क्या इन भटके हुए कश्मीरियों से भी बात नहीं की जानी चाहिए?

कायदे से सरकारों को अभिभावक की तरह होना चाहिए. अपने बिगड़े हुए बच्चों को फौरन सज़ा देने की जगह रास्ते पर लौटाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए. लेकिन अमूमन सरकारें इतनी मानवीय नहीं होतीं, उनकी व्यवस्थाएं ऐसी आदर्श नहीं होतीं.

क्या इन भटके हुए कश्मीरियों से भी बात नहीं की जानी चाहिए?

सोमवार को जिस वक़्त देश के गृह मंत्री अमित शाह घोषणा कर रहे थे कि वे पाकिस्तान से नहीं, कश्मीर के युवाओं से बात करना चाहते हैं और कह रहे थे कि वे भारत की क्रिकेट टीम में कश्मीर के नौजवानों को देखना चाहते हैं, ठीक उसी वक्त उनकी पुलिस श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज के छात्र-छात्राओं के ख़िलाफ़ आतंकवाद के केस में मुक़दमा कर रही थी. ये एमबीबीएस के छात्र हैं. इनको एक वीडियो के आधार पर पकड़ा गया है जिसमें वे टी-20 वर्ल्ड कप के मुक़ाबले में भारत पर पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाते नज़र आ रहे हैं.

इसमें संदेह नहीं कि यह उदास करने वाली बात है. अपने ही देश के नागरिक अपने देश की हार पर ख़ुश हों, इससे देश को कुछ चिंतित होना चाहिए. क्या इन छात्रों से गृह मंत्री संवाद करेंगे? क्या उनसे पूछेंगे कि कश्मीर में रहते हुए, भारत की संवैधानिक व्यवस्था में सांस लेते हुए, वे पाकिस्तान की जीत पर ख़ुश क्यों हैं? या सीधे-सीधे पुलिस की पीठ थपथपाएंगे जिन्होंने इन संभावित आतंकियों को आतंकवादी बनने से पहले आतंकवाद के मुक़दमे में घेर लिया है? कुछ देर के लिए कल्पना करें. वाकई गृह मंत्री यह काम करते हैं. वाकई वे इन छात्रों के भीतर यह एहसास पैदा करने में कामयाब होते हैं कि दिल्ली उनकी बात सुनती है या देश उनकी परवाह करता है तो क्या होगा? हो सकता है कि अगली बार यही छात्र भारत की जीत पर ताली बजाएं. लेकिन इनको गिरफ़्तार करके, इन पर मुकदमा करके यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि इनको दिल से भारतीय बनाया जा सकेगा. अधिक से अधिक भारतीय जेलों में सड़ना या फिर वहां से निकल कर एक ठेस और कसक के साथ बाक़ी उम्र एक अजनबी की तरह काटना ही इनकी नियति होगी.

कायदे से सरकारों को अभिभावक की तरह होना चाहिए. अपने बिगड़े हुए बच्चों को फौरन सज़ा देने की जगह रास्ते पर लौटाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए. लेकिन अमूमन सरकारें इतनी मानवीय नहीं होतीं, उनकी व्यवस्थाएं ऐसी आदर्श नहीं होतीं. व्यवस्थाओं के भीतर हर जुर्म तय होता है और उसकी सज़ा भी नियत होती है.

कश्मीर की विडंबना दूसरी है. वहां बरसों से जारी आतंकवाद और अलगाववाद ने ऐसा माहौल नहीं रहने दिया है कि ऐसी आदर्श व्यवस्था या ऐसे मानवीय सलूक के बारे में सोचा जा सके. वहां बस फौलादी हाथों से शासन होता है और पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाने वालों को आतंकवाद का क़ानून झेलना पड़ता है. इस विडंबना को यह तथ्य कुछ और गाढ़ा करता है कि यह जश्न सिर्फ़ दो छात्र नहीं मना रहे हैं, कश्मीर का एक ठीक-ठाक हिस्सा मनाता दिख रहा है. जाहिर है, ये असंतोष और अलगाव की वे आवाज़ें हैं जिनके बारे में भारतीय राष्ट्र-राज्य को चिंतित होना चाहिए.

लेकिन इसका हल क्या है? क्या इन तमाम लोगों को उठा कर जेल में डाल देना चाहिए? पिछले दो वर्षों में बहुत सारे कश्मीरी लोग जेल में रहे हैं. अनुच्छेद 370 की समाप्ति के दो साल बीतने के बाद पहली बार जम्मू-कश्मीर के दौरे का समय निकालने वाले देश के ताकतवर गृह मंत्री को भी शायद एहसास हो रहा हो कि जेल में डालना कश्मीर का कोई स्थायी हल नहीं है. धीरे-धीरे लोग छोड़े जा रहे हैं और दिल्ली बातचीत की मुद्रा अपनाती नज़र आ रही है.

लेकिन जम्मू-कश्मीर के हालात क्या हैं? क्या दिल्ली इन हालात को ठीक से समझने और उन पर सहानुभूति से विचार करने को वाकई तैयार हैं? गृह मंत्री का दौरा ऐसे समय हुआ है जब कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं में अचानक तेज़ी आई है. गैरकश्मीरियों को मारा जा रहा है और वे अब राज्य छोड़कर भाग रहे हैं. इसके अलावा पुंछ के जंगलों में पंद्रह दिन से पाक-प्रेरित घुसपैठियों की तलाशी का अभियान चल रहा है जिसमें हमारे कई अफ़सर और जवान शहीद हो चुके हैं. लेकिन गृह मंत्री इस सच को स्वीकार करने की जगह आंकड़े देकर बता रहे हैं कि कश्मीर में हालात सुधर रहे हैं. निस्संदेह आंकड़ों से बहुत सारे सच सामने आते हैं, लेकिन वे सच इस पर निर्भर करते हैं कि हम कैसे आंकड़े चुनते हैं और किस तरह का सच चाहते हैं. गृह मंत्री के सामने भी वे आंकड़े रखे जा रहे हैं जो कश्मीर के बारे में एक सुविधाजनक राय बनाने में मदद करते हैं.

बहरहाल, हाल के आतंकी हमलों ने अपना एक मक़सद हासिल कर लिया है. गैरकश्मीरी लोगों पर उनके लगातार हमलों के बाद वहां अरसे से जमी गैरकश्मीरी आबादी वहां भाग से रही है. जाहिर है, भारत में कश्मीर विमर्श जिस तरह चलता है, उस तरह इस बार भी शुरू हो गया है. कश्मीर का पलायन यूपी और बिहार का चुनावी मुद्दा है, कश्मीर की वह हक़ीक़त नहीं जिसे बदला जाना है. अब यह बताया जा रहा है कि सरकार ने कश्मीर में पंडितों की संपत्ति की जो वापसी कराई है, ये हमले उसी का नतीजा हैं.

वैसे यह सवाल बेजा नहीं है कि वहां भारत सरकार क्या कर रही है? अब तो पूरा का पूरा कश्मीर उसका है और वहां उसकी फौज, उसकी खुफिया एजेंसियां और उसका पुलिस तंत्र दो साल से आतंकियों की धरपकड़ में लगे हुए हैं. मगर यह धरपकड़ किस तरह से हो रही है? इसका एक उदाहरण जम्मू-कश्मीर पुलिस का डीएसपी देविंदर सिंह है. जम्मू कश्मीर पुलिस का यह जांबाज़ अफ़सर कुछ अरसा पहले खौफनाक आतंकियों को शरण देता और उन्हें राज्य से सुरक्षित निकालता पकड़ा गया था. अब जाकर उसे नौकरी से हटाया गया है. लेकिन 'सुरक्षा कारणों' का हवाला देते हुए इस मामले की जांच न करने की सिफ़ारिश की गई. सवाल है कि आतंकियों को पनाह देने वाले अफ़सर की जांच से सुरक्षा व्यवस्था को क्या ख़तरा हो सकता है? ख़तरा तो यह है कि ऐसी जांच न होने से वह तंत्र ही महफू़ज़ बना रहे जो आतंकियों के मददगार एक अफ़सर के बचाव में लगा हुआ है. खतरा सुरक्षा-व्यवस्था को है या सुरक्षा-व्यवस्था के नाम पर आतंकवाद को अपने कारोबार में बदलने वाले लोगों को है? 

ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब काबुल में सत्ता परिवर्तन के बाद कश्मीर को लेकर अंदेशे जताए गए. यह बताया गया कि तालिबान कश्मीर तक पहुंच सकते हैं. संभव है, ये डर वाजिब हों‌‌. आख़िर हम अपने घरों में बैठे इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं कि भारतीय सुरक्षा तंत्र को किस तरह की और कैसी कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

लेकिन असली सवाल दूसरा है. हमारा वह राजनीतिक तंत्र क्या कर रहा है जिसने दो साल पहले जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाकर अपनी पीठ थपथपाई थी कि उसने राज्य का अलगाव ख़त्म कर दिया है? तब अचानक बिहार-यूपी में जैसे ख़ुशी की लहर फूट पड़ी कि अगला छठ वे डल झील के किनारे ही मनाएंगे. लगा कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के दिन लौट गए हैं.

लेकिन छठ आने वाला है और अमित शाह की मौजूदगी के दौरान डल झील पर हुए शिकारा उत्सव के बावजूद सबको पता है कि न वहां ज़मीन ऐसी है कि खरीदी जा सके और न पानी ऐसा है कि उसमें अभी उतरा जा सके. 

संकट यह है कि केंद्र सरकार संवाद की बात तो करती है, लेकिन वह नहीं सुनना चाहती जो उसको स्वीकार्य नहीं है. कश्मीर का भारत से अलगाव हममें से किसी को स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. भारतीय एकता का जो सबसे सुंदर मुहावरा है, वह कश्मीर से कन्याकुमारी का है. बताया जाता है कि यह मुहावरा भी एक कश्मीरी का दिया हुआ है जिसका नाम शेख अब्दुल्ला था. लेकिन कश्मीर को जोड़े रखने का रास्ता यह नहीं है कि वहां बड़ी से बड़ी जेलें बनाई जाएं और जो भी पाकिस्तान के पक्ष में दिखे, उसे जेल में डाल दिया जाए. अटल बिहारी वाजपेयी के हवाले से बीजेपी जिस कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत का नारा देती रही है, उसका मर्म भी उसे समझना होगा. अमित शाह के तीन दिन के दौरे में शब्दाडंबर ख़ूब दिखा, बुलेट प्रूफ़ हटा कर लोगों से मिलने-जुलने का साहस भी नज़र आया, लेकिन वह संवेदनशीलता नहीं दिखी जो बुलेट प्रूफ को- गोलियों को- बेमानी बनाने की दिशा में काम करे. शाह वहां शक्ति की वही भाषा बोलते दिखे जिसे कश्मीर की जनता पिछले कई साल से भुगत रही है. 

कश्मीर भारत का है और भारत का बना रहना चाहिए- इस पर दो राय नहीं हो सकती. लेकिन कश्मीर को भारत से जोड़ने के लिए वे कई अदृश्य दीवारें हमें गिरानी होंगी जो हमारी सांप्रदायिक और एकध्रुवीय राजनीति ने कश्मीर और शेष भारत के बीच ही नहीं, भारत के भीतर भी खड़ी कर दी हैं. कश्मीर को नफ़रत से नहीं, मोहब्बत से ही जीता जा सकता है.

काश कि जिन भटके हुए लड़कों ने पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाया, उन्हें आतंकवादी साबित करने की जगह सरकार ने उनको समझाने की कोशिश की होती. लेकिन इस कोशिश से पहले सरकार को खुद को समझाना होगा- कि जिस मज़बूत लोकतांत्रिक भारत की वह बात करती है, वह बड़े-बड़े राजनीतिक शब्दाडंबरों से नहीं, छोटी-छोटी मानवीय कोशिशों से ही बनेगा और बचेगा. राजनीति टी-20 का खेल नहीं होती, जहां हर गेंद पर बल्ला भांजा जाए, वह टेस्ट मैच जैसी होती है जिसमें बाहर जाती गेंदों को छोड़ने का सब्र भी ज़रूरी होता है. कश्मीर में ऐसा सब्र भी चाहिए और वह सटीक नज़र भी जो लोगों को सुरक्षित भी रखे और उन्हें भरोसा भी दिलाए कि यह देश उनके साथ है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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