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This Article is From Jan 02, 2023

बंद नोट और राजनीतिक नीयत का खोट

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 03, 2023 00:03 am IST
    • Published On जनवरी 02, 2023 23:59 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 03, 2023 00:03 am IST

सुप्रीम कोर्ट ने 2016 की नोटबंदी को वैध क़रार दिया है. निस्संदेह उसके सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था. कल्पना करें कि अगर उसने इसे अवैध भी घोषित कर दिया होता तो क्या होता? 2016 में लोगों ने जो नोट बदले और जिन्हें बदला गया, क्या वे वापस आ जाते?क्‍या 500 और 2000 के नए नोट अवैध हो जाते? जाहिर है, यह कुछ नहीं होना था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का कम से कम प्रभाव के स्तर पर कोई मतलब नहीं था. 

इस मामले की एक सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही भी थी और मामला बंद देने का सुझाव दिया था. लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वकील पी चिदबंरम की इस दलील ने उसे अपना विचार बदलने को मजबूर किया कि इससे नोटबंदी जैसे फ़ैसलों की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट होगी. ये फ़ैसला बीते दिनों को भले पलट न सके, लेकिन आने वाले दिनों के लिए नज़ीर बन सकता है.  

लेकिन अब जो फ़ैसला आया है, उसके लिए निश्चय ही पी चिदंबरम ने तब ये दलील नहीं दी होगी. वे शायद मान कर चल रहे हों कि नोटबंदी के फ़ैसले में जो हड़बड़ी और गोपनीयता बरती गई, उसकी वजह से सारी प्रक्रियाओं का उल्लंघन हुआ है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ध्यान देगा. इस दौरान यह सवाल बार-बार पूछा गया कि भारत में मुद्रा-व्यवस्था देखने वाले रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की इस फैसले में क्या भूमिका रही और क्या नोटबंदी से पहले उसकी राय ली गई? इस मामले में आरटीआई से मिली सूचनाएं आंख खोलने वाली हैं. 11 मार्च 2019 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रधानमंत्री द्वारा नोटबंदी के एलान से सिर्फ ढाई घंटे पहले आरबीआई के गवर्नर रहे ऊर्जित पटेल के नेतृत्व में आरबीआई बोर्ड की बैठक हुई. इस बैठक के मिनट पर 15 दिसंबर, 2016 को दस्तख़त हुए. यानी आरबीआई ने आधिकारिक तौर पर केंद्र सरकार को नोटबंदी की मंज़ूरी नहीं दी थी. इसके अलावा आरबीआई ने इस बात में शक जताया था कि इन नोटों को बंद करने से काले धन की समस्या पर काबू पाया जा सकेगा. आरबीआई ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि काला धन नगदी में नहीं रखा जाता, वह सोने या ज़मीन-जायदाद में निवेश के काम आता है. बाद में आरबीआई के आंकड़ों ने ही बताया कि नोटबंदी के बाद नोट बदलने की प्रक्रिया में लगभग सारे नोट वापस बैंकिंग सिस्टम में लौट आए. सरकार का अनुमान था कि करीब 3 लाख करोड़ नोट सिस्टम से बाहर रह जाएंगे, लेकिन बस दस हज़ार करोड़ के आसपास नोट ही नहीं लौटे.  

तो पुराने नोट बंद करने की जो सबसे बड़ी वजह बताई गई, वह अपने प्रारंभिक दिनों में ही नाकाम साबित हुई. आतंकवाद पर क़ाबू पाने का जो दावा किया गया, उसकी हक़ीक़त हम अब भी देख रहे हैं. कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने और उसका राज्य का दर्जा छीन लिए जाने के बावजूद वहां से आतंकी घटनाओं में कमी आती नज़र नहीं आ रही. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में नोटबंदी के मक़सद को भी रेखांकित किया. 

बहरहाल, न सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर सवाल खड़े करने का औचित्य है और न उसकी नीयत पर. लेकिन यह समझने की ज़रूरत है कि अदालतें अपनी स्वायत्तता के बावजूद अंततः कार्यपालिका पर ही निर्भर करती हैं. उनके सामने जो सबूत पेश किए जाते हैं, जो मामले रखे जाते हैं, उन्हीं को आधार बना कर वे फ़ैसले करती हैं. नोटबंदी के मामले में भी उन्होंने उसके तकनीकी पहलू की चर्चा की है. यानी औपचारिक तौर पर मान लिया है कि सरकार ने यह फ़ैसला करते हुए रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से ठीक से मशविरा किया था और उसी की सलाह पर नोटबंदी लागू की है.  

शुक्र है कि पांच जजों के संविधान पीठ में एक जज ने अलग फ़ैसला लिखा है जिससे यह पता चलता है कि एक ही उपलब्ध सामग्री के आधार पर सर्वोच्च जजों की राय भी अलग हो सकती है. जस्टिस बीवी नागरत्ना ने साफ़ तौर पर लिखा कि ये नोटबंदी अवैध थी, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को दिमाग न लगाने को कहा गया और इतने अहम मसले पर संसद में जाना ज़रूरी नहीं माना गया. जस्टिस नागरत्ना आने वाले वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की चीफ़ जस्टिस भी बन सकती हैं.  

मगर इस पूरे मामले में कुछ सबक हमारे लिए छुपे हैं. लोकतांत्रिक लड़ाइयां हमेशा अदालतों के भरोसे नहीं लड़ी जा सकतीं. कई बार इसमें मुंह की खानी पड़ सकती है. क्योंकि अदालती कार्यवाही से काफ़ी पहले पुलिस-प्रशासन की जांच-पड़ताल से लेकर उनके दावे और साक्ष्य तक मुक़दमों का रुख़ बदलते रहते हैं. ध्यान से देखें तो हाल के वर्षों में ऐसे कम मौक़े आए हैं जब अदालतों से राजनीतिक या नागरिक संगठनों की अपेक्षाएं पूरी हुई हों. भीमा कोरेगांव मामले में कई लोग सिर्फ़ आरोपों के चलते बरसों से जेलों में बंद हैं जिनमें जाने-माने बुद्धिजीवी और लेखक रहे हैं. यूएपीए के इस्तेमाल और मनी लॉन्ड्रिंग क़ानून के मामले में हमने सरकारी तंत्र को मिली बेपनाह शक्तियों को अदालत का समर्थन देखा है. जबकि इसके समानांतर बड़े और ताक़तवर लोगों को बहुत आसानी से क़ानून के शिकंजे से निकलता पाया है. ताज़ा मामला हरियाणा के खेल मंत्री रहे संदीप सिंह का है जिन पर यौन उत्पीड़न का आरोप है लेकिन जो बस अपना एक ओहदा छोड़ कर निश्चिंत हैं. क़ानून कहता है कि ऐसे आरोपों में पहला काम आरोपी की गिरफ़्तारी है. लेकिन संदीप सिंह या ऐसे दूसरे ताक़तवर लोगों के मामले में यह क़ानून जैसे अपने कदम खींच लेता है. यही नहीं, सरकारें कई बार अदालतों से अपना मक़सद पूरा कराती हैं और अदालतें जब ये मक़सद पूरा करती नज़र नहीं आतीं, वे अदालतों को उनकी सीमाएं बताने लगती हैं. इसका एक उदाहरण अयोध्या और शबरीमला के मामलों में अदालती हस्तक्षेप है. जो लोग अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सर झुका कर स्वीकार करने की बात करते हैं, वही लोग शबरीमला के मामले में अपना रुख़ बदलने में हिचकते नहीं.  

बहरहाल, नोटबंदी पर लौटें. लोगों को नवंबर-दिसंबर 2016 के वे महीने याद हैं जब पूरा हिंदुस्तान अपना कामकाज छोड़ कर बैंकों और एटीएम शाखाओं के आगे लाइन लगाए खड़ा था ताकि उसे कुछ कैश मिल सके. इस फ़ैसले की सबसे ज़्यादा मार उन गरीबों ने झेली जिनके पास डेबिट और क्रेडिट कार्ड नहीं होते थे और जो सिर्फ़ रोज़ाना मिलने वाले रुपयों से अपना घर चलाते थे. महीनों तक उनका काम छिना रहा, उनके सामने अनिश्चितता के बादल मंडराते रहे. उच्च मध्यवर्गीय लोगों को भी दिक्कत हुई, लेकिन कम हुई, क्योंकि उनके पास वे सारे कार्ड थे जो रुपयों की जगह काम आते थे. इसके बाद ही रातों-रात सरकार ने नोटबंदी का एजेंडा बदल दिया और ऑनलाइन कारोबार को नोटबंदी का एक लक्ष्य बताने लगी.  

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को वैसे भी इस राजनीतिक-आर्थिक अराजकता की गली में नहीं जाना था. उसका काम बस यह देखना था कि जिस प्रक्रिया के तहत यह फैसला हुआ, वह संवैधानिक है या नहीं. अदालत ने अपने-आप को बस इस एक काम तक सीमित रखा. इसे संवैधानिक मान कर 4 जजों ने सरकार को बड़ी राहत दी है. संभव है, आने वाले दिनों में फिर लोकतांत्रिक और समानांतर संस्थाओं की अनदेखी कर कोई सरकार ऐसे मनमाने फ़ैसले करने का दुस्साहस करे जिसकी मार गरीबों पर पड़े. संकट इतना भर नहीं है, इससे भी बड़ा है. संसद और अदालत- दोनों को ग़ैऱज़रूरी और अप्रासंगिक साबित करने में लगी सरकारें दरअसल देर-सबेर लोकतंत्र को भी अपने विकास की राह का रोड़ा साबित करने लगती हैं. हमारे यहां यह ख़तरा बढ़ रहा है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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