नमस्कार... मैं रवीश कुमार। जिस लोकपाल कानून को बनाने के लिए अभी और इस वक्त बनाओ आंदोलन साल भर चलता रहा उस कानून के बन जाने के आठ महीने बाद भी लोकायुक्त का अता पता तक नहीं है। आम आदमी पार्टी के नेता और वकील प्रशांत भूषण ने इसी संदर्भ में एक जनहित याचिका दायर की कि लोकपाल के चयन के लिए कमेटी क्यों नहीं बन रही है।
इसी की सुनवाई के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच की टिप्पणी ने नेता विपक्ष के पद का मुद्दा फिर से गरमा दिया है। अदालत ने सरकार से चार हफ्तों में जवाब देने के लिए कहा है कि नेता विपक्ष क्यों नहीं है? नेता विपक्ष बेहद अहम पद होता है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह सदन की आवाज़ होता है। वह उन प्रतिनिधियों की आवाज़ होता है, जो सरकार से अलग होते हैं। संविधान बनाने वालों ने कभी सोचा नहीं होगा कि ऐसी स्थिति आएगी। हम इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि नेता विपक्ष के बिना लोकपाल का चयन होता है तो चुनने की कमेटी प्रभावी होगी।
पहले यह जानना ज़रूरी है कि दिसबंर 2013 में पास लोकपाल कानून नेता विपक्ष की भूमिका का क्यों अहम मानता है और क्या उस कानून में उसका होना अनिवार्य है। कानून के मुताबिक लोकायुक्त के चयन के लिए एक कमेटी बनेगी, जिसके प्रधानमंत्री लोकसभा की स्पीकर, भारत के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत सुप्रीम कोर्ट के कोई जज, राष्ट्रपति द्वारा मनोनित न्यायविद और नेता विपक्ष सदस्य होंगे।
लेकिन इसी कानून की धारा 42 यह भी कहता है कि अगर चयन कमेटी में कोई वैकेंसी रह जाती है तो सिर्फ इस कारण से लोकायुक्त या लोकपाल के सदस्य की नियुक्ति को अवैध नहीं माना जाएगा। तो क्या इसका यह मतलब नहीं हुआ कि लोकपाल की नियुक्ति के लिए जो पैनल बनेगा, उसमें नेता विपक्ष का होना ज़रूरी नहीं है।
जब लोकपाल कानून बनाने को लेकर लोग सड़कों पर उतरे थे, तब इसके एक एक प्रावधान की ऐसे चर्चा होती थी ताकि किसी को नियुक्ति और अधिकार के मामले में कोई शक शुबहा न रहे। आप जानते हैं कि पंद्रहवी लोकसभा में कांग्रेस के पास सिर्फ 44 सीटें हैं। संख्या के हिसाब से कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तो है, मगर नियमों के मुताबिक कांग्रेस का दावा सही नहीं ठहरा कि नेता विपक्ष का पद उसे मिलना चाहिए।
स्पीकर सुमिता महाजन ने भी अपना फैसला सुना दिया है कि कांग्रेस को यह पद नहीं दिया जा सकता है। अब कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट का पूछना अच्छा लग गया है। आनंद शर्मा ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सही है। स्पीकार का फैसला राजनीति से प्रभावित है।
सरकार के सूत्र यही कह रहे हैं कि नेता विपक्ष के मामले में अंतिम फैसला स्पीकर का ही है। बीजेपी की मीनाक्षी लेखी का कहना है कि नेता विपक्ष का पद लोगों की इच्छा के अनुसार ही मिलता है। लेकिन लोगों ने इस बार ऐसी कोई राय ज़ाहिर नहीं की है। पहले भी सात मौकों पर नेता विपक्ष नहीं रहे हैं।
यहां सवाल पहले का नहीं है। आज के सवाल का संदर्भ अलग है। वह यह है कि लोकपाल की नियुक्ति के लिए जो कमेटी बनेगी क्या वह बिना नेता विपक्ष के पारदर्शी या मान्य रहेगी। नेता विपक्ष को इसीलिए तो रखा गया था, ताकि चयन में सरकार का पलड़ा भारी न रहे और यह संदेश जाए कि लोकायुक्त किसी का पसंदीदा नहीं है। मगर उसी लोकपाल कानून में यह भी तो लिखा है कि चयन कमेटी में कोई पद खाली रह जाए तो नियुक्ति पर असर नहीं पड़ेगा।
ये कानून भी बीजेपी कांग्रेस ने मिल बैठकर पास किया है। इसलिए मानसून सत्र में जब सरकार ने न्यायिक नियुक्ति आयोग बिल पास किया तो उसमें आयोग के चेयरमैन की नियुक्ति के लिए जो कमेटी बनेगी उसमें नेता विपक्ष की जगह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का नेता लिखा हुआ है। केंद्रीय सूचना आयुक्त के चयन की कमेटी भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता का प्रावधान है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिए भी यही प्रावधान है।
चुनाव आयुक्त, सीबीआई और सीएजी की नियुक्ति में नेता विपक्ष की ज़रूरत ही नहीं है। लोकपाल कानून में भी लिखा ही है कि कोई भी वैकेंसी खाली तो नियुक्ति अवैध नहीं होगी। क्या वैकेंसी ख़ाली होने की दलील चयन समिति के सभी सदस्यों पर समान रूप से लागू होती है। अगर चीफ जस्टिस न हों प्रधानमंत्री न हों तो क्या होगा? इसकी नैतिक मान्यता क्या होगी? आखिर लोकपाल कानून में यह प्रावधान ही क्यों जोड़ा गया?
एक और सवाल है। सुप्रीम कोर्ट के आज के सवाल से क्या स्पीकर सुमित्रा महाजन के फ़ैसले की भी समीक्षा की नौबत आ सकती है। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने नेता विपक्ष का दर्जा देने की याचिका को खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्पीकर के फैसले की अदालत में समीक्षा नहीं की जा सकती।
स्पीकर का फैसला आ चुका है और उसकी समीक्षा नहीं हो सकती फिर भी एक किताब का ज़िक्र करना चाहता हूं। प्रैक्टिस एंड प्रोसिज़र ऑफ पार्लियामेंट। इसे लिखा है एमएन कौल और एसएल शकधर ने। इसके छठे संस्करण के चैप्टर चौदह के पेज 385 से 387 पढ़ना चाहिए। क्यों पढ़ना चाहिए क्योंकि स्पीकर के फैसले के पहले बीजेपी का दावा था कि स्पीकर के पास डायरेक्शन 120 और 121 के तहत किसी दल को मान्यता देने का जो निर्देश हैं, उसके मुताबिक सदन में किसी दल को मान्यता तभी मिलेगी जब उसके पास कोरम के बराबर संख्या हो।
लेकिन इस किताब का दावा है कि 1985 में दल बदल कानून के आने के बाद यानी 10वीं अनुसूचि के बाद स्पीकर का यह निर्देश अस्तित्व में नहीं रहता है। क्योंकि किसी संसदीय दल को मान्यता देने के स्पीकर के निर्देशों का जो प्रावधान है उसकी व्याख्या अब अलग नज़र से करने की ज़रूरत है। जब से दसवीं अनुसूचि अस्तित्व में आई है स्पीकर के इन निर्देशों का इस्तमाल सीमित हो जाता है। जैसे किस दल या समूह से स्पीकर चुनना है। विभिन्न संसदीय समितियों में किन किन को रखना है। सदन में बैठने की जगह क्या हो या संसदीय सामग्रियों की आपूर्ति कैसे की जाए। क्योंकि दसवीं लोकसभा में जब जनता दल का विभाजन हुआ तब इसकी व्याख्या यह निकल कर आई कि राजनीतिक दल को मान्यता देने का अधिकार क्षेत्र अब चुनाव आयोग के पास है।
फिर पेज 386 पर आगे लिखते हैं कि ग्यारहवीं लोकसभा के बाद से सदन में विधायी दलों को उनकी संख्या के आधार पर कुछ सुविधाएं मिलती रहीं लेकिन स्पीकर द्वारा निर्देश 120 और 121 के आधार पर मान्यता देने का प्रचलन समाप्त हो जाता है।
कानून की व्याख्या कविता से कम नहीं होती है। मैं स्पीकर के फैसले की समीक्षा नहीं कर रहा, बल्कि फैसले से पहले बीजेपी की दी गई दलीलों में से एक के समानांतर एक तथ्य रख रहा हूं। अब आते हैं आज के विषय पर। क्या बिना नेता विपक्ष के लोकायुक्त की नियुक्ति की नैतिक मान्यता रहेगी या क्या नैतिकता के लिए सरकार ऐसा कर सकती है जिसका कानून में ही कोई प्रावधान नहीं है। क्या अब वह नेता विपक्ष तय कर सकती हैं क्योंकि यह तो उसके अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं है।
(प्राइम टाइम इंट्रो)