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This Article is From May 03, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : उत्तराखंड की आग इतनी भयानक क्यों हुई?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 03, 2016 21:25 pm IST
    • Published On मई 03, 2016 21:25 pm IST
    • Last Updated On मई 03, 2016 21:25 pm IST
प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आ चुकी होती हैं, दिक्कत ये है कि जब तक वे दोबारा लौट कर नहीं आतीं, हमें ख़्याल भी नहीं होता कि इस बीच कुछ किया जाना है। चेन्नई बाढ़ के दौरान आपने देखा होगा, तमाम तकनीकी क्षमताओं से लैस लोग किस तरह असहाय घूम रहे थे। हम इस कदर अपने समाज से कट गए हैं कि कई बार इन आपदाओं को व्यक्त करने वाले शब्दों को भी भूल जाते हैं। स्कूलों में बताया गया था कि जंगलों में जब आग फैलने लगे तो उसे दावानल कहते हैं। हम आग-आग कर रहे हैं। दावानल भी भूल गए। इसे वनाग्नि भी कहते हैं।

उत्तराखंड के जंगलों की धधकती तस्वीरों को देखते ही कई लोगों ने लेख लिखा कि ये संकट 'मैन मेड' है। 'मैन मेड' का मतलब होता है कि प्रकृति ने नहीं, इंसान ने इसे बुलाया है। लेकिन इस 'मैन मेड' का कोई चेहरा नहीं होता। लेकिन यहां 'मैन मेड' के दो चेहरे हैं। एक चेहरा सरकार और उसके बनाए कानून का भी है। 'मैन मेड' कहने से पता नहीं चलता कि इन कारणों में सरकार और उसकी व्यवस्थाओं की क्या भूमिका है। कई बार लगता है कि वहां के स्थानीय लोगों की भूमिका होती है। कई बार होती भी है, जब अतिक्रमण वगैरह के ज़रिये पहाड़ों की ज़मीन को कंक्रीट के जंगल में बदल दिया जाता है। एक तीसरे प्रकार के लोग होते हैं जिनका चेहरा इस 'मैन मेड' की शब्दावली से नहीं झलकता है। वो हैं आम लोग। जिनका जंगलों से अपना एक नाता रहता है। जो जंगलों से जीते हैं और जीने के लिए जंगलों को बचाते हैं। 'मैन मेड क्राइसिस' जैसे संबोधनों से पता नहीं चलता कि ये आम लोग खुद जंगलों से दूर हो गए या सरकार के बनाए कानूनों ने दूर कर दिया।

जंगलों के बारे में जो लोग अध्ययन करते हैं या जो जंगलों से डिस्प्ले पिक्चर यानी डीपी से ज्यादा प्यार करते हैं वो सच्चिदानंद भारती को जानते ही होंगे। गांधीवादी और चिपको आंदोलन से जुड़े रहे सच्चिदानंद भारती 1974 से उत्तराखंड में जंगलों को बचाने और पानी के संरक्षण के पुराने तौर-तरीकों को ज़िंदा करने के काम में लगे हैं। आप ऐसे लोगों की तस्वीरें टीवी पर कम ही देखते होंगे और भारती जी टीवी पर आना भी नहीं चाहते। उन्हें लगता है कि काम वही होता है जो चुपचाप किया जाए। सच्चिदानंद भारती को इंदिरागांधी राष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार मिल चुका है। मैंने इनहीं सच्चिदानंदजी को फोन किया कि इस संकट के बहाने मैं अपने दर्शकों को क्या नया बता सकता हूं, जिससे वो संकट को समझें भी और जंगलों से उनका एक रिश्ता बने। वे जिस भी प्रकार के राजनीतिक दलों को वोट देते हों उनसे हिन्दू-मुस्लिम टॉपिक के अलावा भी अन्य विषयों पर बात कर सकें।



पहले आप इस तस्वीर को देखिये। आपको पांच गड्ढे दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लग रहा होगा कि इनमें बरसात का पानी भर गया है। आम तौर पर इन्हें चाल खाल कहते हैं। छोटे छोटे गड्ढों में पानी भरा हो तो उसे जल तलैया कहते हैं। काफी हरियाली के बीच स्वीमिंग पुल की तरह जो तालाब दिखता है, उसे खाल कहते हैं। खाल आकार में बड़ी होती है। चाल नहर की शक्ल में दिखते हैं। समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊंचाई पर बनी हुई हैं ये सभी चाल खालें। आम ज़ुबान में आप इन्हें छोटे तालाब कह सकते हैं। सच्चिदानंद भारती जी ने बताया कि पहले गांव-गांव में इसी तरह ऊंचाई पर चाल खाल बनती थी। इनमें बरसात का पानी जमा होता था। बरसात के बाद वहां से पानी नीचे की तरफ रिसता है और जंगलों में नमी बनने लगती है। जहां जैसी ज़मीन होती है वैसी चाल खाल बनती है। ये कच्चे गड्ढे होते हैं जिनसे पानी धीरे धीरे रिसता रहता है। इनके रिसने के रास्ते में एक दो मीटर तक हरी घास उग आती है। नतीजा यह होता है कि जंगलों में आग भी लगती है तो हरी घास के कारण फैल नहीं पाती है। सच्चिदानंद भारती ने अपनी एक ज़िंदगी में ऐसी 2000 चाल खालें बनवा दी हैं। उनका कहना है कि इन चाल खालों की वजह से उनके इलाके में आग नहीं लगी है क्योंकि वहां नमी है। पानी है। सहस्र ताल एक जगह भी है यानी हज़ार तालों की जगल। गंगोत्री और केदारनाथ के बीच में है। उत्तराखंड के सुंदरतम झीलों में से एक माना जाता है।

भारती जी ने बताया कि अगर ये चाल खालें बनी होती तो आज हेलिकाप्टर से आग बुझाने की मूर्खता नहीं करनी पड़ती। इसलिए तो हम हेलिकाप्टर उड़ा रहे हैं क्योंकि हमने चाल खालों को बनाना बंद कर दिया। चेन्नई इसीलिए तो डूब गया क्योंकि हमने तालाबों को भर कर वहां अपार्टमेंट बना दिये। कहां तो हमें शर्म आनी चाहिए अपनी पुरानी हरकतों पर, लेकिन हमारा ध्यान हेलिकाप्टर की वीर रस वाली तस्वीरों पर हैं। इससे आने वाली आवाज़ हमारे भीतर रोमांच पैदा करती है कि हम अपने समय में प्रकृति की हर शरारत पर काबू पा सकते हैं। चेन्नई में भी यही हेलिकाप्टर उड़ रहा था। इस हेलिकाप्टर के उड़ने का यही मतलब है कि हमने अपनी धरती जंगल का इतना नुकसान कर दिया है कि राम भरोसे से पहले अब सेना का ही भरोसा है और सेना के जवान पूरी मुस्तैदी से ये काम करते भी हैं। जान की बाज़ी लगा देते हैं। आप देखिये कि उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग को बुझाने के लिए हेलिकाप्टर कहां से पानी भर कर उड़ रहे हैं। उस जगह का नाम है भीमताल। यहीं से पानी भरते हैं और आग बुझाते हैं। अगर पर्याप्त संख्या में चाल और खाल बनी होती तो शायद ये नौबत नहीं आती।

चाल खालों का ज़िक्र आपको हमारी सरकारों की योजनाओं में या तो नहीं मिलेगा या मिलेगा भी तो नाम के लिए। अब लोगों को भी चाल खाल के बारे में पता नहीं है और वन अधिकारियों को भी नहीं। बिहार में कोसी में बाढ़ आई थी। याद कीजिए कितने लोग डूब कर मर गए इसलिए कि वहां के लोग तैरना भूल गए थे। जबकि कोसी के हर किस्से में नाव और तैरने वालों का ज़िक्र मिलता है। एक और गांधीवादी अनुपम मिश्र ने लिखा था कि डूब रहा है तैरने वाला समाज। चाल खाल की तस्वीर बता रही है कि जल रहे हैं जंगल क्योंकि भूल गया है उत्तराखंड आग बुझाने की अपनी ही तरकीब। वन पंचायतें जब सक्रिय होती थी तब बारिश के दिनों में ही चाल खालें बननी शुरू हो जाती थीं। उत्तराखंड में फैली आग को समझने के लिए आपको वन पंचायतों के बारे में समझना ही पड़ेगा।

ग्राम पंचायतों के बारे में तो आपने सुना ही है। वन पंचायतों के बारे में भी सुना होगा मगर भूल गए होंगे। सरकार भी भूल गई है और वन अधिकारी भी। 1931 में ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं पंचायत वन नियम बनाए। पहाड़ों के लोगों को वनों के प्रबंधन का जिम्मा दिया गया। कहा जाता है कि उत्तराखंड में 12,600 वन पचांयते बनी हैं और इन्हें एक कानून के तहत अधिकार भी दिया गया है। असलियत यह है कि इन वन पंचायतों का कोई अता पता नहीं है। अगर ये सक्रिय होती तो आज आग बुझाने के लिए हेलिकाप्टर से पानी की बरसात नहीं करनी पड़ती। सेना बुलानी नहीं पड़ती। पहाड़ों में तीन तरह की ज़मीन होती है। एक ज़मीन होती है सरकार की। इन्हें क्वास वन फोरेस्ट कहते हैं यानी जंगलात के जंगल। दूसरी ज़मीन होती जिसे सिविल सोयम भूमि कहते हैं। इस पर गांव का नियंत्रण होता है लेकिन सरकार भी शामिल होती है। जंगल या चारे की वनस्पति लगाने में सरकार भी मदद करती है। तीसरी भूमि होती है जो गांव की अपनी भूमि होती है। उस ज़मीन पर लोग जंगल लगाते हैं। क्लास वन यानी सरकारी ज़मीन छोड़ कर बाकी ज़मीन पर वन पंचायतों का गठन होता है। इनका कोई बजट नहीं होता मगर गांव के हर परिवार से एक व्यक्ति वन पंचायत का सदस्य होता है। वन पंचायत में पचास फीसदी पुरुष और पचास फीसदी महिलाओं का होना अनिवार्य है।

अगर सरकार वनों के लिए अपनी योजनाओं को इन वन पंचायतों के ज़रिये लागू कराती, सक्रिय रखती तो वन अधिकारी, स्थानीय विभागों और वन पंचायत के ज़रिये आम लोगों के बीच एक रिश्ता जारी रहता। वन पंचायतें दिसंबर-जनवरी के महीने से आग बुझाने की तैयारी कर लेती थीं जो अब नहीं होती है। जब तक लोगों का जंगलों पर अधिकार नहीं होगा तब तक वे जंगल को अपना क्यों समझेंगे। कई बार कानून से उन्हें वंचित किया गया है और कई बार कानून के नाम पर फंसा दिये जाने के कारण लोग इन जंगलों से जैविक संबंध नहीं बना पाते हैं। वहां के लोगों के लिए भी जंगल उतने ही पराये हैं जितने आप और हम पर्यटकों के लिए। आपको सोचना तो पड़ेगा कि जो समाज सदियों से जंगल के साथ जी रहा है वो इतना अनजान कैसे हो गया। ये दूरियां आज की नहीं हैं, ये भी दशकों से हमने बनाई हैं। एक गीत भी है। यूं बांजा बुरासां रक्खा जगवाली, यूं का पत्तियों मां दूध, जड़ों मा पानी। इसका मतलब यह हुआ कि बांज बुरांस की रखवाली इसलिए करो क्योंकि इनकी जड़ों में पानी है और पत्तियों में दूध है। अब हम पानी कहीं और से उड़ा कर ला रहे हैं।

अंग्रेज़ों ने अपने समय में यातायात के मार्ग के किनारे फायर लाइन बनानी शुरू की। जिन्हें हिन्दी में आग सुरक्षा पट्टी कहते हैं। यह एक तरह का गड्ढा ही होता था जहां पत्तियों को जमा कर वन विभाग नवंबर-दिसंबर में जला देता था। चीड़ की सूखी पत्तियां समाप्त हो जाती थीं। नवंबर-दिसंबर की नमी में आग फैलती भी नहीं थी। गर्मी में एक तीली से फैल गई। क्या पता वन विभाग के पास अब पर्याप्त कर्मचारी भी न हो। अब ये सब काम तो मोबाइल ऐप से नहीं होगा। आदमी से होगा और आदमी का रिश्ता समाज और सरकार से होगा तभी होगा। कई जगहों पर आग सुरक्षा पट्टियां बनती भी नहीं हैं। इससे पता चलता है कि वन विभाग जो अभी काफी काम करता हुआ दिख रहा है उस वक्त कहीं और खोया हुआ था।

लोग भी पत्तियों को चुन लाते थे। मगर अब कानून का डर सताता है। सरकार जितना भी आश्वासन दे उन्हें पता है कि कोई धारा ऐसी होगी जिसका इस्तेमाल कर लिया जाएगा। सच्चिदानंद भारती ने एक बात कही। आग चीड़ नहीं लगाता है। आग तो तिली लगाती है। चीड़ की पत्ती को पीरूल कहते हैं। एक ज़माने में उत्तराखंड के लोग इस पीरूल से कोयला बना लेते थे। अब कानून के भय के कारण कोयला नहीं बना पाते। पहले कोयला बनाने के लिए चीड़ की पत्तियों को चुन लाते थे। एक बड़े से डिब्बे में बंद कर पत्तियों को जलाया जाता था। कार्बन बाहर निकल जाता था और कोयला बचा रह जाता था। सूखे पत्तों के उपयोग को रोज़गार से नहीं जोड़ेंगे तो कितने लाख कर्मचारी लगाकर आप इन पत्तों को चुनवायेंगे। इस बुनियादी बात को समझेंगे तो समस्या की जड़ पकड़ सकते हैं। अब ये प्रथा खत्म हो गई।

उत्तराखंड के अपर मुख्य सचिव एस रामास्वामी ने कहा कि 3 मई को आग लगने की 121 घटनाएं हुई हैं। 95 को काबू कर लिया गया है। इस वक्त सक्रिय आग की संख्या 26 बताई जा रही है। सोमवार को यह संख्या 40 थी। रविवार को 70। इससे संकेत मिल रहा है कि आग के बड़े हिस्से पर नियंत्रण पा लिया गया है। इसके लिए राज्य के 11,160 कर्मचारियों को काम में लगाया गया है। राष्ट्रीय और राज्य आपदा प्रबंधन बल के लोग भी काम में जुटे हैं। एमआई-17 हेलिकाप्टर ने नैनिताल और पौड़ी में 16 उड़ानें भरी हैं। चार लोगों की मौत हो चुकी है और 16 घायल बताये जा रहे हैं। अभी तक वनाग्नि की 1591 घटनाएं दर्ज हो चुकी हैं। जानबूझ कर आग लगाने के 46 मामले दर्ज किये गए हैं। वही हाल हिमाचल प्रदेश का है। वहां के 12 में से 8 ज़िलों में दावानल फैल चुका है। एक महीने से सूबे में आग की घटनाएं दर्ज हो रही हैं। आग पिछले साल भी लगी थी। हर साल लगती है। इस बार ज्यादा बड़े पैमाने पर लगी है लेकिन हम ऐसे जागे हैं जैसे पहली बार लगी हो। पर्यावरण से लेकर जंगलों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई इतनी आसानी और जल्दी तो नहीं होने वाली।

वैसे हम सोचते हैं कि इस आग में सिर्फ़ जंगल जलते हैं लेकिन ऐसा नहीं है, पशु-पक्षियों का भी इस आग में भयानक नुकसान होता है जो जंगल की आग में घिर जाते हैं। ख़ासतौर पर पक्षियों के अंडे वगैरह जल जाते हैं। रेप्टाइल्स यानी सरीसृप प्रजाति के जानवर इसका बड़ा शिकार बनते हैं जो जंगल में आग की से बाहर नहीं निकल पाते, साथ ही कई बड़े जानवर भी इस आग से बच नहीं पाते।

इंसानों की बनाई संस्थाओं के अलावा एक और ज़िम्मेदार है चीड़। कई लोगों ने कहा कि चीड़ के कारण दावानल फैला है। दावानल जंगलों की आग को कहते हैं। क्या चीड़ के कारण ही सब कुछ हुआ। क्या ये खलनायक ही है। हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां सूचनाएं रॉकेट की रफ्तार से आ रही हैं और चली जा रही हैं। आपने चीड़ के पेड़ों को देखा होगा। आहें भरी होंगी। इन्हीं पेड़ों से आग निकल रही है। सुशील बहुगुणा ने चीड़ के पेड़ों के बारे में उपलब्ध जानकारियों की चीरफाड़ की है। जो हम आपको यहां बताना चाहते हैं। चीड़ एक कोनिफेरस यानी शंकुधारी पेड़ है। इसकी पत्तियां नुकीली होती हैं। पहाड़ों में ये पेड़ आठ सौ मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई तक होता है। एक आम धारणा है कि यूकेलिप्टस की तरह चीड़ को भी अंग्रेज़ यूरोप से लेकर आए, लेकिन ऐसा नहीं है। चीड़ का पेड़ करोड़ों साल से हिमालय के पहाड़ी इलाकों में पाया जाता है और हिमालय के जंगलों को बनाने में इसकी एक बड़ी भूमिका रही है।

चीड़ को कुदरत ने दरअसल ऐसी जगहों के लिए विकसित किया जहां तीखी ढलान हों, चट्टानी इलाका हो, मिट्टी की परत बहुत कम हो या ना के बराबर हो, पानी बहुत कम हो, तेज़ और सीधी धूप आती हो। ऐसी पहाड़ी ढलानों के लिए चीड़ को प्रकृति ने तैयार किया था, इसीलिए पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखने के लिए चीड़ की भी ज़रूरत है। चीड़ का व्यावसायिक इस्तेमाल भी खूब होता है। इस पेड़ की लकड़ी मकान बनाने और दूसरे कामों में इस्तेमाल होती है। चीड़ की कुछ प्रजातियों की लकड़ी काग़ज़ बनाने के काम भी आती है। इससे निकलने वाला रेसिन यानी लीसा भी कई काम आता है। इसीके डिस्टिलेशन से टरपेंटाइन ऑयल बनता है। सवाल ये है कि इतने काम का पेड़ चीड़ क्यों पहाड़ों के जंगलों में आग की एक वजह बन रहा है। दरअसल व्यावसायिक कारणों से चीड़ का बड़े पैमाने पर प्लांटेशन हुआ। पहले प्लांटेशन के साथ-साथ चीड़ को टिंबर के लिए काटा भी जाता था, लेकिन 1981 के बाद 1000 मीटर के बाद हर तरह के पेड़ के काटने पर रोक लग गई। इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा चीड़ ने उठाया। वो बांज, बुरांस और देवदार जैसे मिश्रित वनस्पति के जंगलों में भी बस गया। धीरे-धीरे चीड़ ने बाकी प्रजातियों के पेड़ों की जगह लेना शुरू कर दिया। चीड़ की एक ख़ासियत ये है कि वो अपने आसपास किसी दूसरी प्रजाति के पेड़ को पनपने नहीं देता। चीड़ को जब इन जंगलों में काटा नहीं गया तो उसने चौड़ी पत्ती के जंगलों की जगह छीननी शुरू कर दी। नतीजा ये हुआ कि चीड़ का विस्तार बहुत बढ़ गया। इस विस्तार की वजह से जंगलों में आग का भी विस्तार हुआ क्योंकि चीड़ का पेड़ जंगल में आग को तेज़ी से फ़ैलाता है।

चीड़ की पत्तियां जब सूख जाती हैं तो बड़ी तेज़ी से आग पकड़ती हैं। गर्मियों में चीड़ की पत्तियां जंगलों में एक कार्पेट की तरह फैल जाती हैं और एक हल्की सी चिंगारी भी बड़ी आग की शक्ल में तेज़ी से फैलने लगती है। चीड़ से निकलने वाला रेज़िन जिसे लीसा कहते हैं वो भी आग भड़काने का काम करता है। चीड़ के जंगलों से फैली ये आग दूसरी वनस्पतियों को जला देती है। चीड़ के जंगल पशु-पक्षियों के भी ज़्यादा काम नहीं आते। चीड़ की पत्तियां पाइनिक एसिड बनाती हैं जिससे मिट्टी एसिडिक हो जाती है। चीड़ के पेड़ बारिश से मिट्टी का कटाव रोकने में ज्यादा सक्षम नहीं होते। चीड़ के जंगलों में जल स्रोत सूख जाते हैं, क्योंकि मिट्टी में नमी क़ायम नहीं रह पाती। लेकिन चीड़ का ये विस्तार इंसानी वजहों से हुआ, इसलिए चीड़ को जंगल का विलेन कहना ठीक नहीं होगा। जहां कुछ और नहीं होता वहां चीड़ होता है और वो बड़ा जंगल बनाता है। हमने ही उसे उन जगहों पर पनपने के लिए जगह दी जो जगह उसकी नहीं थी।

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