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This Article is From Dec 02, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : टैगोर का देशप्रेम बनाम मानवता

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 02, 2016 21:38 pm IST
    • Published On दिसंबर 02, 2016 21:33 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 02, 2016 21:38 pm IST
टीवी बहुत ही मुश्किल माध्यम है, कई बार लगता है कि काश टीवी के पास भी अख़बारों की तरह पन्ने होते. जब भी राष्ट्रवाद और देशभक्ति को लेकर बहस होती है, रवींद्रनाथ टैगोर का लेख छप जाता है. मैं कई बार सोचता हूं कि राष्ट्रवाद पर लेफ्ट राइट सेंटर की इतनी किताबें हैं, फिर भी रवींद्रनाथ टैगोर के इस लेख की क्या ख़ासियत है, जब भी राष्ट्रवाद पर बहस होती है, उनके लेख का हिस्सा कहीं न कहीं छप जाता है. बार-बार पेश करने वाला इस लेख से क्या ये उम्मीद करता है कि जुनून का उफान कुछ कम होगा, लोग समझ पाएंगे कि राष्ट्रवाद के नाम पर सनक के ख़तरे क्या हैं.

हिटलर का ज़िक्र करते ही क्या हम और आप वाकई अपने लोकतंत्र को लेकर सचेत हो जाते हैं. हिटलर हिटलर बोलने वाले को किस बात का इतना भरोसा है कि लोग राष्ट्रवाद की नौटंकी को समझ जाएंगे. भूख से बड़ा कोई देश नहीं है. फिर किसी को क्यों इतना भरोसा है कि राष्ट्रवाद का इस्तमाल अगर कोई नेता किसी के घाव पर नमक की तरह करेंगे तब भी वो आह नहीं करेगा. हमें क्यों लगता है कि हिटलर का नाम लिये बग़ैर लोकतंत्र के ख़तरों के बारे में लोग अनजान रह जाएंगे. दुनिया में इसी जनता ने तमाम तानाशाहों की सरकारें पलट दी हैं, क्या वे सभी हिटलर को जानते थे. लोकतंत्र के मूल्यों के मिट जाने का सबसे बड़ा प्रतीक हिटलर क्यों है. उसने ज़रूर झूठ का जाल फैलाया. लाखों लोगों को मार डाला. जिस राष्ट्र के लिए वो सब कर रहा था, बाद में पता चला कि वो अपनी सनक के लिए कर रहा था. हिटलर का राष्ट्रवाद उसकी सनक का राष्ट्रवाद है. एक पागल और वहशी और प्रचार के भूखे का राष्ट्रवाद है. नस्ल और इतिहास बदलने आया था, खुद एक बदनाम नस्ल के रूप में याद किया जाने लगा. उसका इतिहास एक घिनौना इतिहास है. लेकिन हम उस इतिहास से कोई सौ साल दूर खड़े हैं. फिर भी लोकतंत्र के ख़तरे की आहट हिटलर की शक्ल में क्यों सुनाई देती है. शोले फिल्म का गब्बर सिंह हो गया है हिटलर. गब्बर को पता नहीं था कि जय और वीरू दो ही थे. उसके कुनबे को मिटा गए. गब्बर की दुर्गति शोले के हर दर्शक को याद है.

याद रखियेगा उदारवाद के चोले पहनकर भी बहुत से हिटलर आए. लोकतंत्र का नाम लेकर भी बहुत से हिटलर आए हैं. हिसाब सबका होना चाहिए. राष्ट्रवाद का ज्ञानी से ज्ञानी प्रोफेसर और चिंतक इस बहस को दिशा नहीं दे पाता है, लेकिन दुनिया के हर हिस्से में एक नेता आता है और वो अपने समय को राष्ट्रवादी सांचे में ढाल जाता है. क्यों जनता अपने नेता के अधकचरे राष्ट्रवाद को अपना लेती है, किताबी राष्ट्रवाद को छोड़ देती है. क्या इसलिए कि वो सिर्फ अनजान है. जनता वहीं खड़ी रह जाती है जहां वो राष्ट्रवादी राजनीति के आने से पहले खड़ी थी. जैसे पहले वाले ख़तरनाक नहीं रहे होंगे. बहरहाल रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद पर लिखे लेखों के हिस्से को टीवी पर पेश किया जा सकता है. हो सकता है बोरिंग हो लेकिन जोखिम उठाना कभी बोरिंग काम नहीं होता है. आप अगर इस लेख को पूरा पढ़ना चाहते हैं तो नेशनल बुक ट्रस्ट से खरीद सकते हैं. सौमित्र मोहन ने अनुवाद किया है और किताब सिर्फ 40 रुपये की है. नाम है राष्ट्रवाद रवींद्रनाथ टगौर. अंग्रेज़ी और बांग्ला में इंटरनेट पर मौजूद है. टैगोर वेब डॉट इन के हवाले से 1908 में टैगोर ने कहा था
देशप्रेम हमारा आख़िरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता. मेरा आश्रय मानवता है. मैं हीरे के दाम में ग्लास नहीं ख़रीदूंगा और जब तक मैं ज़िदा हूं मानवता के ऊपर देशप्रेम की जीत नहीं होने दूंगा.

आख़िर टैगोर के लिए राष्ट्रवाद क्यों ग्लास जितनी सस्ती है, जिसे वो मानवतावाद के बेशकीमती हीरे से नहीं ख़रीदना चाहते हैं. 1916 और 1917 के साल टैगोर जापान और अमेरिका जाकर राष्ट्रवाद पर लेक्चर दे रहे थे. 55 साल की उम्र थी तब. 1913 में ही नोबेल पुरस्कार मिल चुका था. 1908 से 1917 के बीच राष्ट्रवाद को लेकर टैगौर लगातार सोच रहे थे. इसी बीच में 1911 में वे जन गण मन की रचना करते हैं, उसके बाद भी राष्ट्रवाद को शक की निगाह से देखते रहते हैं. कहते हैं कि जब मुल्क से प्यार का मतलब भक्ति या पवित्र कार्य में बदल जाए तब विनाश निश्चित है. मैं देश को बचाने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं किसकी पूजा करूंगा ये मेरा अधिकार है जो देश से भी कहीं ज़्यादा बड़ा है. ये टगोर के शब्द हैं.

आज तो मैं टैगोर के शब्दों का ही ज़िक्र करूंगा लेकिन आप राष्ट्रवाद पर टैगोर ही नहीं, गांधी, अंबेडकर, एंडरसन, सावरकर, गोलवलकर सबको पढ़िये. शुक्रवार के इंडियन एक्सप्रेस ने राष्ट्रवाद पर टैगोर का लेख छापा है और इकोनोमिक टाइम्स में अभीक बर्मन का राष्ट्रवाद और टैगोर पर रोचक लेख है. इसलिए हमने सोचा कि हम भी टैगोर के लेख को टीवी पर पेश करेंगे क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि सिनेमा घरों में फिल्म शुरू होने से पहले सबको आदर के साथ राष्ट्रवाद गाना होगा. इस फैसले की खूब समीक्षा हो रही है. आलोचना भी हो रही है कि सिनेमा हॉल के भीतर जाते ही क्या राष्ट्रवाद कम हो जाता है जिसके बढ़ाने के लिए राष्ट्रगान की ज़रूरत है. सारी उम्मीदें सिनेमा देखने जाने वाले से क्यों हो रही हैं. संसद से लेकर रेलवे स्टेशन पर क्यों न राष्ट्रगान हो. कई लोग इस फैसले पर चुप हैं तो कइयों को इससे एतराज़ नहीं है. टैगोर तो उस वक्त राष्ट्र की आलोचना कर रहे थे जब भारत राष्ट्र बनने के लिए ही आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था. अनिरुद्ध घोषाल ने लिखा है कि टैगोर की रचना राष्ट्रवाद की सर्वोच्च प्रतीक है लेकिन टैगोर खुद राष्ट्रवाद को मानवता के लिए ख़तरा मानते थे. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में ही इकोनोमिक टाइम्स में अभीक बर्मन ने लिखा है कि टैगोर के बारे में यह झूठ फैलाया जाता है कि उन्होंने जन गण मन ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम की शान में लिखा था. रवींद्रनाथ टैगोर ने एक पत्र में लिखा था कि मैं कभी किसी जॉर्ज पांच छह या किसी अन्य जॉर्ज के लिए गीत नहीं लिख सकता. टेगोर को लगता था कि राष्ट्रवाद के नाम पर आवाज़ दबाई जाएगी. रचनात्मकता पर पहरा लगेगा कि आप ये सीन नहीं दिखा सकते. ये कविता नहीं सुना सकते.

इंसान जिस तरह की कठिनाइयों से जूझता है, उसका इतिहास भी इसी के अनुरूप बनता है. ये टैगोर की लाइन है. टैगोर का मानना था इंसान को हर हाल में यह ध्यान में रखना चाहिए कि वो इंसान पहले है. वो इसे भुला कर सफलता तो पा सकता है मगर वो सफलता अस्थायी ही होगी.

एशिया के शुरुआती इतिहास में सीथियन लोगों को संसाधनों की कमी हुई तो उन्होंने एक तरीका यह निकाला कि आदमी औरत सब एकजुट हो जाएं तथा लुटेरों के दलों में बदल जाएं. जो लोग मुख्य रूप से सामाजिक और रचनात्मक कामों में लगे हुए थे, उनके लिए वे सबसे बड़ी अड़चन साबित होने लगे. इसलिए मेरी गुज़ारिश है कि आपमें आस्था की ताकत और विचारों की स्पष्टता होनी चाहिए, ताकि आप साफ साफ देख सकें कि तरक्की का यह भद्दा ढांचा जो कुशलता और महत्वकांक्षाओं के नट बोल्ट और चक्कों पर दौड़ता रहता है, ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा. इसने एक न एक दिन तो टकराना ही है क्योंकि इसे बिछी बिछाई पटरियों पर ही चलना होता है. एक दिन यह सब तबाह हो जाएगा. क्या हमें आज इसके संकेत नहीं दिख रहे हैं. क्या हमें युद्ध के शोर, नफरत की चीखों, निराशा भरे रूदन, सदियों के मंथन से राष्ट्रवाद की तलहटी में जमी कीचड़ से आती वह आवाज़ सुनाई दे रही है, एक ऐसी आवाज़ जो हमारी आत्मा को झकझोर रही है कि राष्ट्रीय स्वार्थ की मीनार, जो देशभक्ति के नाम पर बनाई गई है, जिसने स्वर्ग के ख़िलाफ़ अपना झंडा लहराया है, उसे अब अपने ही भार से ढह जाना चाहिए.

अब टैगोर ने राष्ट्र और युद्ध को इस तरह से क्यों समझा. अक्सर राष्ट्रवाद की राह में लेखक, कवि, रचनाकार बाधा के रूप में पेश किये जाते हैं. 1916-17 का साल क्या 2016-17 के साल से कुछ अलग है. बीच में व्हाट्सऐप राष्ट्रवाद को छोड़ दें तो क्या बदला है. टैगोर की रचना को पेश तो कर रहा हूं लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो टैगोर कह रहे हैं, वही अंतिम बात होगी. ज़रूरी है कि आप लोकतंत्र और राष्ट्रवाद को लेकर नए सिरे से समझें, सोचें. भारतीय रूप में भी समझें और पश्चिमी रूप में भी समझें. टैगोर ने लिखा है कि उनका मानना है कि पश्चिमी सभ्यता से मुकाबला करने में भारत का भला नहीं होगा. ढेरों अपमान के बावजूद यदि हम अपनी नियति के अनुसार चलें तो नुकसान से कहीं ज़्यादा हमारा लाभ होगा.

ग्लोब उठा कर देखिये, दुनिया में 195 देश हो गए हैं. दुनिया अगर बंटी हैं तो वह नक्शों में बंटी है. सीमाओं में बंटी है. गिनती के ही सही मगर ऐसे देश तो हैं इस भूगोल पर जिनकी सीमाओं पर किसी सेना का पहरा नहीं है. तरह तरह के रंग बिरंगे झंडे राष्ट्रवाद के प्रतीक हो गए. पहले की राजनीतिक रैलियों में पार्टी का झंडा नज़र आता था, अब मुल्क के झंडे नज़र आने लगे हैं. जब नेता अपना झंडा लेकर गलियों में घुस नहीं पाता है तो वो देश का झंडा लेकर चला जाता है. ताकि लोग उसे देश का समझ कर माफ कर दें. अपनी भूख भूल जाएं. धीरे-धीरे पार्टियों के झंडे ग़ायब हो जाएंगे और देश का झंडा ही चुनावी झंडा हो जाएगा. तब झंडा झंडा नहीं रहेगा. आज के समय के नेताओं या राजनीति की सबसे बड़ी दिक्कत है ये कि वे अपने वर्तमान को नहीं समझ रहे. अतीत के उदाहरणों का हम पर बोझ डालते जा रहे हैं. अपने आलस्य का बोझ हम पर हल्का कर रहे हैं. आज के दौर में कौन है जो राष्ट्रवाद के इस उभार को हिन्दी पट्टी से लेकर दक्खिण पट्टी तक के हिसाब से समझा सकता है. जबकि यह कितना रोचक समय हो सकता था कि भारत के नज़रिये से भी राष्ट्रवाद को समझने का. सिर्फ इसका डर फैलाकर कोई राष्ट्रवाद को नहीं रोक सकता. दुनिया में कई देशों की सरहदों पर युद्ध का वही खेल खेला जा रहा है. बारूद आज भी गरज़ रहे हैं. युद्ध के साये में लूट खसोट आज भी है. आज भी इन सबका एक ही फेविकोल है. राष्ट्रवाद.

टैगोर ने लिखा है कि मैं किसी एक राष्ट्र के ख़िलाफ़ नहीं हूं. सभी राष्ट्रों के एक सामान्य विचार के ख़िलाफ़ हूं. आख़िर यह राष्ट्र क्या है. टगोर राष्ट्र को समझते ही हम सबके इंसान होने के उद्देश्य से नहीं भटकते हैं. उनका मानना है कि राष्ट्र के संगठन के पीछे हमारी तमाम नैतिक शक्तियां लग जाती हैं. बलिदान उस नैतिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रतीक है. मानव के त्याग करने की शक्ति अपने अंतिम उद्देश्य से भटक जाती है. वह अपनी अंतरात्मा से मुक्त हो जाता है. खुद को मशीन पर डाल देता है. यानी टैगोर कह रहे हैं कि इसकी धुन में हम हम नहीं रहते. कुछ और हो जाते हैं. नेता इस बात को जानते हैं. इसलिए राष्ट्रवाद उनके लिए वो मशीन है जिस पर आप खुद को डाल देते हैं.

अब यहां से आप टगोर की बातें पढ़ि‍ए. इंसान के इतिहास में आतिशबाज़ी के कुछ ऐसे दौर भी आते हैं जो अपनी ताकत और रफ़्तार से हमें चौंका देती है. ये न केवल हमारे घर में रखे छोटे छोटे दीयों का मज़ाक उड़ाते हैं बल्कि सृष्टि की शुरुआत का भी मज़ाक उड़ाते हैं. लेकिन इस तड़क-भड़क और दिखावों से घर के दीयों को बुझने मत दीजिए. हमें इस तिरस्कार को धैर्य के साथ सहना होगा कि इस आतिशबाज़ी में आकर्षण तो है लेकिन यह टिकाऊ नहीं है क्योंकि इसकी शक्ति इसकी आग तक ही है. इसके बुझते ही वो समाप्त हो जाती है.

मैं इस बोझ से हल्का हो रहा हूं कि टीवी पर टैगोर के लेख पेश नहीं किये जा सकते. जिनकी रचना आज भी किसी नेता के भाषण से ज्यादा गाई जाती है, फिर भी टैगोर के प्रेमी क्या उस मानवता को प्राप्त कर सके जिसके लिए टैगोर ने राष्ट्रवाद तक को नहीं बख्शा. आदर्श लोकतंत्र और आदर्श इंसान का आजतक इंतज़ार है. शायद इसलिए भी टैगोर को फिर से पढ़ना ज़रूरी है. दरअसल हम सब बचते बचाते निकल जाना चाहते हैं. व्हाट्सऐप पर अफवाहों का कचरा फैला कर खुद को राष्ट्रवादी समझ बैठते हैं. पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद की भावना भरने वाले आ गए हैं. जल्दी ही अर्थशास्त्री की तरह राष्ट्रशास्त्री पैदा कर दिया जाएगा. जैसे ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों की पहचान है वैसे ही राष्ट्रवाद की भावना से नीचे के लोगों की पहचान की जाएगी. उन्हें सताया जाएगा. बुनियादी सुविधाओं से जुड़े सवालों को राष्ट्रवाद की घोर कमी से ढंक दिया जाए, यह सुविधा सिर्फ राजनीति के पास है.

टैगोर राष्ट्रवाद के पश्चिमी मॉडल को स्वीकार नहीं करना चाहते थे. भारत में उनके बाद और उनके समय में भी कई लोगों ने अलग अलग तरीके से सोचा मगर भारत में आज तक न तो लोकतंत्र का कोई भारतीय मॉडल है, न अर्थतंत्र का तो राष्ट्रवाद का कैसे हो सकता है. इसलिए यह डर वाजिब है कि पश्चिम के राष्ट्रवाद के गर्त से निकले भारत में हिटलर न आ जाए. इस डर से बड़ा डर यह है कि भारत का अपना कोई मॉडल नहीं है. हिन्दी बोलने से आप देसी नहीं हो जाते. सवाल है कि क्या आप पश्चिम के उन बड़े कॉरपोरेशन की ही भाषा हिन्दी में तो नहीं बोल रहे हैं. टगोर की इस बात पर सोचियेगा. आजाद देशों में ज्यादातर लोग आज़ाद नहीं हैं. वे माइनॉरिटी के तय लक्ष्यों की तरफ बढ़ते रहते हैं. वे अपने भावाप्रवाह का भंवरजाल बना लेते हैं और भंवर की गतिशीलता में एक शराबी की तरह झूमते रहते हैं और इसे ही आजादी मान लेते हैं. लेकिन दुर्भाग्य उनकी मौत के रूप में प्रतीक्षा कर रहा है. मानव का सत्य नैतिक सत्य ही होता है. उसकी मुक्ति आध्यात्मिक जीवन में होती है.

तो राष्ट्रवाद पर सोचिये. डरिये नहीं. इसका इस्तेमाल होने से बचिये. इसका बेहतर इस्तेमाल कीजिए. एक और किताब का नाम बता देता हूं. राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति, ये आशिस नंदी की किताब है. इसका हिन्दी में अनुवाद है और वाणी प्रकाशन ने छापा है.

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