मध्यप्रदेश के इंदौर में सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं मिलने का दावा किया जाता है. इस शहर के सबसे बड़े एमवाय अस्पताल में दो महीने पहले 17 लोगों की कुछ घंटों में ही मौत हो गई थी. बताया जाता है कि ऑक्सीजन खत्म होने से यह हादसा हुआ था. इस मामले में सवाल उठते रहे, जांचों में इन मौतों को सामान्य बता दिया गया. जांच रिपोर्ट को जनता पचा भी नहीं पाई थी, कि अब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपने शहर के बड़े अस्पताल में एक दो नहीं, तीस बच्चों की मौत हो गई. यह मौतें ऑक्सीजन सप्लाई के मामले से जुड़ी होना बताया जा रहा है.
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इन मौतों की भी जांच होगी, रिपोर्ट आएगी, रिपोर्ट में किसे गुनहगार ठहराया जाएगा, नहीं ठहराया जाएगा, क्लीन चिट दे दी जाएगी, जो होगा सो होगा, जो नहीं होगा वह यह कि ऐसी घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया जाएगा, स्वास्थ्य सेवा सरीखे क्षेत्र में लापरवाही के मामले जारी रहेंगे. जो नही होना चाहिए वह यह होगा कि सरकारी अस्पतालों की एक ऐसी छवि गढ़ दी जाएगी, जहां कि वे सबसे बेकार, लापरवाह और उनमें जाना यानी मौतों को दावत देना.
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निजीकरण को समाज में थोप देने का इससे सस्ता और आसान रास्ता कोई और है भी नहीं, जिसके दम पर निजी स्वास्थ्य और शिक्षा सरीखी सेवाएं बेहद आसानी से अपना लक्ष्य हासिल कर रही हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि स्वास्थ्य सेवाओं में इस बड़ी लापरवाही को माफ कर दिया जाना चाहिए.
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जिन बाबा राघवदास के नाम पर गोरखपुर का अस्पताल बना उन्हें 'पूर्वांचल का गांधी' कहा जाता है. सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता रहा है. वे मानते थे कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र आजाद भारत में बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण हैं, इसलिए कई संस्थाओं की स्थापना उन्होंने खुद की. उन्हीं के नाम पर सत्तर के अंत ओर अस्सी के दशक की शुरुआत में यह बड़ा मेडिकल कॉलेज बनाया गया. तकरीबन डेढ़ सौ एकड़ में फैला यह 800 बस्तरों वाला बेहतरीन अस्पताल है, जहां कि छोटे-बड़े नौ सौ कर्मचारी और डॉक्टर दिन-रात काम करते हैं.
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अस्पताल की वेबसाइट पर दर्ज है कि यहां हर साल तकरीबन साढ़े तीन लाख लोग ओपीडी में अपना इलाज कराते हैं, जबकि चालीस हजार लोग आईपीडी में भर्ती होते हैं. बेहद सस्ती दरों पर और गरीबों के लिए लगभग मुफ्त स्वास्थ्य जांचें और सेवाएं दी जाती हैं, इनमें वेंटीलेटर आईसीयू, आईसीसीयू, होमो डायलिसिस, पेस मेकिंग, वीडियो, ईसीजी, बैलून वॉल्वोग्राफी, इंडोस्कोपी, न्यूरो सर्जरी, वीडियो गेस्टोकॉपी, पीडियाटिक सेवाएं मुहैया कराई जाती हैं.
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विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी यह मानना है कि भारत की 4 प्रतिशत आबादी यानी तकरीबन 4 करोड़ से ज्यादा लोग प्रतिवर्ष स्वास्थ्य पर होने वाले अत्यधिक खर्च के कारण गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे चले जाते हैं. इसलिए जरूरी हो जाता है कि भारत में सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं सभी की पहुंच में हों. बीआरडी जैसे अस्पताल ऐसे समाज में होना, उनका अच्छे से चलते रहना बेहद जरूरी है.
सोचिए सरकारी अस्पताल कितना काम करते हैं, या कर सकते हैं, कितनी क्षमताएं उनमें हैं, लेकिन निजी स्वास्थ्य संस्थानों को लगता होगा कि यह जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं हैं, वह उनके फलने-फूलने में सबसे बड़ी बाधा है, इसलिए मिलजुल कर ऐसी छवि गढ़ी जाती है, जिससे ऐसे मेडिकल कॉलेज समाज में खलनायक की तरह साबित होते हैं.
मामला लापरवाही का होता है, लापरवाही किसी भी जगह हो सकती है, सरकारी लापरवाही समाज में सामने आ जाती है, उसकी रिपोर्टिंग आसान होती है, क्योंकि विज्ञापन नहीं रोके जाते, मार्केटिंग टीम से कोई सिफारिशी फोन भी नहीं आता. गैर सरकारी अस्पतालों के ऐसे मामले तो सामने आ भी नहीं पाते, क्या वहां सब-कुछ सही-सही हो रहा होता है.
लेकिन जरूरी यह है कि दूसरे मोर्चों पर भी उतने ही अच्छे से काम किया जाए, जैसी बात अस्पताल पर लागू की जाती है, उसे सरकार के संदर्भ में भी लिया जा सकता है, दुर्भाग्य से सरकारें भी लापरवाह ही साबित हो रही हैं.
उत्तरप्रदेश में बच्चों की स्थिति ठीक नहीं है, इस बात को जानने का कोई रॉकेट साइंस नहीं है, न ही कोई अलग से शोध करवाने की जरूरत है, सरकार के अपने सर्वेक्षण इस बात को चीख-चीख कर कहते हैं. मैंने इससे पहले लिखे अपने लेखों में इस बात का ब्यौरा दिया था. बच्चों की बदहाल हालत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को विरासत में समाजवादी सरकार से मिली है.
वार्षिक परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक जो जन्म लेने के सात दिन के अंदर जिंदा नहीं रह पाते जिसे हम तकनीकी भाषा में नवजात शिशु मृत्यु दर कहते हैं इसमें शीर्ष 100 जिलों में 46 उत्तप्रदेश के खाते में आते हैं. हमने उनसे बड़े बच्चों यानी शिशु मृत्यु दर (जो बच्चे जो अपना पहला जन्मदिन ही नहीं मना पाते) पर नजर डाली तो उसमें भी शीर्ष 100 जिलों में सबसे ज्यादा जिले उत्तरप्रदेश के हैं. और जब हमने उससे भी बड़े यानी पांच साल तक के बच्चों अर्थात बाल मृत्यु दर को देखा तो उसमें भी उत्तरप्रदेश ही आगे खड़ा हुआ है.
वीडियो: गोरखपुर अस्पताल में 36 घंटे में 30 मासूमों की मौत
उत्तर प्रदेश में पांच साल तक के 46.3 फीसदी बच्चे ठिगनेपन का शिकार हैं. इसका मतलब यह होता है कि उनकी ऊंचाई उनकी उम्र के हिसाब से नहीं बढ़ती. कुपोषण का एक दूसरा प्रकार उम्र के हिसाब से वजन नहीं बढ़ना है, इसमें भी उत्तर प्रदेश के 39.5 प्रतिशत बच्चे सामने आए हैं, जबकि भारत में अभी 35.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं. यानी उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय औसत से ज्यादा गंभीर स्थिति में है. यह आंकड़े भयावह हैं, ऐसी स्थिति में यह जरूरी हो जाता है कि बच्चों के स्वास्थ्य को सरकार अपने एजेंडे में सबसे पहले रखती, लेकिन योगी सरकार के पिछले महीनों के कार्यकाल में ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है, अलबत्ता अपने चुनावी घोषणा पत्र में दर्ज कुपोषित बच्चों को घी-दूध बांटे जाने के वायदे का भी कुछ अता-पता नहीं है.
एक स्थिति यह है कि कोई बीमार ही न हो, बीमारी से लड़ने की क्षमता हो. दूसरी स्थिति है कि बीमार हो जाए तो उससे निपटने के कारगर उपाय हों, ताकत हो, तंत्र हो, इच्छाशक्ति हो, पहुंच हो, क्षमता हो. दोनों ही तरह की चुनौतियां अभी देश के सामने हैं, लेकिन स्थिति यह है कि सरकारी स्वास्थ्य तंत्र और लोगों की सेहत पर किया जाने वाला बजट प्रावधान पिछले सालों में लगातार कम हो रहा है. बजट विश्लेषकों ने बताया है कि हमारे देश की जीडीपी का बहुत छोटा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जा रहा है, जो देश की स्थितियों के लिहाज से काफी कम है. सरकारी स्वास्थ्य तंत्र बजट न होने का हवाला दे सकता है, पर एक सच यह भी है कि जो बजट है वह भी पूरा खर्च नहीं हो पा रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट बताती है कि भारत में कुल जीडीपी का 4.7 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाता है. पिछले बीस सालों में यह मात्र .7 प्रतिशत ही बढ् पाया. यह अभी भी स्वास्थ्य क्षेत्र में विश्व की औसत जीडीपी प्रतिशत का आधा है. यह आंकड़ा भी दो साल पहले तक का है.
सन् 1977 में सोवियत रूस के 'आल्मा आटा' में हुए विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में यह तय हुआ कि सरकारों एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का मुख्य सामाजिक लक्ष्य यह होना चाहिए कि सन् 2000 तक विश्व के सभी लोग को स्वास्थ्य का ऐसा स्तर उपलब्ध हो जाए, जिससे कि सामाजिक एवं आर्थिक उत्पादक जीवन जी सकें. 'अल्मा-आटा' घोषणा में, 'सन् 2000 तक सभी के लिए स्वास्थ्य' की बात कही गई थी, लेकिन तब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया. इसके बाद शताब्दी विकास लक्ष्य/इनके अंतर्गत सन् 2015 तक सभी को स्वास्थ्य उपलब्ध करवाने की बात कहीं गई थी. परन्तु अभी भारत जैसी विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भी अपने तीन चौथाई से ज्यादा नागरिकों को उनके स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने में असमर्थ रही है. जो मिल रही हैं उनमें भयंकर लापरवाहियां सामने आ रही हैं.
भाजपा के घोषणा पत्र में स्वास्थ्य व्यवस्था को विज्ञान के मूल सिद्धान्तों की 'पहुंच बढ़ाना, गुणवत्ता में सुधार लाना, लागत कम करना' के रूप में लिखा गया है. पर अब देखना यही है कि पूरे देश में भाजपा का विजय रथ चल रहा है, लेकिन इन गैर राजनीतिक मोर्चों, लोगों को राहत देने वाले तरीकों और उनकी जीवन को आसान करन वाली पराजयों पर उनकी जय होना कब शुरू होता है.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Aug 12, 2017
यूं ही नहीं हुईं 30 बच्चों की मौत, भयावह है सरकारी अस्पतालों का सच
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 13, 2017 21:57 pm IST
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Published On अगस्त 12, 2017 13:51 pm IST
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Last Updated On अगस्त 13, 2017 21:57 pm IST
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