ग्रहण अब तक बना हुआ है

हम पा रहे हैं कि सांप्रदायिकता का जो ज़हर अब तक ख़त्म हो जाना चाहिए था, वह न सिर्फ़ बचा हुआ है, बल्कि इस देश के ज़िस्म में कहीं गहरे फैलता जा रहा है

ग्रहण अब तक बना हुआ है

1984 की सिख विरोधी हिंसा आज़ाद भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है. लेकिन यह बीता हुआ इतिहास नहीं, शक्लें बदल कर बार-बार वापस लौटता इतिहास है. 1984 कभी मुंबई का 1993 हो जाता है और कभी गुजरात का 2002. कुछ छोटे रूप में 2020 की दिल्ली में भी यह सब दुहराया जा चुका है. हम पा रहे हैं कि सांप्रदायिकता का जो ज़हर अब तक ख़त्म हो जाना चाहिए था, वह न सिर्फ़ बचा हुआ है, बल्कि इस देश के ज़िस्म में कहीं गहरे फैलता जा रहा है.

पिछले दिनों हॉटस्टार पर शैलेंद्र झा द्वारा परिकल्पिक और रचित, और रंजन चंदेल द्वारा निर्देशित वेब-सीरीज़ ‘ग्रहण' देखते हुए यह सारे खयाल आते रहे. आठ क़िस्तों में बंटी यह सीरीज़ न सच बयान करने का दावा करती है न यथार्थ के खांचे में बनी है. यह शुद्ध व्यावसायिक सीरीज़ है जिसके कलाकारों ने बहुत स्वाभाविक काम किया है. लेकिन इस सीरीज़ की खूबी यही है कि यह अपनी व्यावसायिक शर्तों का लगातार ध्यान रखने के बावजूद एक गहरी मानवीय अपील और हूक पैदा करने में कामयाब है.

सीरीज़ की कहानी मोटे तौर पर 84 की हिंसा के इर्द-गिर्द घूमती है. उस हिंसा में दिल्ली के अलावा जिस शहर में सबसे ज़्यादा सिख मारे गए थे, वह बोकारो था. इस हिंसा की पृष्ठभूमि में एक प्रेमकथा को आधार बनाकर हिंदी के चर्चित लेखक सत्या व्यास ने 84 नाम का एक उपन्यास लिखा. ग्रहण उसी उपन्यास पर बनी वेब सीरीज़ है- हालांकि बनते-बनते वह उपन्यास से दुगुनी बड़ी हो गई है और काफ़ी आगे निकल आई है.

दरअसल जो वेब सीरीज़ है, वह 1984 की ही कहानी नहीं है, वह हमारे वर्तमान समय की कथा भी है. चौरासी की हिंसा के लिए ज़िम्मेदार बताया जाने वाला नेता संजय सिंह अब राज्य के मुख्यमंत्री के लिए ख़तरा बना हुआ है. इस ख़तरे को काटने के लिए मुख्यमंत्री ने बोकारो की सिख विरोधी हिंसा की जांच के लिए एक एसआइटी बिठाई है. उनका सारा ज़ोर इस बात पर है कि किसी तरह इस जांच में संजय सिंह के ख़िलाफ़ सबूत जुटाए जाएं.

तो यह सीरीज़ दो कालखंडों में चलती है. दूसरे कालखंड में भी कई कहानियां हैं. इत्तिफ़ाक़ से इन सब कहानियों का वास्ता सांप्रदायिक और जातिगत दरारों से है और इनके आधार पर फल-फूल रही, बल्कि इनको बढ़ावा दे रही राजनीति से है. चुनाव से पहले नेता दंगे करवाने पर तुले हैं और पक्ष-विपक्ष दोनों हिसाब लगा रहे हैं किस बात में किसका कितना फ़ायदा है. इन सारे मामलों की जांच कर रहे पुलिसवालों के पारिवारिक ज़ख़्म भी अलग-अलग ढंग से इन मामलों से जुड़े हैं. इन सबके बीच एक पत्रकार की भी हत्या होती है.

ऐसी कहानियां कहने के ख़तरे कई हैं. हमारे इस मुश्किल में सच लगातार डरावना होता गया है- और सच कहना मुश्किल. लोगों में किरदारों के भीतर वास्तविक चेहरे खोजने की प्रवृत्ति बढ़ी है और वास्तविक किरदारों के भीतर यह चिंता कि उन्हें कहीं कहानियों की मार्फ़त पहचान न लिया जाए. तो अक्सर ऐसी सीरीज़ का बनना मुश्किल होता है.

दूसरा ख़तरा यह है कि सच से कुछ दूरी बरतते हुए कुछ आदर्शवादी ढंग से सियासी दुष्चक्र की एक कहानी कहने की कोशिश में सारा मामला फिल्मी हो जाता है- ऐसा फिल्मी मामला जिससे किसी को नुक़सान नहीं होता, लेकिन कथा की जान निकल जाती है.

ग्रहण की टीम ने इन दोनों ख़तरों के बीच बहुत सावधानी से क़दम रखते हुए अपना रास्ता बनाया है. निस्संदेह यह एक दिलचस्प वेबसीरीज़ है जिसमें कई घटनाओं का ताना-बाना सुंदर ढंग से बुना गया है. हर किस्त के बाद इस बात की उत्सुक प्रतीक्षा कर सकते हैं कि इसके बाद कहानी क्या मोड़ लेगी.

दूसरी बात यह कि इस दिलचस्पी के अलावा सीरीज़ ने अपने विषय की गंभीरता से फिर भी न्याय किया है. दंगों की भयावहता, उनके पीछे की राजनीति, उनके पीछे के आर्थिक टकराव- यह सब सीरीज़ में ठीक से उभरे हैं. स्याह और सफ़ेद के बीच की वह धूसर सच्चाई भी लगातार खुलती है जिसमें हिंसा और राजनीति के बीच फंसा इंसाफ़ का सवाल जैसे न ख़त्म होने वाले दुष्चक्र का शिकार हो जाता है. सीरीज़ के अंत में राजनीति का एक वयोवृद्ध दिग्गज कहता भी है- चीज़ें ख़त्म नहीं होतीं, बदलती नहीं, बस टल जाती हैं. यह टलता हुआ यथार्थ नफ़रत और अविश्वास के इन जलते हुए दिनों में फिर हमारे सामने है.

बेशक, सीरीज़ में कुछ बातें निराश भी करती हैं. तीसरे-चौथे एपिसोड में कथा कुछ ठहरी सी लगती है जो फिर पांचवें एपिसोड में रफ़्तार पर लौट आती है. लेकिन आख़िर तक आते-आते यह रफ़्तार कुछ ज़्यादा तेज़ हो जाती है. अदालत का दृश्य सबसे ज़्यादा निराश करने वाला है जबकि इसमें संभावनाएं सबसे ज़्यादा थीं. सच तो यह है कि सीरीज़ का यह हिस्सा कुछ ज़्यादा ही फिल्मी बन गया है. काश कि निर्देशक या परिकल्पनाकार ने अदालत के तनाव को कुछ देर तक दिखाया होता और कुछ ज़्यादा वास्तविक बनाने की कोशिश की होती. यह समझ में आता है कि उन्हें आठ किस्तों में सीरीज़ ख़त्म करनी रही होगी लेकिन यहां टूटी कड़ियों को जोड़ने की जल्दबाज़ी सीरीज की प्रारंभिक गंभीरता के मुक़ाबले काफ़ी हल्की पड़ती दिखाई पड़ती है. बेशक, इसके बावजूद सीरीज़ के अपने संवेदनशील लम्हे हैं- भावुकता की अपनी गुंजाइशें हैं.

लेकिन अपने अंतिम प्रभाव में यह सीरीज़ देखने लायक है. ओटीटी प्लैटफॉर्म पर सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली वीभत्स अपराध-कथाओं के मुकाबले यह एक साफ़-सुथरी सीरीज़ है जो आपको बेचैन भी रखती है और राहत भी देती है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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