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This Article is From Jul 22, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : रजनी अपने आप में फिल्म हैं?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 22, 2016 22:00 pm IST
    • Published On जुलाई 22, 2016 22:00 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 22, 2016 22:00 pm IST
उत्तर भारत में हीरो की कमी नहीं है, लेकिन रजनीकांत जैसा कोई हीरो नहीं है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि पूरी दुनिया में रजनीकांत सा कोई नहीं। 66 साल की उम्र में हीरो बने रहने का करिश्मा हिंदी सिनेमा के सुपर स्टार भी नहीं कर पाए। रजनी के दर्शक अब दर्शक नहीं रहे। फैन्स हो गए हैं। उन्हें चाहने की हद से भी ज़्यादा चाहते हैं। इस दीवानगी को क्या तर्क से समझा जा सकता है या बेहतर है कि समझना छोड़कर रजनी फैन्स ही बन जाया जाए। रजनी की फिल्में महान नहीं हैं मगर रजनी एक महान सुपर स्टार हैं। वे अपने आप में फिल्म हैं। कबाली का प्रोमो और गाने देखिए।

उनके जूते, पतलून की मोहरी, सूट, कमीज़ और कमीज़ का कॉलर। मेक अप मैन के कमाल से भरापुरा चेहरा, चश्मा। अंदाज़ ऐसा कि किसी कहानी का नायक नहीं, बल्कि किसी सूट के ब्रांड एंबेसडर हों। कैमरा उनके कपड़ों को ऐसे उभारता है कि उनकी तरह सूट सिलाने की चाह में न जाने कितने लोग सिलाई के बाद टेलर को पैसा देने से इंकार कर देंगे। हताश होकर टेलर की धुनाई ही कर बैठें। फिल्म में कबाली का कपड़ा कमाल का है। हमारी फिल्मों का हीरो अपने पहनावे से ही चाहने वालों को तरसा देता है कि ऐसा तो कभी सिलवाने से रहे, सो गुरु हम जो पहिने हैं उसे ही देखकर आहें भर लो। रजनीकांत को देखना जैसे गांव में आए दूल्हे को देखने जैसाक हो गया है। हिन्दी फिल्मों में भी कई हीरो लोग जेल से बाहर आए हैं। उन दुखियारों के साथ दिक्कत यह थी कि जब भी बाहर आए धारीदार पजामे औप टोपी पहनकर आए, लेकिन रजनीकांत जिस जेल से बाहर आ रहे हैं वो जेल कम दुबई का एयरपोर्ट ज्यादा लगता है। जूते का क्लोज अप ऐसे दिखाया गया है, जैसे सीधे रिलैक्सो, एक्शन, बाटा, लिबर्टी के शो रूम से बाहर आ रहे हैं। अपने हिन्दी सिनेमा के सुपर स्टार कालिया बनकर जेल की दीवार ही फांदते रह गए। तमिल फिल्मों के सुपर स्टार के कबाली बनते ही जेल की दीवार घिस कर चमकदार फर्श में बदल गई है। इस फर्श पर हिन्दी सिनेमा वाले कालिया साहब और जेलर साहब दोनों ही फिसल कर गिर जाते।

पर्दे पर रजनीकांत जितने भी स्टाइलिश लगें, पर्दे के बाहर उनके जैसा साधारण सा दिखने वाला स्टार शायद ही आपको भारत की किसी फिल्म इंडस्ट्री में मिलेगा। पर्दे पर पिछले 20 साल से वे जवान ही दिख रहे हैं। 150 से ज्यादा फिल्में करने वाले रजनीकांत पर्दे के बाहर जवान नहीं दिखते हैं। न दिखने की कोशिश करते हैं। विग तक नहीं लगाते। जैसा दिखते हैं वैसे ही पब्लिक में दिखते हैं। कोई लाम-काफ़, हवाबाज़ी नहीं। ऐसे आते-जाते दिखेंगे, जैसे अभी-अभी मंडी से गल्ला बेचकर आ रहे हो। कहने का मतलब है कि रजनीकांत कोई दिखावा नहीं करते हैं। बेहद साधारण कपड़े पहनते हैं। कबाली के शॉट में जिन कपड़ों में आप रजनीकांत को देखते हैं, असली ज़िंदगी में देखकर लगेगा कि नहीं रजनीकांत के पास अपना कोई सूट भी होगा। कोई टाई भी होगी, उनके वाड्रोब में। 66 साल की उम्र के किसी हीरो के लिए ऐसी दीवानगी हिन्दी सिनेमा में भी किसी ने नहीं देखी। अंग्रेज़ी सिनेमा का उतना ज्ञान नहीं है हमको।

रजनीकांत की फिल्म देखने वालों में पहले दिन पहला शो देखने वालों की एक लंबी-चौड़ी बिरादरी है। यह बिरादरी लंदन से मुंबई आ जाती है, सिर्फ पहले दिन का पहला शो देखने के लिए। अगर रजनीकांत की फिल्म इसी तरह रिलीज होती रहे तो भारत की सारी विमान कंपनियों का फायदा कई गुना हो जाएगा। यही नहीं, लोग फिल्म देखने के लिए रात भर जागते हैं। एक चैनल की रिपोर्टर ने कहा कि रजनीकांत अपने आप में देश हैं। उनके समर्थक रजनीकांत का झंडा और बैज लगाकर थियेटर जाते हैं। ये सब मैं अपने हिन्दी सिनेमा के स्टार या उनके फैन्स को दुखी करने के लिए नहीं बता रहा। दिल छोटा न करें।

बेंगलुरु में सुबह तीन बजे से ही शो शुरू हो गया था। चेन्नई में सुबह चार बजे और मुंबई के अरोरा थियेटर में सुबह 3 बजे से ही फिल्म दिखाई जाने लगी। केरल में लोग सुबह छह बजे के पहले ही सिनेमाघरों के बाहर कतार में लग गए थे। इसका मतलब यह हुआ कि लोग रात भर सोए ही नहीं। इतनी मेहनत तो लोग इम्तेहान के दिनों में नहीं करते हैं। सूरज उगने से पहले सिनेमा का शो चालू हो जाना और लोगों को पहुंच जाना कोई मज़ाक नहीं है। चेन्नई में रजनी फैन्स सिनेमा हाल के बाहर डांस करने लगे। थियेटर के अंदर भी लोग चीखने-चिल्लाने लगे। लंदन मलेशिया में भी फिल्म रिलीज़ हुई है। इस फिल्म में रजनीकांत मलेशिया के डॉन बने हैं। वहीं के मसीहा हैं। रजनी जैसे भारतीय मूल के विदेशी डॉन ही हम सबको अमेरीका के डोनाल्‍ड ट्रंप से बचा सकते हैं जो अपनी सीमाओं को इसलिए बंद कर देना चाहते हैं ताकि कोई रोज़गार के लिए अमेरीका न चला आए। कम ऑन रजनी सर, गो टू कैलिफोर्निया एंड बीट द ड्रम एंड ट्रंप। हिन्दी के दर्शक निराश न हो, फिल्म हिन्दी में भी रिलीज हुई है। थाई और जापानी के दर्शकों का भी ख्याल रखा गया है। कुल आठ भाषाओं में रिलीज की गई है।

ऐसा नहीं है कि रजनीकांत की फिल्म फ्लॉप नहीं होती हैं। बिल्कुल होती हैं। लिंगा को लेकर भी फैन ने खूब रतजगा किया था, मगर 40 करोड़ का नुकसान हो गया। यह मुमकिन है कि रजनीकांत की फिल्मों की कमाई गिनने में एप्पल का लैपटॉप क्रैश कर गया हो। कबाली तो 300 करोड़ ब्रांड एसोसिएशन से ही कमा चुकी है। रविवार तक के सारे शो बुक हैं, इसलिए 100 करोड़ और आ गया है।

इतना सब कुछ होने के बाद भी कई लोग शिकायत करते हैं कि थियेटर के भीतर लोग इतना चीखते-चिल्लाते हैं कि एक डायलॉग तक ढंग से नहीं सुन सकते। रजनीकांत को देखते ही ताली बजने लगती हैं, सीटी बजने लगती हैं। कई फैन्स ऐसे हैं जो पहले ही दिन देखते हैं और पहले दिन दो-तीन बार देखते हैं। इस बात का प्रमाण है कि जब रजनीकांत की फिल्म रिलीज होती है तब मां-बाप का भी कोई नियंत्रण नहीं रहता होगा या क्या पता मां-बाप भी किसी और थियेटर में देख रहे होते हैं। हमें इस दीवानगी को उल्लास और उत्साह से आगे जाकर देखना चाहिए। हम पत्रकार भी दूर से खड़े होकर इस प्रक्रिया को नहीं देखते हैं बल्कि टीवी के रिपोर्टर उसी भीड़ में शामिल हो जाते हैं। रिपोर्टर और दर्शक में कोई फर्क नहीं रहता। कई बार लगता है कि रजनी फैन को ही रिपोर्ट बनाकर भेज देनी चाहिए। पर ये होता है। फिल्म का मौका होता है। खुशी का मौका होता है। हम टीवी वाले थोड़े से, बिल्कुल थोड़े से बहक जाते हैं। यही तो काम राजनीति में भी करते हैं। जनता का व्यवहार भी कई बार फैन्स जैसा होता है, इसलिए हमारे नेता अब राजनीति में फैन्स पैदा करते हैं। सबको पता चल गया है कि जनता को फैन्स में बदल देने से वो यह नहीं पूछेगा कि फिल्म कैसी है। बस ये पूछेगा कि फिल्म कब आ रही है।

क्या रजनीकांत की फिल्म वाकई इतनी कमाल की होती है कि लोग काम-धाम छोड़कर रात दो बजे ही सिनेमा हाल पहुंच गए देखने के लिए। अच्छी फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते, रजनीकांत की फिल्म में फिल्म नहीं भी होती है तब भी लाखों लोग देखने चले जाते हैं। रजनीकांत की फिल्म समीक्षकों को ही फ्लॉप साबित कर देती है। एक चुटकुला भी है कि फिल्म रिलीज़ होगी और उसके बाद रजनीकांत समीक्षकों की रेटिंग करेंगे। रजनीकांत हाईस्पीड लतीफों के बादशाह हैं। वैसे, समीक्षकों ने भी रजनीकांत की फिल्म के बारे में कुछ कहा है।

-BollywoodLife.com ने लिखा है कि रजनीकांत की फिल्म में स्टाइल ही स्टाइल है। कुछ दम नहीं है। समीक्षक ने निर्देशक से पूछा है कि 'पा रंजीथ ये आपने क्या किया है। इतना हाईप, इतना हाई और नतीजा कुछ भी नहीं। कबाली ने निराश कर दिया।'

-स्क्रोल डॉ इन पर नंदिनी रामनाथ ने लिखा है कि कबाली से आप रजनीकांत को निकाल लीजिए, कुछ बचेगा नहीं। मद्रास जैसी फिल्म बनाने वाले पा रंजीत ने निराश किया है।

-दि वायर पर तनुल ठाकुर ने लिखा है कि कबाली हल्की फिल्म है। डॉन का पुराना फार्मूला अब चलता नहीं है।

-इंडियन एक्सप्रेस की शुभ्रा गुप्ता ने भी लिखा है कि कबाली बेकार फिल्म है। क्या हम ऐसे फार्मूले से थक नहीं गए हैं।

समीक्षकों का गुस्सा देखकर मुझे 90 के दशक में अमिताभ बच्चन की कुछ फिल्में याद आती हैं। जादूगर, तूफान, मृत्युदाता, टाइप की फिल्में, लेकिन बाद में अमिताभ बच्चन ने खुद को हीरो के भ्रम से मुक्ति पा ली और किरदारों के ज़रिए पर्दे पर आने लगे।

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