फरवरी के पहले सप्ताह में वीडियो कांफ्रेंस के ज़रिये मुंबई हमले के मामले में आरोपी आतंकी हेडली ने कहा कि इशरत जहां लश्कर के लिए काम करती थी। 28 फरवरी को पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने कहा कि चिदंबरम ने पहला हलफनामा बदलवा कर दूसरा हलफनामा तैयार करवाया। अपने दफ्तर में आईबी के जूनियर अफसरों को बुलाकर हलफमाना टाइप करवाया और मेरे पास साइन करने के लिए भिजवा दिया। मंत्री ने जब खुद ही डिक्टेट करवाया है तो कोई देखता नहीं है क्योंकि वे बॉस हैं। हम सबने साइन कर दिया। फिर गृहमंत्रालय के एक पूर्व अंडर सेक्रेटरी मणि ने बयान दिया कि उन्हें दूसरे हलफनामे पर साइन करने के लिए टॉर्चर किया गया है। सिगरेट से उनकी जांघ में दागा गया है और साइन करवाया गया।
क्या पिल्लई साहब चिदंबरम के हर डिक्टेशन को बिना पढ़े साइन कर देते थे या सिर्फ इशरत वाली फाइल नहीं देखी। इतनी महत्वपूर्ण फाइल क्या उन्हें नहीं देखनी चाहिए थी। तब जब उनके मंत्रालय के आईबी अफसर को चार्जशीट किये जाने की बात हो रही थी। एक पूर्व गृह सचिव जब कहे कि मंत्री बॉस होता है और सबने बिना देखे साइन कर दिया तो पता चलता है कि इस देश में कैसे कैसे लोग गृह सचिव हुए हैं। कम से इस मामले में बीजेपी सांसद आर.के. सिंह ही बेहतर रहे जिन्होंने बतौर गृह सचिव पब्लिक और मंत्रालय के भीतर स्टैंड लिया कि वे आईबी अफसर राजेंद्र कुमार के ख़िलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देंगे। इशरत मामले में पूर्व गृह सचिव पिल्लई से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने ऐसा क्यों किया क्योंकि इससे भारतीय पुलिस सेवा के कई अधिकारियों का करियर दांव पर लगने वाला था। पिल्लई से ज्यादा मज़बूत उनके अंडर सेंक्रेटरी आर वी मणि दिखते हैं जिन्होंने बिना देखे साइन नहीं किया।
मणि ने मीडिया से कहा है कि उनसे बयान पर दस्तखत कराने के लिए सिगरेट से दागा गया। मणि ने कहा कि उन्होंने हलफनामा तैयार नहीं किया था पर साइन कर दिया था। क्या हलफनामा पर दस्तखत करने के लिए भी मणि पर दबाव डाला गया था या फिर किसी बयान पर साइन कराने के लिए। गृह सचिव के पद पर बैठने वाले पिल्लई 2009 से लेकर 2016 तक चुप रहे लेकिन गृह मंत्रालय से शहरी विकास मंत्रालय जाते ही मणि ने अपने नए सचिव को पत्र लिख दिया कि दबाव डाला जा रहा है।
14 जुलाई 2013 के टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट है कि मणि ने शहरी विकास मंत्रालय के सचिव को एक पत्र लिखा था जिसमें मणि ने आरोप लगाया है कि आईपीएस सतीश वर्मा ने एक बयान पर दस्तखत कराने के लिए दबाव डाला। वर्मा चाहते थे कि मैं साइन कर दूं कि पहले हलफनामे को आईबी के दो अफसरों ने तैयार किया था, अगर मैं साइन कर देता तो मेरे ही सीनियर फंस जाते। क्योंकि उसमें राजेंद्र कुमार का नाम आ रहा था।
मणि तब भी तो सिगरेट से दागने वाली बात बता सकते थे क्योंकि वे पिल्लई की तरह चुप तो नहीं थे। सिगरेट से दागने की जांच तो होनी ही चाहिए। 2009 के साल में भी दो हलफनामे को लेकर चर्चा हुई थी। अगस्त के हलफनामे में इशरत को लश्कर का आतंकी बताया गया था जिसे सितंबर 2009 के हलफनामे से हटा दिया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार आर.वी.एस. मणि ने पूछताछ करने वाले आईपीएस अफसर सतीश वर्मा पर गंभीर आरोप लगाए थे। हालांकि वर्मा ने उन बातों को जवाब देने लायक नहीं समझा लेकिन मणि के अनुसार सतीश वर्मा ने उन्हें बताया था कि संसद और मुंबई में 26/11 का हमला भारत सरकार ने ही कराया है ताकि आतंकवाद विरोधी कानूनों को मज़बूत किया जा सके।
मणि ने सतीश वर्मा को सही कोट किया या ये बयान विभागों की आतंरिक झगड़े की राजनीति से प्रेरित था। कांग्रेस ने पूछा है कि क्या ऐसे अफसर के बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इसलिए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद की बात सही है कि इस मामले में न्यायिक जांच होनी चाहिए ताकि पता लगे कि गृह मंत्रालय के भीतर अफसर क्या खेल खेल रहे थे और यह खेल किस मंत्री के इशारे पर खेला जा रहा था। पुराना मामला है और इसकी जांच के लिए गुजरात हाई कोर्ट ने एसआईटी बनाई। सीबीआई ने भी जांच की लेकिन अभी तक ट्रायल शुरू नहीं हो सका है।
एक पक्ष है कि इशरत जहां और उसके साथ मारे गए तीन अन्य लश्कर के आतंकवादी थे और वे तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। इन चारों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार दिया। एक पक्ष है कि एनकाउंटर फर्ज़ी था। जावेद शेख नाम का शख्स जो आईबी अफसर राजेंद्र कुमार के लिए काम करता था, उसका इस्तेमाल कर इन चारों को अहमदाबाद बुलाया गया। इशरत जावेद को पहले से जानती थी। फिर पिल्लई ने कैसे कह दिया कि एक अकेली मुस्लिम लड़की पराये मर्दों के साथ कैसे जा सकती है। क्या जावेद के बारे में भी उनकी यही राय है कि वो राजेंद्र कुमार को कैसे जानता था, जानता था या नहीं जानता था। 2011 में एनआईए ने इस मामले की जांच कर रहे एसआईटी के चैयरमैन को लिखा था कि डेविड कोलमैन ने इशरत जहां का नाम लिया है लेकिन कोई सबूत नहीं है इसलिए इसे मुकदमे का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है।
चिंदबरम का कहना है कि वे ज़िम्मेदारी लेते हैं और इसके लिए पिल्लई भी बराबर के ज़िम्मेदार हैं। कांग्रेस का कहना है कि वो चिदंबरम के साथ है। इस मामले पर वो सरकार में थी तभी से टारगेट हो रही है। बीजेपी भी यही कहती है कि उसे इस मामले को लेकर टारगेट किया जाता रहा है। कांग्रेस ने दूसरे हलफनामे के पक्ष में सफाई देते हुए कहा है कि 6 अगस्त 2009 को पहला हलफनामा फाइल किया गया था तब यह धारणा थी कि इशरत लश्कर से जुड़ी हुई है। एनकाउंटर में मारी गई है।
7 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग ने पाया है कि एनकाउंटर फर्जी था और इशरत के लश्कर से संबंध होने के प्रमाण नहीं हैं। अदालत के इस आदेश के आलोक में गृह मंत्रालय ने अपने हलफनामे में संशोधन किया था।
इस मामले में डी.जी. वंजारा समेत सात पुलिस अफसरों को आरोपी बनाया गया था। सातो जेल से बाहर हैं। काफी लंबे समय तक जेल में रहने के बाद डी.जी. वंज़ारा ने आज एक ट्वीट किया है जो भारत की राष्ट्रीय अखंडता के लिए काफी प्रेरक हो सकता है। 'मुगलों को किताबों से निकालना ही पर्याप्त नहीं होगा, जो खुद को उनका उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं उन्हें भी भारत से निकालना होगा।'
यह उदाहरण इसलिए दिया ताकि वंजारा साहब की किताबी योग्यता के बारे में पता चल सके। आप चुनौती भी नहीं दे सकते क्योंकि उन्होंने जेल में रहते हुए तीन किताबें भी लिखी हैं जिन्हें जेल में बंद आसाराम बापू को समर्पित किया है। जेल में रहते हुए वंजारा ने 3 सितंबर 2013 को गुजरात सरकार और सीबीआई को पत्र लिखा था कि 'मैं काफी लंबे वक्त से चुप हूं सिर्फ इसलिए कि मेरा नरेंद्र भाई मोदी में विश्वास बना हुआ था जिन्हें मैं भगवान की तरह मानता हूं। लेकिन मुझे दुख है कि मेरे भगवान अमित भाई शाह के बहकावे से नहीं बच पाते। अमित शाह गुजरात में प्रॉक्सी सरकार चला रहे हैं।'
ये उदाहरण इसलिए दिया ताकि पता चल सके कि इशरत एनकाउंटर को अंजाम देने वाले अफसर भी कम दिलचस्प नहीं हैं। और यह भी पता चले कि कैसे एक केस में आईबी के अधिकारी एक दूसरे को बचा रहे हैं, कैसे आईबी के अफसर को बचा लिया गया और कई आईपीएस अफसरों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। मुंबई पुलिस के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर थे सतपाल सिंह तब लेकिन अब बीजेपी के सांसद हैं। पीयूसीएल डॉट आरजी की रिपोर्ट के अनुसार 16 जून 2004 के इंडियन एक्सप्रेस के वडोदरा संस्करण में तब के मुंबई के ज्वाईंट सीपी सत्यपाल सिंह का बयान छपा है जिसमें वे कह रहे हैं कि क्या वे आतंकवादी मुंबई से थे, हमें तो इसकी कोई जानकारी नहीं थी। उन लोगों को हमें सूचना देनी चाहिए थी, हम उस औरत और कार के मालिक की पहचान करने की कोशिश कर रहे हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनका मुंबई कनेक्शन था।
2004 में कहां पता होगा कि दस साल बाद 2014 में उन्हें बागपत से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ना होगा। सांसद सत्यपाल सिंह ने हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा से कहा कि इस केस के अंदर बहुत ही पोलिटिकल मोटिवेशन थे। इसके बारे में वे संसद में विस्तार से जवाब देंगे। एक ही सीन चेंज हुआ है। इस बार बीजेपी कांग्रेस से पूछ रही है कि इशरत को कौन बचा रहा था। किसके इशारे पर बचाया जा रहा था।