रम में मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में कुछ दिनों के अंतराल पर तीन बार प्रेस वार्ता बुलाई, हालांकि तीनों बार उनके निशाने पर नोटबंदी का निर्णय रहा और करीब-करीब एक ही बात उन्होंने हर बार कही. यह भी ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश में कुछ महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन मायावती के निशाने पर सीधे प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव या सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव नहीं रहे. पिछले सालों में राज्य में कानून-व्यवस्था, पुलिस की नाकामी आदि जैसे मुद्दों पर सपा सरकार की असफलताओं के बावजूद मायावती ने बीजेपी और विशेष तौर पर प्रधानमंत्री को ही निशाने पर रखना बेहतर रणनीति समझा है.
लेकिन मायावती नोटबंदी के मुद्दे पर आक्रामक रुख के बावजूद ममता से कहीं पीछे रह गई हैं. इस निर्णय की घोषणा के लगभग तुरंत बाद ही ममता ने ट्वीट करके इसकी आलोचना की थी और इसे वापस लेने की मांग की थी. यही नहीं, ममता उसके बाद से लगातार इसके खिलाफ बयान देती आ रही हैं और अपने प्रदेश के मामलों को कोलकाता में छोड़कर अब उन्होंने नई दिल्ली में डेरा डाल दिया है. उनकी अगुवाई में कई विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता धरना, बयानबाजी, राष्ट्रपति को ज्ञापन देने आदि में शामिल हो रहे हैं.
ममता के साथ आए विपक्षी दलों में नेशनल कॉन्फ्रेंस, शिवसेना और आम आदमी पार्टी (आप) के नेता भी शामिल हैं. यह बात अलग है कि उन्होंने वामपंथी दलों को भी अपने अभियान से जुड़ने का न्योता दिया है, लेकिन समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस इससे अलग हैं. भले ही ममता और उनकी पार्टी पिछले सालों में शारदा, नारद और तुष्टीकरण के मामलों पर घिरी हों, लेकिन सिंगुर जमीन मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उनके हौसले बुलंद हैं, और वह अब राष्ट्रीय स्तर पर खुद को स्थापित करने को तत्पर दिखती हैं.
दूसरी ओर, मायावती द्वारा इस मामले से अपने को राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी नेता के तौर पर स्थापित करने की मुहिम में कोई अन्य विपक्षी दल उनके साथ नहीं है, और न ही उन्होंने ऐसा कोई संयुक्त अभियान छेड़ा है. लेकिन यदि वह ऐसा करती भी हैं तो इसमें उन्हें सपा समेत कई दलों का साथ मिलना मुश्किल है. बसपा के अनेक नेताओं ने पार्टी छोड़ते वक्त पार्टी प्रमुख पर चुनाव टिकट के बदले रुपये लेने का आरोप लगाया है, और यह मुद्दा प्रदेश में चर्चा का विषय बना रहता है.
मायावती की आक्रामकता केवल प्रेस वार्ता में अपना बयान पढने, और संसद के बाहर बयान देने तक ही सीमित रहती है. अपनी राजनीतिक यात्रा में ममता किसी भी मुद्दे को आक्रामक तौर पर सड़क पर ले जाकर लोगों को लामबंद करती आई हैं, और इस बार भी उन्होंने मायावती को पीछे छोड़ दिया है. ममता के साथ उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के सांसद रहते हैं, जबकि मायावती के पास इस वक्त लोकसभा में कोई सांसद है ही नहीं.
कांग्रेस अभी भी इस मुद्दे पर किसी भी अन्य विपक्षी दल के संयोजन से अपने को अलग रख रही है, और उसकी प्रतिक्रिया इसे सड़क का मुद्दा बनाने की नहीं दिख रही है. ऐसे में नोटबंदी पर ममता यदि अपना आक्रामक रुख बनाए रखती हैं तो कांग्रेस के पास उससे जुड़ने के अलावा कोई विकल्प शायद न रह जाए.
इन दो महिला नेताओं के बीजेपी-विरोधी अभियान का कुछ लाभ उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को हो सकता है, क्योंकि सभी पार्टियां प्रदेश के चुनाव अभियान में सपा सरकार की नीतियों और प्रदेश की स्थिति को मुद्दा न बनाकर बीजेपी और पीएम मोदी को ही निशाने पर रखना चाहेंगी. ऐसे में प्रदेश के चुनाव में सपा के लिए अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान करना ही एकमात्र मुख्य रणनीति हो सकती है.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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