मार्कस जुकास के उपन्यास ‘द बुक थीफ़' में मौत भी एक किरदार है. वही पार्श्व में खड़े होकर जैसे पूरी कहानी कह रही है. 1940 के दशक के जर्मनी में विमानों से गिराए गए बमों से तहस-नहस और सपाट हो गई एक बस्ती में वह घूम रही है. उपन्यास का एक चरित्र रूडी स्टीनर भी इस हमले में नहीं रहा है. वह उसकी आत्मा में वह झांक कर देखती है और पाती है कि उसमें काले रंग से रंगा एक एक लड़का है जो खुद को जेसी ओवंस पुकारता है. मौत कहती है- यह लड़का मुझमें कुछ कर देता है, मुझे रुला देता है. जब हम सब कोरोना के क़हर से उबरने की राहत भरी उम्मीद कर रहे थे, तभी मौत ने बताया कि वह रूप बदल-बदल कर हमले कर सकती है. उसने सीधे दिल पर वार किया और हम सबकी दोस्त, कलाकार, अलबेली अपराजिता शर्मा को एक झटके से उठा कर ले गई. लेकिन जब उसने अपराजिता की आत्मा देखी होगी तो वह भी शायद रो पड़ी होगी- उसमें उसे कई रंगों वाली अलबेली मिली होगी और अलबेली की वे असंख्य सहेलियां जिनके आंसुओं में सोशल मीडिया डूबा हुआ होगा.
अपराजिता इस क़दर जीवन से भरी थी कि उसे ले जाते हुए मौत ने उस सन्नाटे और रुदन का अनुभव किया होगा जो अपराजिता शर्मा की अनुपस्थिति के बाद हम सबके मन और जीवन में जैसे फिलहाल घर करके बैठ गया है. अपराजिता शर्मा कलाकार थी- अलग तरह की कलाकार. उसने कहीं से कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था. लेकिन वह अपनी तरह के ऐसे स्केच बनाती थी जिन्हें सिर्फ उसके दस्तख़त की तरह पहचाना जा सकता था. उसने इमोज़ी की तर्ज पर हिंदी में हिमोजी बनाई थी. उसने और उसके पति भास्कर रोशन ने मिलकर हिंदी का एक ख़ूबसूरत सा फॉन्ट भी तैयार किया था. पिछले कुछ वर्षों से उसकी लगभग दैनंदिन रचनात्मक सक्रियता विविध रूपों में प्रगट होती थी- कभी प्रतिरोध की बहुत तीखी आवाज़ की तरह, तो कभी फिल्मी गीतों की रोमानी याद के रूप में और कभी मित्रों-सखियों के साथ चुलबुली-अलबेली क़िस्म की कलात्मक आवाजाही के तौर पर. वह अपने काम को लेकर बेहद संजीदा थी, यह उसकी रेखाएं, उसके स्केच बताते थे और उनमें लगातार आ रहा निखार इसकी अनवरत पुष्टि करता था.
वह दिल्ली के मिरांडा कॉलेज में हिंदी पढ़ाती भी थी और समकालीन हिंदी साहित्य से उसका परिचय कई दूसरे लोगों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा घनिष्ठ और विश्वसनीय था. वह एक संवेदनशील प्रयोगकर्ता भी थी, यह बात बहुत ठोस ढंग से तब सामने आई जब उसने नीलिमा चौहान की किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स' के लिए रेखांकन किए. मेरी दरअसल उससे पहली क़रीने की मुलाकात इसी किताब पर वीमेन्स प्रेस कोर में रखी गई एक बातचीत के दौरान हुई थी. उस दिन किताब के बहुत सारे पक्षों पर बहुत सारी चर्चा हुई थी, लेकिन एक छूटे हुए संदर्भ की तरफ़ अपराजिता ने ध्यान खींचा था. उसने कुछ शिकायती लहजे में कहा कि उसे उम्मीद थी कि मैं किताब के रेखांकनों पर भी कुछ कहूंगा, लेकिन उनकी ओर मैंने ध्यान नहीं दिया.
यह सच था. किताब से अमूमन हमारी मुराद शब्दों तक सीमित रहती है और उसके रेखांकनों को हम भर्ती या सज्जा की चीज़ मान लेते हैं. लेकिन अपराजिता शर्मा के लिए उस किताब के रेखांकन बस हाशिया या खाली जगह भरने का काम नहीं थे. वे किताब की टिप्पणियों के समानांतर अपना भी एक प्रभाव पैदा करते थे. वह इस बात से कुछ निराश थी कि हमारे पठन-पाठन की संस्कृति में इस कला-धर्म की उपेक्षा हमारे अभ्यास की हिस्सा हो चुकी है. उसने बाद के दिनों की बातचीत में यह भी बताया कि उस किताब के किरदार तक पहुंचने के लिए उसने काफ़ी मेहनत की थी. उसके कई प्रारूप तैयार किए थे. यानी वह किताब को सुंदर बनाने के मामूली से काम में नहीं लगी थी, वह अपनी ओर से उसमें अर्थ भरने का प्रयत्न भी कर रही थी. यह मेरे लिए किसी किताब को देखने का नया नज़रिया था जो मुझे अपराजिता से मिला. बाद में मैंने पाया कि वह भले ही कला को अपना शौक बताती हो लेकिन पूरी संजीदगी से इस काम में लगी है. नीलिमा चौहान की किताब के प्रचार के लिए उसके चित्रों की मदद से तैयार किए गए कैलेंडरों में भी यह संजीदगी दिखती थी. मैं उन ख़ुशक़िस्मत लोगों में था जिन्हें ये कैलेंडर मिले.
इन कुछ वर्षों में ही अपराजिता शर्मा के साथ आत्मीयता का एक मज़बूत धागा बहुत गहराई से जुड़ता चला गया. मैंने पाया कि वह बहुत प्रतिबद्ध क़िस्म की कलाकार है. मौजूदा राजनीतिक रुझानों के विपरीत उसने बहुत खुल कर अपनी राय बार-बार जाहिर की और अपने रेखांकनों के ज़रिए अपने हिस्से का प्रतिरोध लगातार जताया. दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक आंदोलन का मामला हो या हमारे समकालीन समय की कोई भी त्रासदी- अपराजिता अचूक ढंग से सब पर टिप्पणियां करती रही और अपनी कला को लगभग पोस्टर की तरह इस्तेमाल करने में उसने कभी हिचक नहीं दिखाई. याद कर सकते हैं कि हमारे समय के कई बड़े कलाकारों ने पोस्टरों में भी हाथ आज़माया है. हालांकि इस दुख के समय में यह टिप्पणी अपराजिता के कला-संसार के मूल्यांकन के लिए नहीं लिखी जा रही, बस यह एक कोशिश है एक ऐसे शख़्स को विदा कहने की, जो अपने समकालीनों के प्रति अत्यंत उदार ही नहीं, उनका बहुत आत्मीय भी था.
पिछले दो महीनों से फेसबुक पर अपनी अनुपस्थिति के बावजूद यह याद करना मेरे लिए मुश्किल नहीं है कि इन वर्षों में सखियों-सहेलियों की एक विराट दुनिया अपराजिता शर्मा ने खड़ी की थी. कमाल यह है कि अपनी बहुत स्पष्ट वैचारिक राय के बावजूद वह लगभग अजातशत्रु नज़र आती थी- लोग उससे प्यार करते थे- उसके काम से, उसके व्यक्तित्व की छलकती हुई ऊष्मा से, अपने समकालीनों को मान देने के उसके स्वभाव से. हालांकि लगभग हमेशा उसमें जो उत्फुल्लता दिखती थी, उसके पीछे चिंता, पीड़ा और दुख की कुछ सघन लकीरें भी थीं. बीते साल कभी पिता की मृत्यु ने उसे गहरी तकलीफ़ दी थी. दिसंबर 2020 में कभी बातचीत के दौरान उसने लिखा था, ‘जिनसे जीवन था, वही नहीं है. बस जीवन है. मैं उबरने की हर कोशिश कर रही...दुख मुझे भीतर-भीतर निगल रहा, मैं फिर ज़िद पकड़े बैठी हूं जीने-हंसने-बोलने की.‘
कुछ दिन बाद पता चला था कि वह ख़ुद अस्पताल में है. उसे कोई शारीरिक परेशानी थी जिसकी वजह से वह बीच-बीच में बहुत दर्द झेलती थी. लेकिन क्या मज़ाल कि किसी को इस दर्द का आभास तक हो जाए. हर जगह जैसे उसकी हंसमुख-चुलबुली अलबेली अपने भीतर एक अपराजिता को उसके दुखों सहित सहेजे रखती थी. उसका जाना बहुत बड़ी क्षति है- जैसा वाक्य लिखना दरअसल एक लगभग निरर्थक हो चुके क्लीशे का इस्तेमाल करना है. लेकिन उसके जाने के बाद हम सबने क्या खो दिया है, यह वही जानते हैं जिन्होंने अपराजिता और अलबेली को देखा था. जिस बातचीत का ऊपर ज़िक्र है, उसी में उसने लिखा था- ‘मैं कभी उदास नहीं रहूंगी.‘ लेकिन यह नहीं बताया था कि एक दिन अचानक सबको उदास छोड़ कर चली जाएगी. अभी उसके जाने की उम्र नहीं थी- उसे बहुत कुछ करना था- घर-परिवार के बीच, दोस्तों के बीच और उन वैचारिक संघर्षों के बीच जिनकी चुनौती लगातार गाढ़ी होती जा रही है. यहां उस वेधक दुख का ज़िक्र करने का कलेजा नहीं है जो हम सबको कई दिनों तक छीलता रहेगा.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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