सीमा पार रहने वाली गीता खुशकिस्मत थी, सरकार ने उस पर इतना ध्यान दिया। प्रधानमंत्रीजी की चिंता लाजिमी थी। होनी भी चाहिए। देश का मुखिया ऐसे किसी मामले पर चिंतित होता है तो पूरा तंत्र स्वत: ही सक्रिय हो जाता है, मीडिया भी।
घर नहीं लौटती हर गीता...
मेरे अगले बिन्दुओं को इस मामले से यूं तो नहीं जोड़ा जाना चाहिए, लेकिन गीता के मामले ने कुछ सवालों को खड़ा कर दिया है, उम्मीद बांध दी है। उम्मीद यही कि देश में बेटियों के लिए जिम्मेदार लोग चिंतित हो रहे हैं। इसीलिए अब उन तमाम लोगों ने निराशा में झुकी गर्दन को उठाकर एक बार फिर घर की दहलीज की तरफ घुमा दिया है, जिनकी बेटियां अपने ही मुल्क में सालों से गायब हैं। इनका ठीक—ठाक अंदाजा भी नहीं है कहां—कितनी? घर क्यों नहीं लौटी हैं ? इसके केवल कयास हैं। लेकिन जितने आंकड़े सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं उनमें यह साफ नजर आता है कि कुल गायब होने वाले लोगों में घर नहीं लौटने वालों में बड़ा आंकड़ा लड़कियों का ही है। इसके पीछे की क्या वजहें हैं इस पर ठीक—ठीक कोई बात सामने नहीं है। लेकिन जिस तरह की खबरें आती हैं या महानगरों के रेडलाइट इलाकों से जो सूचनाएं आती हैं उनमें यह बात साफ समझ में आ जाती है कि हर गीता घर नहीं लौटती, और अगर गीता मुल्क में ही है तब तो कतई नहीं।
सात साल में साढ़े चार हजार लड़कियां नहीं मिल सकीं
मध्यप्रदेश में सूचना के अधिकार के तहत कुछ सालों के आंकड़े निकालने की मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कोशिश की। जानकारी के मुताबिक मध्यप्रदेश में साल 2007 से 2014 के बीच 8 सालों में 66,462 बच्चे गुम हुए। इनमें से 39,225 लड़कियां थीं। पुलिस के मुताबिक इन सभी गुम हुए बच्चों में से 6,285 बच्चे अब तक खोजे नहीं जा सके हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जो बच्चे अब तक नहीं मिले हैं, उनमें से 4526 लड़कियां हैं। केवल मध्यप्रदेश भर की बात नहीं देश के अलग-अलग राज्यों में यही स्थिति है, छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे राज्यों में तो और भी अधिक, क्योंकि यहां पर बड़ी संख्या में आदिवासी रहते हैं, जो शहरी चकाचौंध के लालच में आसानी से आ जाते हैं। जिन्हें कुदरत ने प्राकृतिक रूप से शांत बनाया है, और इसी का फायदा हजारों सालों से उनके शोषण के रूप में लगातार सामने आया है। चाहे वह मानव तस्करी के जरिए हो या फिर किसी अन्य रूप में।
शोषित लड़कियां...सम्मान कहीं नहीं
शहरी चकाचौंध के बीच पहुंचकर उनकी हैसियत घरेलू काज झाड़ू, पोछा, बर्तन से अधिक कुछ नहीं होती, लेकिन एक अदद घर के लिए ऐसे महत्वपूर्ण काम करने के लिए लड़कियां, महिलाएं जरूर चाहिए होती हैं। यह भी समाज की अजीब विडंबना है कि ऐसे घरेलू काम में लगी महिलाओं और लड़कियों के मोल को सम्मान ही नहीं मिलता, जबकि केवल एक दिन उनके न आने से घर की व्यवस्थाएं चौपट हो जाती हैं। अजीब तो यह भी है कि हमारा समाज अपने घर की ही महिलाओं के श्रम के मूल्य का न मानता है और न स्वीकार करता है जो की देश के एक साल के कुल बजट के बराबर होता है। खैर वह चर्चा का पूरा एक अलग विषय है।
स्मार्ट इंडिया में निशाने पर लड़कियां
मूल विषय पर वापस आकर पूरे देश की बात करें तो अब तक लगभग डेढ़ लाख लड़कियां ऐसी हैं जिनका कहीं अता-पता नहीं है। काश कि वह गीता हो पातीं। केवल अपहरण के मामलों को ही जब हम देखते हैं तो हमें एक ऐसी तस्वीर मिलती है जो हमारी आंखों के आगे स्मार्ट इंडिया के सपने को चकनाचूर करती है। क्योंकि अपहरण के निशाने पर भी लड़कियां ही ज्यादा हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन सालों में जितने अपहरण हुए हैं उनमें सत्तर फीसदी मामले महिलाओं से सम्बंधित हैं।
चाहे कोई भी सरकार आई, सभी ने कहा विकास हो रहा है। पीवी नरसिम्हाराव की सरकार चार कदम सूरज की ओर चली, अटल बिहारी वाजपेयी ने देश को स्वर्णिम भारत बनता बताया, तो मनमोहन सिंह की सरकार भी आर्थिक उदारीकरण के अपने गुब्बारे में हवा भरती रही। सत्ता परिवर्तन के बाद अब एक नए डिजिटल युग का सूत्रपात हो चुका है, जिसमें हम अपने स्मार्ट भारत को मोबाइल और इंटरनेट के जाल पर तैरता देख रहे हैं... बड़ी उम्मीद से। पर क्या हम इधर इन्हीं सरकारी आंकड़ों पर गौर करेंगे।
जिसे संरक्षण की जरूरत...वही सबसे अधिक शोषित
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो बताता है कि 1953 में किडनैपिंग, या एबडक्शन के पूरे देश में 5261 मामले दर्ज हुए। साल 2011 में यह बढ़कर 44 हजार 664 हो गए। साठ साल के अंतर में यह साढ़े सात सौ गुना से अधिक हो गया। क्या यह विकास है? यह समाज के सभ्य और शांत होने को दिखाता है या यह दिखाता है कि हमारा समाज सात सौ गुना अधिक अपराधी हो गया। इसके बरक्स दूसरे अपराधों को देखें तो किसी भी किस्म के हिंसात्मक अपराध में दो सौ गुना से ज्यादा की बढ़ोत्तरी दर्ज नहीं की गई है। हां, बलात्कार का प्रतिशत दो सौ से भी अधिक है। यह इसलिए कि दोनों ही स्थितियों में वह वर्ग निशाने पर बना है जिसे सबसे ज्यादा सुरक्षा और संरक्षण की जरूरत है, मतलब महिलाएं और बच्चे।
क्या सरकार अपने देश की बेटियों को लेकर चिंतित हो गई?
तो क्या गीता के बाद अब मान लिया जाना चाहिए कि देश की गुम बेटियों के लिए सरकारें चिंतित हो गई हैं। बेटियां जो अपने ही मुल्क में कहीं खो गयी हैं, सरकार उनका पता लगाएगी, उन्हें घर पहुंचाएगी, या लाल इलाके के काले अंधेरों, रईस कोठियों में वे इसलिए गुमनाम ही रहेंगी, क्योंकि उनके वापस घर पहुंचने से वाहवाही नहीं होती, कोई खबर नहीं बनती।
This Article is From Oct 30, 2015
राकेश कुमार मालवीय : गीता जैसी उन हजारों बेटियों का क्या, जो मुल्क में ही गुम हैं...
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 30, 2015 20:43 pm IST
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Published On अक्टूबर 30, 2015 01:18 am IST
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Last Updated On अक्टूबर 30, 2015 20:43 pm IST
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