दिल्ली और देश में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए न भारतीय जनता पार्टी को कोसें और न ही संघ परिवार को. ये सब अपने लक्ष्यों को लेकर बहुत ईमानदार संगठन हैं- लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चाहे जितनी बेईमानी कर लें. एक समुदाय के प्रति अपने भाव इन्होंने कभी नहीं छुपाए और यह इरादा भी कभी नहीं छुपाया कि सत्ता में आने के बाद वे इस देश के बहुसंख्यकवाद को नई ताक़त देंगे. धारा 370 हटाने की बात हो, राम मंदिर निर्माण की बात हो, तीन तलाक़ की बात हो, एनआरसी की बात हो- सब बीजेपी के घोषणापत्र में पहले से दर्ज है. बल्कि कई बार इस आधार पर उनकी खिल्ली उड़ाई गई कि वे सत्ता में आने के बाद अपना एजेंडा भूल जा रहे हैं. अब वे अपना घोषित एजेंडा पूरा कर रहे हैं तो इस पर आप दुखी हो सकते हैं, हैरान नहीं.
दरअसल जिन लोगों ने इन्हें वोट दिए, वे बाख़ूबी जानते थे कि बीजेपी अपनी ताक़त पर सत्ता में आएगी तो क्या करेगी. यही नहीं, जिन लोगों ने हाल में दिल्ली में आम आदमी पार्टी को वोट दिया, उनको भी मालूम था कि आम आदमी पार्टी देर-सबेर बीजेपी की ‘बी' टीम साबित होगी. जय श्रीराम को जय हनुमान के नारे से रोकने की अपनी रणनीति पर हास्यास्पद ढंग से इतराते सौरभ भारद्वाज और उनके सहयोगी ट्विटर और टीवी चैनलों के अलावा कहां-कहां जा रहे हैं- अभी किसी को नहीं मालूम. सुना है कि अरविंद केजरीवाल के घर पहुंचे कुछ संस्कृतिकर्मियों को भी पुलिस के हवाले कर दिया गया है. दिल्ली की 62 सीटें जीतने वाली पार्टी अपने आधे विधायकों को लेकर भी संकटग्रस्त क्षेत्रों में कुछ उस तरह उतर आती जिस तरह नोआखाली में अपने मुट्ठी भर सहयोगियों के साथ गांधी उतर आए थे तो दंगाइयों के हौसले भी पस्त होते और उनको मिलने वाला समर्थन भी शिथिल होता. लेकिन केजरीवाल ने भी यह हिम्मत तब दिखाई जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल उत्तर पूर्वी दिल्ली की गलियों में घूमते हुए और लोगों को भरोसा और दिलासा देते हुए अपने लिए ज़िंदाबाद के नारे लगवा आए. दरअसल ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी से यह उम्मीद ही बेमानी है. वह जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के पूर्व निर्धारित और सुरक्षित धरनों में बैठने वाले आंदोलन की कोख से निकली है और सड़क की हिंसा के अहिंसक प्रतिकार का व्याकरण उसने कभी नहीं सीखा.
दिल्ली में चल रही हिंसा न कानून व्यवस्था की विफलता का नतीजा है और न ही नागरिकता संशोधन क़ानून के पक्ष और विरोध में चल रहे टकराव का परिणाम- यह एक शुद्ध सोची-समझी परियोजना का हिस्सा है जिसका मक़सद बहुसंख्यकवाद के एकाधिकार को अंतिम तौर पर स्थापित करना है. लेकिन यह काम सिर्फ अल्पसंख्यकों को दबा कर नहीं होगा, इसके लिए उस लोकतांत्रिक जज़्बे को ही नष्ट करना होगा जो सभी नागरिकों को समान मानता है, सबके लिए बराबरी के अधिकार और इंसाफ़ की बात करता है.
वैसे तो यह परियोजना पुरानी है, लेकिन हाल में पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने के मासूम और मानवीय लगने वाले तर्क के साथ लाए गए नागरिकता संशोधन क़ानून से फिर से शुरू होती है. इसमें बड़ी चालाकी से क़ानून के भीतर मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया जाता है और फिर यह समझाने की कोशिश होती है कि इस कानून का भारत में रह रहे अल्पसंख्यकों से कोई लेना-देना नहीं है, यह उनकी नागरिकता छीनने वाला क़ानून नहीं है. यह कोई नहीं बताता कि यह उनकी नागरिकता को दोयम दर्जे की ओर धकेलने वाला पहला कदम है क्योंकि पहली बार भारतीय नागरिकता से जुड़े क़ानून में धर्म की शर्त लागू की गई है और एक धर्म के लोगों को इससे बाहर कर दिया गया है.
जब यह क़ानून बन रहा था, तब बीजेपी के तमाम मुख्यमंत्री जोर-शोर से अपने-अपने राज्यों में एनआरसी लाने की बात कर रहे थे. तब तक असम का अनुभव सामने आ चुका था और यह साफ़ था कि नागरिकता रजिस्टर बनाने की यह क़वायद व्यावहारिक तौर पर अराजकता की शिकार हो चुकी है. मगर यही वे दिन थे जब गृह मंत्री अमित शाह क्रोनोलोजी समझाने में लगे थे.
स्वाभाविक है कि इस क्रोनोलोजी ने उन लोगों को सबसे ज्यादा डराया जिनकी नागरिकता पहले धर्म के नाम पर दोयम दर्जे में धकेली जा रही थी. उन्हें लगा कि नागरिकता रजिस्टर बनेगा और सबसे नागरिक होने के सबूत मांगे जाएंगे तो वे सबसे ज़्यादा निशाने पर होंगे. वैसे भी सही क़ायदा यह होता कि सरकार लोगों से नागरिकता के सबूत मांगने की जगह ख़ुद वे सबूत लेकर आती जिनके ज़रिए किसी की विदेशी नागरिकता प्रमाणित होती. क्योंकि असम में भी जो एनआरसी हुई है, उसमें भले 19 लाख लोगों की नागरिकता संदिग्ध हो गई, लेकिन शायद ऐसा एक भी केस नहीं है जिसमें किसी की विदेशी नागरिकता- चाहे बांग्लादेश या पाकिस्तान की- प्रमाणित हुई हो. जब नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के विरोध ने देश भर में ज़ोर पकड़ लिया तो सरकार यह बताने लगी कि एनआरसी को लेकर विपक्ष अफवाह फैला रहा है, कि अभी दूसरे राज्यों में एनआरसी लागू करने का कोई प्रस्ताव नहीं है. लेकिन वह यह नहीं बता रही कि दरअसल लोगों का अंदेशा विपक्ष के बहकावे की वजह से नहीं, बीजेपी नेताओं और मुख्यमंत्रियों के दावे की वजह से है.
असली खेल यही है. कागज़ पर कुछ और है और दिल में कुछ और. एनआरसी का मामला हो, यूपी में जनांदोलनों को कुचलने का मामला हो, कश्मीर में 370 हटाने के बाद हालात सामान्य होने के दावे का मामला हो- सरकारें तथ्यों की शर्मनाक उपेक्षा करती हुई लगातार झूठ पर झूठ बोल रही हैं. भारत में करीब दो दशकों के इंटरनेट विस्तार के दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी राज्य में कानून-व्यवस्था के नाम पर महीनों तक इंटरनेट बंद रखा जाए और लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए नेताओं को जेल में डाला जाए. असल में दुनिया भर में दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के जो प्रमुख लक्षण हैं, उनमें अनैतिक को नैतिक और ग़ैरक़ानूनी को क़ानूनी जामा पहनाने की प्रवृत्ति भी है. इसके लिए संस्थाओं को कमज़ोर किया जाता है, अदालतों से लेकर तरह-तरह के आयोगों से अपने पक्ष में फ़ैसले करवाए जाते हैं और अंततः अपनी अलोकतांत्रिक करतूतों को लोकतांत्रिक शक्ल दी जाती है. पिछले दिनों आई मशहूर किताब 'हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई' की भूमिका में उसके लेखक द्वय स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल ज़िब्लैट ने लिखा है कि अब लोकतंत्र को फौजी बूटों और सड़कों पर उतारे गए टैंकों के जरिए नहीं मारा जाता है, उन्हें भीतर से धीरे-धीरे क़त्ल किया जाता है. बल्कि कई बार यह काम बहुत लोकतांत्रिक लगने वाले कदमों और भारी बहुमत के साथ किया जाता है. कृपया यह न समझें कि इन दोनों लेखकों ने भारत के संदर्भ में यह किताब लिखी है. किताब का संदर्भ अमेरिका है और ट्रंप का चुनाव है. बल्कि लेखकों ने इस बात पर भी अफ़सोस जताया है कि उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि अमेरिका के संदर्भ में उन्हें इस सवाल पर विचार करना होगा.
भारत में भी हमें नहीं लगता कि लोकतंत्र खतरे में है. आख़िर चुनाव हो रहे हैं, राज्यों में सरकारें बदली जा रही हैं, वोट देने के अधिकार पर राजनीतिक दलों से लेकर चुनाव आयोग तक बड़े-बड़े विज्ञापन दे रहे हैं.
लेकिन चुनाव लोकतंत्र की देह बनाते हैं, उसकी आत्मा तरह-तरह के मूल्यों, जीवन पद्धतियों और असहमतियों को आत्मसात करने की सहज चेतना से बनती है. इस चेतना के निर्माण और संरक्षण में तरह-तरह की संस्थाओं का योगदान होता है. लेकिन हम पा रहे हैं कि सारी संस्थाएं जैसे अनिश्चय में छोड़ दी गई हैं. सरकार के बनाए नीति आयोग के उपाध्यक्ष बीच में काम छोड़ कर चल दिए. प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने समय से पहले इस्तीफ़े देने में भलाई समझी. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर तक ने कार्यकाल पूरा होने का इंतज़ार नहीं किया. भारतीय सांख्यिकी संगठन के भीतर से यह शिकायत बार-बार आ रही है कि आंकड़े रोके जा रहे हैं या बदले जा रहे हैं. कई बार यह संदेह होता है कि अदालतें और दूसरी संस्थाएं भी सरकार के गहरे दबाव में हैं.
जिस अमेरिका में 'हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई' के लेखक लोकतंत्र पर ख़तरा बता रहे हैं, वहां असहमति और विरोध का साहस कितना बचा हुआ है, इसकी एक मिसाल हमने बिल्कुल हाल में देखी. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने जब दिल्ली में हो रही प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सीएनएन के रिपोर्टर जिम अकोस्टा के एक सवाल के जवाब में सीएनएन के झूठ बोलने की बात कही तो जिम अकोस्टा ने पलट कर जवाब दिया- 'राष्ट्रपति महोदय, सच बोलने का हमारा रिकॉर्ड आपके रिकॉर्ड से बेहतर है.'
क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री से कोई रिपोर्टर यह कहने का साहस कर सकता है? उसकी तत्काल 'मॉब लिंचिंग' हो जाएगी. लेकिन यह सवाल तो बाद की बात है- प्रधानमंत्री मोदी ने अभी तक ऐसी खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस का अवसर भारतीय लोकतंत्र को नहीं दिया है. उसे वह अधिकतर अपने 'मन की बात' से ही संचालित करना चाहते हैं.
दिल्ली के हालात पर लौटें. अब हालात सुधर रहे हैं. यह काम दो दिन पहले भी हो सकता था. लेकिन यह संदेह होता है कि दरअसल सबक ही यही दिया जाना था कि हम चाहें तो तुम्हें मार सकते हैं, हम चाहें तो तुम्हें बचा सकते हैं. दुर्भाग्य से यह सबक सीधे भारतीय लोकतंत्र के लिए है. लेकिन क्या हमारे नागरिक यह सोचने लायक बचे हैं कि वे अपने लोकतंत्र को ऐसी बेबसी का शिकार होने देना चाहते हैं या नहीं? दिल्ली का इशारा साफ़ है- ख़तरा सिर्फ़ कुछ लोगों की नागरिकता पर नहीं, पूरे लोकतंत्र पर है जिसकी चपेट में देर-सबेर वे भी आएंगे जो फिलहाल तटस्थ होकर एक समुदाय का उत्पीड़न देख रहे हैं. दुनिया के कई देश इस त्रासद अनुभव से गुज़र चुके हैं. क्या हम भी ऐसी ही किसी प्रक्रिया का इंतज़ार कर रहे हैं?
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)
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