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This Article is From Sep 11, 2014

क्या दिल्ली में अल्पमत की सरकार ही विकल्प?

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 12:55 pm IST
    • Published On सितंबर 11, 2014 21:34 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 12:55 pm IST

नमस्कार मैं रवीश कुमार। दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर चल रही अटकलबाज़ियां अब चर्चाओं के गंभीर दौर में प्रवेश करने लगी हैं। पितृपक्ष में सरकार नहीं बन सकती, मगर बयान देने पर कोई रोक नहीं है। आज शीला दीक्षित ने कह दिया कि डेमोक्रेसी में जो इलेक्टेड सरकारें होती हैं वो ही सबसे अच्छी होती हैं। यदि इस स्थिति पर पहुंच गई है बीजेपी कि वो सरकार बना सकती है तो अच्छी बात है। एलिगेशंस खरीद फरोख्त के हमेशा ही लगते हैं। अगर वो बना देंगे तो फ्लोर ऑफ द हाउस पर उसको बहुमत साबित करना पड़ेगा। तो खरीद फरोख्त पर तो और कुछ नहीं तो यही कह दो।

ये और बात है कि उनकी इस राय से कांग्रेस ने किनारा कर लिया है। केरल के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद कांग्रेस ने शीला दीक्षित को जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जन्मशति मनाने की कमेटी का अध्यक्ष बनाया है। सरकार कैसे बनेगी इस पर शीला दीक्षित कहती हैं कि विधायक आएंगे तो किसी दूसरी पार्टी से, लेकिन जितना अभी तक मैं जान पाई हूं कि जो एमएलए है चाहे वो कांग्रेस का हो, बीजोपी का हो या आप का हो, कोई इतनी जल्दी चुनाव नहीं चाहते हैं। ये सोचना कि केवल खरीद के हो जाना, ये सही है या नहीं है, ये कहना मुश्किल है। मेरा ख्याल है, जहां तक मुझे मालूम है जो लोग मुझे बता रहे हैं कि सरकार कैसे बनेगी अब वो चुनौतियां तो माइनोरिटी गवर्नमेंट की रहेंगी। अब उसको ये पार कर सकेंगे या नहीं वो जाने।

उधर, आज के इकोनोमिक टाइम्स में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का इंटरव्यू छपा है। काफी लंबा है, लेकिन मैंने सिर्फ उसी हिस्से का यहां चयन किया है जिसका संबंध दिल्ली में सरकार बनाने या चुनाव से है। इस सिलसिले में इकोनोमिक टाइम्स की संवाददाता रोहिनी सिंह पूछती हैं कि
सवाल− क्या बीजेपी दिल्ली में ताज़ा चुनावा चाहती है या अपने दम पर सरकार बनाने का प्रयास करेगी।  
अमित शाह− दिल्ली में कोई चुनाव नहीं चाहता। पिछले एक डेढ़ साल में दो-दो नतीजे आए हैं। ये दोनों ही जनादेश बीजेपी के पक्ष में आए हैं। विधानसभा में हम सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरे और लोकसभा में सातों सीटों पर विजयी हुए। जनता का फैसला साफ-साफ हमारे पक्ष में है। राज्य के स्तर पर समस्या बहुमत की है। मुझे नहीं मालूम की कि बीजेपी को कौन समर्थन देगा या नहीं देगा, लेकिन अगर कोई बीजेपी को समर्थन देना चाहता है और वो अनैतिक तरीका नहीं है तो हमें क्यों उसका समर्थन लेने से इनकार करना चाहिए।

सवाल− तो बीजेपी दिल्ली में चुनाव को लेकर उदासीन क्यों है
अमित शाह− यह उदासीनता का सवाल नहीं है। हम मानते हैं कि दोबारा चुनाव कराने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि कम समय के भीतर पार्टी को दो-दो जनादेश मिले हैं।

12 दिसंबर 2013 को डॉ हर्षवर्धन ने दिल्ली के उप-राज्यपाल को चिट्ठी लिखी थी जिसमें एक पैरा में यह कहते हैं कि विधान सभा चुनावों के बाद भाजपा स्पष्ट जनादेश प्राप्त करके दिल्ली की जनता के चेहरे में मुस्कान बिखेरना चाहती थी। ऐसा नहीं हुआ क्योंकि बहुमत प्राप्त होने में मात्र चार सीटें कम रह गईं।

फिर इसके एक पैरा के बाद लिखते हैं कि दिल्ली की बुद्धिमान जनता ने हमें शासन करने का जनादेश दिया है, लेकिन पूर्ण बहुमत न होने की दशा में मैं और मेरी पार्टी राजनैतिक आदर्शों की उच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए नैतिकता के आधार पर विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे।

जो नैतिक और पारदर्शी तरीका पिछले साल नहीं था, क्या अब उसका इंतज़ाम हो गया है। क्या नैतिक तरीके का यह मतलब है कि विधायक चुनाव नहीं चाहते कुछ इस्तीफा दे दें या मतदान के समय नज़ला ज़ुकाम का बहाना बनाकर गैर हाज़िर हो जाएं।

उधर आम आदमी पार्टी ने प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष और अपने विधायक की बातचीत का कथित स्टिंग कर खरीद फरोख्त का आरोप लगाया तो टीवी चैनलों से लेकर अखबारों तक में कई पत्रकारों और जानकारों ने लिखा कि आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को पीछे धकेल दिया है। क्या अमित शाह का बयान बीजेपी को आगे बढ़ने के लिए नहीं कह रहा है कि जो हुआ बेहद मामूली घटना है।

स्टिंग के संदर्भ में इकोनोमिक टाइम्स की रोहिनी सिंह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से पूछती हैं कि
सवाल− आम आदमी पार्टी ने जो स्टिंग ऑपरेशन किया है उस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है।
अमित शाह− मेरे पास सभी डिटेल नहीं है। हमारी प्रदेश इकाई इसकी जांच कर रही है। लेकिन इस तरह की बड़ी पार्टी में अगर कोई निचले स्तर का वर्कर उत्साह में कुछ कर बैठता है तब इसे पूरी पार्टी की छवि से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
सवाल− लेकिन वो तो आपकी राज्य शाखा के उपाध्यक्ष हैं−
अमित शाह− ठीक है। लेकिन दिल्ली तो एक तरह से कारपोरेशन जैसी है। नगरपालिका जैसी। छोटा राज्य है, इसलिए अगर कोई वर्कर अति उत्साह में कुछ कर बैठता है तो उसको पार्टी के साथ नहीं जोड़ना चाहिए।

क्या वाकई दिल्ली कारपोरेशन जैसी है। क्या राज्य के आकार के हिसाब से किसी कार्यकर्ता को छूट है कि वो अति उत्साह में आकर किसी विधायक के कथित रूप से ख़रीद फरोख़्त में शामिल हो जाए। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर 29 सितंबर 2013 को रोहिणी में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पूरे हिंदुस्तान में जो सबसे सुखी मुख्यमंत्री है वो आपके प्रदेश की मुख्यमंत्री है। सबसे सुखी। सुबह शाम उनको रिबन काटने के सिवा कोई काम नहीं होता है। ना उनको एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट देखना पड़ता है। ना उनको एनिमल हस्बैंड्री डिपार्टमेंटt होता है। ना उनको इर्रिगेशन की चिंता होती है। ना उनको मछुआरों का काम होता है। और अगर दिल्ली में रास्ते में कोई गड्ढे हैं तो सिर्फ एक बयान देना पड़ता है कि ये तो कारपोरेशन की ज़िम्मेदारी है। लॉ एंड आर्डर प्रॉब्लम होता है तो इतना ही कहना होता है कि ये दिल्ली पुलिस तो केंद्र सरकार के पास है। उनका कोई दायित्व ही नहीं है।

दिल्ली की कारपोरेशन जैसी और ऐसी सरकार जिसके मुखिया का काम फीता काटने के अलावा कुछ नहीं नहीं होता उसके लिए भी नैतिकता का पैमाना भी छोटा-मोटा रहना चाहिए। पर बीजेपी को नौ महीने क्यों लगे कि उसके पास जनादेश है। एक नहीं दो दो। जब इतना कह दिया तो साफ-साफ क्यों नहीं कहा कि हम सरकार बनायेंगे।

(प्राइम टाइम इंट्रो)

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