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This Article is From Oct 16, 2017

कैसे पूरा होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गरीबी हटाओ का नारा?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 16, 2017 12:53 pm IST
    • Published On अक्टूबर 16, 2017 12:41 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 16, 2017 12:53 pm IST
इधर देश के प्रधानमंत्री ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उसके दो दिन बाद ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने बताया कि भारत इसमें तीन अंक नीचे खिसक गया है. यह स्थिति तब है जबकि देश की जनता ने सालों बाद एक स्पष्ट बहुमत देकर बहुत उम्मीदों के साथ अपना सर्वप्रिय नेता चुना है, लेकिन बदले में उसे वैसा नहीं मिलता दिख रहा जैसा कि उन्हें बार-बार भरोसा दिलाया गया था.

गनीमत यह है कि देश में गरीबी को मान लिया जा रहा है वरना डिजिटल इंडिया और नया भारत के नारों में यह बात समझ ही नहीं आ रही थी कि गरीबों के बारे में कुछ सोचा और किया जा रहा है. गरीबी हटाओ का नारा देने के लिए प्रधानमंत्रीजी को धन्यवाद देना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी कहा जाना चाहिए कि इससे पहले भी देश में चार प्रधानतंत्री इसे अलग-अलग ढंग से दूर करने का नारा दे चुके हैं, इतना हो चुकने के बाद भी गरीबी को हटाए जाने की रफ्तार बहुत धीमी है.

भारत जैसे देश में तमाम नारों और कोशिशों के बाद 46 साल में गरीबी 57 फीसदी से घटाकर तीस प्रतिशत तक ही सिमट पाई है. इसी रफ्तार से चलते रहे तो प्रधानमंत्रीजी के नारे को सही साबित करने के लिए हमें अभी चालीस-पैंतालीस साल और लग जाएंगे. निश्चित ही तब तक दुनिया और आगे जा चुकी होगी. इधर हम पूरी दुनिया के सामने सतत् विकास लक्ष्य हासिल करने के लिए 2030 तक का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं. इससे पहले भी जब हमने इस सदी की शुरूआत में सहस्त्राब्दी लक्ष्य तय किए थे, उसमें भी गरीबी को दूर करने का लक्ष्य प्रमुखता से शामिल था.

इसमें सफल नहीं हो पाए तो एक बार फिर नए लक्ष्यों को खड़ा कर दिया गया. नया लक्ष्य 2030 तक पूरा करना है, और अभी 13 साल का वक्त है, पर इन 13 सालों में गरीबी हटाने का रोडमैप बहुत साफ नहीं है. इसमें एक बड़ा हिस्सा छोटे और मझौले किसानों का है, जिनकी आय 2022 तक दोगुनी कर देने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन खेती-किसानी के विकास की भी कोई अच्छी खबरें आना अभी शुरू नहीं हुई हैं, अलबत्ता लागत बढ़ने और कम समर्थन मूल्य मिलने के कारण कृषकों की आय जस की तस बढ़ी हुई है.

जो विकास बताया जा रहा है वह विकास एक छोटे से नौकरीपेशा समूह तक सीमित है, जो वेतन आयोगों की मेहरबानी से मॉल, शॉपिंग साइट्स और बाजारों की रौनक बढ़ा रहा है, लेकिन देश केवल इतना सा नहीं है और न ही कोई भी सरकार केवल इतने छोटे से समूहों के वोटों से संसद तक पहुंचती है. उसके लिए यह तय करना पड़ेगा कि विकास किसके हिस्से में पहले आना चाहिए, क्या हमने गरीबों की सही पहचान कर ली है.

जिन आधारों इस गरीबी की बात की जा रही है, वह हर दिन 120 रुपए से कम में गुजारा करने वाले गरीबों के आधार पर कही जा रही है. ऐसे देश में करीब 22 करोड़ लोग हैं. भारत में गरीबी की परिभाषाओं को अलग-अलग रूप में देखा जाता रहा है. इसको झुठलाने के भी तमाम तरीके हैं और गरीबी का मजाक भी उड़ाया जाता रहा है इसका सबसे बेहतरीन नमूना तो पांच रुपए में भरपेट भोजन कर लेने के के दावे से किया ही जा चुका है. अलबत्ता सच्चाई यह है कि आज पांच रुपए में एक चाय मिलना मुश्किल हो रहा है, और पांच रुपए का एक समोसा भी बिना चटनी के ही आता है. चटनी के लिए एक दो रुपए अलग से खर्च करने पड़ रहे हैं.

फिर गरीबी की एक सर्वमान्य परिभाषा का माना जाना जरूरी है. गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानी पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है. अभी यह माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने शरीर को औसत रूप से स्वस्थ रखने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी की न्यूनतम आवश्यकता होती है. सोचिए सही पोषण के लिए हमें कितना और समृद्ध होना पड़ेगा?

देश में गरीबी को मापने का एक पैमाना वर्ष 2009-10 में 32 रुपए शहर में और 26 रूपए गांव में माना गया. इसके नीचे की आबादी को गरीबी की रेखा माना गया. इस आधार पर लगभग 37 प्रतिशत यानी 42 करोड़ लोग गरीबी की रेखा में मानी गई. गरीबी को घटाने के लिए 2012 में फिर एक खेल खेला गया और भारत के योजना आयोग ने नए मानक तय किए जिसके अनुसार खर्च की प्रतिदिन की घटा दी गयी. गांव में 22.42 रूपए और शहर में 28.35 रुपए तय किया गया. इससे एक झटके में तकरीबन पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर हो गए और सरकार ने यह दावा ठोक दिया कि देश में गरीबी कम हो गई. गांव में गरीबी का अनुपात 41.8 प्रतिशत से घट कर 33.7 और शहर में 25.7 प्रतिशत से घट कर 20.9 प्रतिशत पर आ गया. इसमें अर्जुन सेन गुप्ता, तेंदुलकर समिति की उन रिपोर्ट को तो छोड़ ही दें जिसमें उन्होंने अपने विश्लेषण से देश में सत्तर फीसदी आबादी को गरीबी रेखा के नीचे माना था.

योजना आयोग की जगह अब देश में नीति आयोग काम कर रहा है, अब देखना होगा कि तीस प्रतिशत गरीबी जो मान ली गई है, उसे ही दूर करने का कौन सा रास्ता अपनाया जाता है, जिससे इसे देश से पूरी तरह उखाड़ फेंकने में चालीस-पैंतालीस साल का वक्त न लगे.


राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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