अस्सी के दशक में हिंदी की सुख्यात कवयित्री कात्यायनी की यह कविता ख़ासी चर्चा में रही थी- 'हॉकी खेलती लड़कियां'. लड़कियां दुनिया से बेखबर-बेपरवाह हॉकी खेल रही हैं, वे मैदान के एक सिरे से दूसरे सिरे पर दौड़ रही हैं. इधर वर पक्ष वाले इंतज़ार कर रहे हैं, अम्मा बैठी राह देख रही हैं कि बेटियां आएं तो संतोषी मां की कथा सुनाएं, भाई लौट-लौट कर आ रहा है, चौराहे पर शोहदे खड़े हैं. लेकिन लड़कियां इन सबसे निर्द्वंद्व खेल रही हैं, फाउल कर रही हैं, पेनाल्टी कॉर्नर मार रही हैं, ख़ुशी से गोल-गोल चिल्ला रही हैं- यह जानते हुए भी कि जीवन के भीषण संघर्ष के लिए उन्हें घर लौटना है. घर नहीं लौटेंगी तो अम्मा कुलच्छनी को पैदा करने पर रोएंगी, बाबूजी गरजेंगे, भाई झोंटा पकड़ कर खींचता ले आएगा. फिर रात आएगी और लड़कियां अपने सपनों में गोल-गोल चिल्लाएंगी.
कात्यायनी की कविता में वह शुक्रवार का दिन था. लेकिन इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में टेनिस खेलने और सबको सिखाने का सपना देख रही राधिका यादव के जीवन में शुक्रवार नहीं आया. गुरुवार को उसे गोली मार दी गई. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में बताया गया कि उसे चार गोलियां लगी थीं. अभी पिता ने कहा कि उसने गोली मारी है. सच जांच के बाद सामने आएगा. फिलहाल यही सच है कि टेनिस खेलती एक लड़की को जीने का अवसर नहीं दिया गया.
लेकिन सामने आ रहे तथ्य इन सभी अनुमानों को गलत बताते हैं. बताया जा रहा है कि पिता ख़ासा पैसे वाला था और उसने टेनिस एकैडमी खुलवाने में बेटी की मदद की थी. यह भी नहीं दीखता कि बेटी को रील बनाने का कोई बहुत गहरा शौक था. बल्कि ख़बर यह आ रही है कि हाल के दिनों में पिता का तनाव देखते हुए बेटी ने सोशल मीडिया से दूरी बरती थी. वह पिता की काउंसेलिंग भी कर रही थी. मीडिया में जो एक म्यूजिक वीडियो चल रहा है वह डेढ़ साल पुराना है और उसमें शामिल लड़का बता रहा है कि वीडियो बनते समय घर के सभी लोग खुश थे.
एक तस्वीर में वह सानिया मिर्ज़ा जैसी दिख रही थी- यह समानता इतनी ज़्यादा थी कि एक पोर्टल पर यह तस्वीर लगी तो उत्साही ट्रोलर इसे सानिया की तस्वीर बताने लगे. बाद में हुए फैक्ट चेक ने उन्हें शर्मिंदा किया.
बेशक, उसके हिस्से भी शुक्रवार आए होंगे। आख़िर वह टेनिस खेलती रही थी और पिता की मदद से ही उसने एकैडमी खोली थी. लेकिन वे दूसरों के दिए शुक्रवार होंगे. उसका अपना शुक्रवार नहीं आ पाया। तो अभी तक का इकलौता सच यही है कि राधिका की हत्या का सच सामने नहीं आया है. संभव है कि वह सामने आए तो फिर कोई नई कहानी खुले जो अब तक चल रही कहानियों से कहीं ज़्यादा उदास करने वाली साबित हो. तब पता चले कि मिलेनियम सिटी कहलाने वाले गुड़गांव की एक संभ्रांत कॉलोनी में टेनिस खेलने वाली एक लड़की क्यों मार डाली गई. क्या वह अपने लिए तय की गई सीमाएं फलांगने की कोशिश कर रही थी?

क्या उसके सपनों का मैदान घर वालों के लिए कुछ बड़ा साबित हो रहा था? शाम होने पर लड़कियों के घर में लौटने पर क्या-क्या नतीजे हो सकते हैं, यह बता रही कात्यायनी की कविता क्या इस मामले में सच हो गई है? क्या वह लड़की भूल गई थी कि उसकी डोर अंततः पिता और भाई की इच्छाओं से बंधी है? मीडिया में चल रहा उसका वीडियो देखिए तो एक हूक सी होती है. वह एक प्यारी सी लड़की है जो शायद अपने आप को व्यक्त करने के कई तरीक़े आज़मा रही है.
लेकिन अब आख़िरी तरीक़ा बचा है जिससे उसकी अंतिम बात समझी जा सकती है. गोलियों से बिंधी उसकी देह का शव परीक्षण हो चुका है. इसमें उसकी आत्मा के ज़ख़्मों का ब्योरा मिलना संभव नहीं है. उसके अंतिम संस्कार के बाद का अंतिम सत्य यह है कि उसकी सपने देखने वाली आंखें जल चुकी हैं, उसके हाथ जल चुके हैं जिनसे वह रैकेट थामती रही होगी और वह सपना जल चुका है जो उसके भीतर था.
बस राहत इतनी है कि हज़ारों नहीं, लाखों लड़कियों के भीतर उसका छूटा हुआ सपना अपने ढंग से अंखुआ रहा है. गोलियां अंततः हारेंगी और कविता बची रहेगी.
(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर के पद पर हैं....)
अस्वीकरण: इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.