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This Article is From Jul 15, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : राशन के जरूरतमंद गरीब को 'भामाशाह एटीएम' न कह दे तो?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    July 15, 2016 23:00 IST
    • Published On July 15, 2016 23:00 IST
    • Last Updated On July 15, 2016 23:00 IST
हमारे देश में करोड़ों लोग जनवितरण प्रणाली यानी सरकारी राशन की दुकान से चावल गेहूं लेते हैं। सरकार विभिन्न योजनाओं के तहत उन्हें सस्ता अनाज देती है। कई बार हमें लगता है कि सब ठीक ही चल रहा होगा क्योंकि सरकार भी एक लाइन में सारी बातें कह देती है कि अब मशीन से राशन मिल रहा है, इसलिए चोरी बंद हो गई है। जिसे मिलना चाहिए उसे ही मिल रहा है और सरकारी खजाने में भारी बचत हो रही है। ऐसा हो भी सकता है लेकिन दूसरी तरफ जहां लोग कतार में खड़े होकर राशन की दुकान खुलने का इंतजार कर रहे हैं उनके साथ यह मशीन कैसा व्यवहार कर रही है, हम नहीं जानते हैं। लीकेज तो रुक गया अगर रुका है तो, जिन्हें नहीं मिला उन पर क्या गुजरती होगी। टीवी के बहुत से शहरी दर्शक जमाने से राशन की दुकान पर नहीं गए होंगे। मैं अपने ऐसे कई दर्शकों से मिलता हूं जो जाते हैं। मगर उनके पास फेसबुक और ट्विटर नहीं है जो अपना हाल ट्वीट कर सकें।

राशन की मशीन से मिलती जुलती मशीन आपने शहरों की दुकानों और मॉल में देखी होगी, जहां आप अपने डेबिट कार्ड और क्रेडिट कार्ट से पैसा देते हैं। वैसे इसका अंग्रेजी नाम 'प्वाइंट ऑफ सेल' मशीन है। इसे पॉस मशीन कहते हैं। राजस्थान सरकार ने अपनी योजना के प्रचार के लिए इसका नाम 'भामाशाह एटीएम' रख दिया है। यह मशीन पहले आधार कार्ड को पढ़ती है, फिर अंगूठे का निशान देना होता है। निशान मिलेगा तभी मशीन आधार कार्ड के सर्वर से मिलान करेगी कि व्यक्ति असली है। अब कार्ड सही निकल गया तो मशीन इसी आधार से जयपुर के एक और सर्वर से पता करेगी जहां राशन कार्ड धारकों की जानकारी है। जब दोनों जगहों पर पुष्टि हो जाती है तो अनाज मिलेगा। वर्ना मशीन कह देगी टाइम आउट, यानी आपको नहीं मिलेगा। सरकार का दावा है कि इस मशीन से क्रांति आने वाली है क्योंकि राशन की दुकानों से चोरी रुक जाएगी, सरकार की करोड़ों की सब्सिडी बच जाएगी। जो हकदार होगा उसे ही अनाज मिलेगा।

इस मशीन के आने से पहले भी छत्तीसगढ़ और अन्य कई राज्यों ने अपने यहां राशन की दुकानों से लीकेज को रोकने का दावा किया था। उनकी काफी सराहना हमने पढ़ी थी। अब यह सवाल तो नीति नियंता ही बताएंगे कि जब वह तरीका सफल हो सकता था तो इस तरीके की जरूरत क्यों पड़ रही है। मशीन की लागत, बनाने वाली कंपनी और ठेके वगैरह का सवाल तो है, मगर हमें पता नहीं है उसके बारे में, इसलिए कोई अटकलबाजी नहीं। वैसे इकोनोमिक टाइम्स की 2012 यानी चार साल पहले की रिपोर्ट है, जिसमें नंदन नीलेकणी का बयान है कि ऐसी हर मशीन की औसत कीमत 15 हजार रुपये होगी। हमने सोचा कि क्यों न जगह-जगह जाकर देखें कि गरीब लोग, आम लोग जब इस मशीन के पास जाते हैं तो उनका अनुभव क्या होता है।

अभी तीसों दिन राशन की दुकान नहीं खुलती है। इसके लिए राजस्थान सरकार हर महीने वितरण सप्ताह तय करती है। जुलाई में 10 जुलाई से लेकर 24 जुलाई के बीच वितरण सप्ताह रखा गया। लिहाजा जब राशन की दुकान खुलती है तो भीड़ काफी होती है। अब अगर किसी का अंगूठा नहीं मिला, किसी की उंगली के निशान नहीं मिले तो उसे अनाज नहीं मिलेगा। निशान मिलाने के बार-बार के प्रयास के कारण देरी भी होती है लिहाजा राशन की दुकान के बाहर की भीड़ का सब्र भी टूटता होगा। चूंकि गरीब और आम लोगों के लिए भीड़ और समय की कोई कीमत नहीं होती इसलिए हम मिडिल क्लास लोगों को यह बात समझ में भी नहीं आएगी। उन्हें अपनी तकलीफ जरूर दिख जाएगी जब उन्हें पासपोर्ट ऑफिस में एक घंटा लाइन में लगने के लिए कह दिया जाए। तब वे ट्वीट कर भारत को कोसेंगे और कहेंगे कि क्या ऐसे सुपर पावर बनेगा अपना इंडिया।

राजस्थान से हमारी सहयोगी हर्षा कुमारी सिंह और उनकी टीम के सदस्यों ने सरकारी राशन की दुकानों पर जाकर आम लोगों के अनुभव को रिकॉर्ड किया। चार जिलों से उन्होंने यह अनुभव जमा किए हैं ताकि आपको हमको पता चले कि सरकार कितनी भी बेहतर योजना बना ले, जो आम और गरीब है उसकी दिक्कतों का निपटारा नहीं होता है। हो सकता है कि मशीन से उसके खजाने में बचत हो रही हो लेकिन अगर किसी को उस महीने का अनाज नहीं मिला तो वह क्या बचाएगा। उसका क्या बचता है। भूख बचती होगी।

भामाशाह एटीएम मशीन किसी को नहीं जानती है। वह सिर्फ आपके अंगूठे के निशान से आपको पहचानती है। राशन का दुकानदार अब आपको भी नहीं पहचानेगा क्योंकि मशीन ने आपके निशान को नहीं पहचाना। अभी शायद सरकार ने ऐसी स्थिति में कुछ रियायत दी है मगर जो परेशानी हो रही है वह बताती है कि अगर आधार कार्ड को अनिवार्य कर दिया गया तो क्या होगा। दिल्ली के अखबारों में हम इसकी केवल खूबियां ही पढ़ते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि जो लोग मेहनत मजदूरी करते हैं उनके हाथों के निशान मिट जाते हैं। क्या आपने कभी अपने घर आए किसी मजदूर की हथेली उठाकर देखी है? देखिएगा। मशीन क्या हमारे ज्योतिष लोग भी फेल हो जाएंगे। ज्योतिषी लोग तो ललाट पढ़कर चकमा देने लगेंगे मगर मशीन को छूट नहीं है कि वह ललाट देखकर राशन दे। मैं कुछ उंगलियों, अंगूठों के निशान आपको दिखा सकता हूं जो हर्षा कुमारी सिंह ने भेजे हैं।

मेहनतकश लोगों के हाथों के निशान घिसते-घिसते घिस जाते हैं। गांव देहात में औरतों की उंगलियों में कुछ बचता नहीं है। बर्तन मांजते-मांजते उनकी भाग्य रेखाएं भी मिट जाती हैं। आधार कार्ड जब आएगा तो ऐसे तमाम लोग कई योजनाओं से बाहर हो सकते हैं। सरकार व्यवस्था कर देगी कि निशान नहीं मिले तो डीएम, एसडीएम से लिखवाकर ले आएं मगर सोचिए कि क्या इतने सक्षम लोग हैं जो आसानी से प्रमाण पत्र ले आएंगे। मुखिया के पास भी जाएंगे तो वह कितना खेल खेलेगा। इसके बदले उसका इन लोगों की जिंदगी पर कितना नियंत्रण हो जाएगा। हर्षा का कहना है कि कितने लोगों की उंगलियों के निशान मिट गए हैं, इसका कोई सर्वे नहीं है।

मशीन से मेरा कोई दुराग्रह नहीं है। क्या पता हम आने वाले दौर में मशीन के आधार पर जीने लगें। मेरी शिकायत मशीन से ज्यादा मानव की समस्या को लेकर है। जब कोई ऐसी मशीन नहीं बनी जो मानव की हर समस्या का इलाज कर दे तो राशन की हर समस्या का इलाज कोई मशीन कैसे हो सकती है। क्या आज की तारीख में हम इस मशीन के लिए तैयार हैं या इसलिए बेचैन हैं कि इसे लागू कर दुनिया में नाम कमाया जाए कि हमने कुछ कमाल कर दिया। और जो आम लोगों की तकलीफ और दर्द है, उसका क्या?

यह मशीन सिम कार्ड से चलती है। दिल्ली जैसे शहर में दो साल से कॉल ड्राप की महामारी फैली हुई है। आए दिन अखबारों में निकलता रहता है। हालत यह कि अब तो पारदर्शिता के नाम पर टेलिफोन कंपनी विज्ञापन ही देने लगी है कि उसके ऐप से पता चल जाएगा कि कहां नेटवर्क है, कहां नहीं है। लेकिन गरीब लोगों को कहां से पता चलेगा। जब दिल्ली में नेटवर्क का पुख्ता इंतजाम नहीं है तो गांव देहात की क्या हालत होगी? जैसे एक सज्जन को मशीन का नेटवर्क नहीं मिला। वे मशीन हाथ में लिए वैसे ही नेटवर्क ढूंढ रहे थे जैसे 90 के दशक से पहले के लोग छत पर चढ़कर एंटेना को कभी नेपाल की तरफ मोड़कर तो कभी भूटान की तरफ मोड़कर दूरदर्शन का नेटवर्क खोजते थे। बाड़मेर की राशन के एक दुकानदार जी अपनी मशीन लेकर नेटवर्क ढूंढ रहे थे। ढूंढते-ढूंढते दुकानदार जीबाहर आ गए। बाहर आते-आते सड़क पर आ गए। अब वे हवा में नेटवर्क खोजते रहे, दुकान के बाहर खड़े लोग वहीं रह गए। दुकानदार जी मशीन का नेटवर्क खोजते रहे और चूंकि गरीब लोगों के वक्त की कोई कीमत नहीं होती तो वे इंतजार करते रहे। सबसे बड़ी बात है कि ट्वीट भी नहीं किया। सोशल मीडिया पर देश की डेमोक्रेसी शिफ्ट हो गई है और यह लोग हैं कि अभी तक राशन की दुकान में डेमोक्रेसी के अनाज का इंतजार करते रहे। हाउ सैड।

करीब सात करोड़ आबादी है राजस्थान की। इसमें से 4 करोड़ 34 लाख लोग सरकार की सस्ती अनाज योजनाओं पर निर्भर हैं, जो राशन की दुकानों से चावल, गेहूं, चीनी और मिट्टी का तेल लेते हैं। यह लोग बाजार दर से गेहूं नहीं खरीद सकते हैं। दाल नहीं मिलती है इसलिए राम जाने कि यह गरीब लोग डेढ़ सौ रुपये दाल कैसे खाते होंगे। क्या सिर्फ रोटी खाते होंगे, या चावल और माड़ ही खाकर रह जाते होंगे। हम वाकई नहीं जानते हैं क्योंकि इनका कसूर यह है कि उस सोशल मीडिया में नहीं हैं, जहां इन दिनों डेमोक्रेसी रहती है। बहरहाल सरकार का काम यह भी है कि अनाज उसे ही मिले जिसे मिलना चाहिए। इसलिए वह समय-समय पर सूचियों की सफाई करती रहती है। क्योंकि गरीबों को अनाज देने के कार्यक्रम पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। हर्षा कुमारी सिंह ने बताया कि इस वक्त भी सूचियों की कटाई छंटाई चल रही है मगर 15 लाख नए लोगों को भी जोड़ा गया है, जिन्हें मिलना चाहिए था मगर नहीं मिल रहा था। खाद्य सुरक्षा एक्ट के तहत जिन लोगों को मिलना चाहिए, सभी को तो नहीं मिल रहा है, मगर दावा किया जा रहा है कि मिल रहा है।

किसी भी योजना में चुनौती आती है। हो सकता है कि यह शुरुआती चुनौती हो, लेकिन जो गरीब 2 रुपए से ज्यादा का अनाज खरीद नहीं सकता उसे अनाज मिलने में एक दिन की देरी हो जाए तो उसका क्या? उम्मीद है यह रिपोर्ट सरकार को अपना सिस्टम ठीक करने में काम आ सकेगी।

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