नमस्कार मैं रवीश कुमार। आज की शुरुआत अशोक वाजपेयी के जनसत्ता में लिखे एक लेख के एक प्रसंग से शुरू करना चाहता हूं। यह लेख 14 अगस्त के दिन छपा था जिसमें अशोक वाजपेयी भाषा की राजनीति और मीडिया की भूमिका के संदर्भ में अपने आईएएस के दिनों की याद में एक किस्सा सुनाते हैं, जब 1965 में वे तत्कालीन मध्यप्रदेश के महासमुंद में अनुविभागीय अधिकारी के रूप में तैनात हुए।
मुझे याद है कि महासमुन्द में जहां मैं अनुविभागीय अधिकारी के रूप में कुछ महीने तैनात हुआ था, एक बुढ़िया का ज़मीन संबंधी मामला फैसले के लिए मेरे सामने आया। दोनों ओर के वकील अपनी अटपटी और गलत अंग्रेजी में तर्क वितर्क कर रहे थे और उन्हें सुनकर मुझे लग रहा था कि फैसला उसके ख़िलाफ जाएगा। चूंकि वो बुढ़िया अदालत में ख़ुद मौजूद थी मैंने संयोगवश उससे पूछा कि उसे कुछ कहना है। अपने विपक्ष के वकील को लबार कहते हुए उसने अपनी छत्तीसगढ़ी हिन्दी में जो तर्क और तथ्य बताए जिनका उसके वकील ने ज़िक्र तक नहीं किया था।
उन्होंने मामला बिल्कुल पलट दिया और फैसला उसके पक्ष में गया। लबार मतलब झूठा। भोजपुरी में भी लबार की तरह एक लबरा शब्द है जिसका मतलब भी झूठा होता है। इस केस के बाद अशोक वाजपेयी ने बार एसोसिएशन के अध्यक्ष को बुलाकर कहा कि आगे से मेरी अदालत में सारी बहस हिन्दी में होगी क्योंकि यह मामला बताता है कि किसी व्यक्ति की इज्जत, संपत्ति, जान दांव पर लगी हो और उसके पैसे से वकील क्या कह रहा है। क्या तर्क दे रहा है क्योंकि वह सब अंग्रेजी में है। यह अमानवीय है।
ये ध्यान में रखियेगा कि एक घटना या उदाहरण से सारी तस्वीर का पता नहीं चलता है पर एक झलक ज़रूर मिलती है। इतना अंतर करना सीखना चाहिए। आज के इकोनोमिक टाइम्स में एक खबर छपी है कि सुप्रीम कोर्ट में वकील शिव सागर तिवारी ने जनहित याचिका दायर की है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी की जगह हिन्दी हो।
सुप्रीम कोर्ट ने गृहमंत्रालय और कानून मंत्रालय से इस बारे में पूछा है कि वो क्या सोचते हैं। 75 साल के तिवारी जी का कहना है कि फैसला अंग्रेजी में लिखा होने के कारण वादी प्रतिवादी यानी पक्ष विपक्ष के लोग समझ ही नहीं पाते। नियमों के मुताबिक किसी राज्य का राज्यपाल हाईकोर्ट में किसी भी भाषा के इस्तेमाल की अनुमति दे सकता है। हिन्दी या उस इलाके की स्थानीय भाषा।
जनहित याचिका में कहा गया है कि उच्च न्यायपालिका में आजादी के बाद सिर्फ पंद्रह साल के लिए अंग्रेजी लागू की गई थी, लेकिन आज तक अंग्रेजी जारी है। अंग्रेजी अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड में एक खबर छपी है, 7 अगस्त 2013 की। इसके अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐसी ही एक याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें अंग्रेज़ी को अदालतों की आधिकारिक भाषा के पद से हटाने की मांग की गई थी।
आज ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने एक फैसला किया है कि अब से सरकारी कामकाज में उन्हें हिज़ एक्सीलेंसी ऑनरेबल या महामहिम नहीं बुलाया और लिखा जाएगा। इसकी जगह पर नाम के आगे श्री लिखा जा सकता है और राज्यपाल महोदय या माननीय राज्यपाल लिखा जा सकता है। अक्तूबर 2012 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी तय किया था कि हिज़ एक्सलेंसी और महामहिम का इस्तेमाल नहीं होगा। यह एक अच्छा प्रयास है, मगर एक हद के बाद ये प्रयास टोकन से लगने लगते हैं।
ऐसे ही प्रयासों से जब यूपीएससी के छात्रों ने भारतीय भाषाओं के लिए प्रदर्शन किया तो उनकी लड़ाई लंबी हो गई। भारतीय भाषाओं के खिलाफ और अंग्रेजी के पक्ष में जमकर दलीलें दी जाने लगीं।
एनडीटीवी डॉट काम पर 19 अगस्त की एक रिपोर्ट है कि प्रियंका चोपड़ा की फिल्म मणिपुर की मैरी कोम पर बनी होने के बाद भी मणिपुर में रिलीज नहीं होगी, क्योंकि 2000 से मणिपुर ने बॉलीवुड की किसी भी व्यावसायिक फिल्म के रिलीज़ होने पर रोक लगा रखी है। सितंबर 2000 में अलगाववादी रेवोलुशनरी पीपुल्स फ्रंट ने हिन्दी सिनेमा या हिन्दी के किसी भी प्रकार के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग की थी। तब से राज्य में कोई भी हिन्दी फिल्म रिलीज़ नहीं होती है। आज ही एक और खबर आई कि अरुणाचल में हिन्दी काफी लोकप्रिय होती जा रही है।
फिल्म का प्रसंग तो यू हीं आ गया मगर इस विवाद में वो पीढ़ी है जो अंग्रेजी को ग्लोबल भाषा मानती है। अंग्रेजी इसलिए भी ठीक से सीखती है कि तकनीकी पढ़ाई हिन्दी में मुमकिन नहीं है। उसे लगता है कि सबकुछ अंग्रेजी में है। कई राजनीतिक दलों ने अंग्रेजी विरोध की लंबे समय तक राजनीति की मगर अब वही अंग्रेजी सिखाओ कार्यक्रम पर आ गए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही चीन के प्रधानमंत्री के सामने हिन्दी बोलते हैं, मगर उन्होंने भी मुख्यमंत्री के तौर पर सन 2007 में स्कोप नाम से एक कायर्क्रम शुरू किया था, अंग्रेजी सिखाने के लिए। गुजरात सरकार की वेबसाइट के अनुसार 2014 की शुरुआत तक चार लाख ग्यारह हज़ार युवा अंग्रेजी की ट्रेनिंग ले चुके हैं। अगर आपको यह कार्यक्रम देखते हुए डर न लगे तो एक तथ्य और है। पीटीआई की खबर के अनुसार नवंबर 2013 में मुलायम सिंह यादव संसद में अंग्रेजी के इस्तमाल पर रोक लगे। मुलायम ने कहा कि जो देश अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं वो ज्यादा प्रगति करते हैं। देश के नेताओं का हिन्दी को लेकर दोहरा चरित्र है। वे वोट हिन्दी में मांगते हैं और संसद में बोलते अंग्रेजी में हैं। अगर आप सब ने लोकसभा की कायर्वाही देखी होगी इस बार की तो आप महसूस कर पाये होंगे कि बहस में हिन्दी की प्रधानता रही है। ये बदलाव तो आया है और वो बिना अंग्रेजी के बैन किए हुए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने सरकारी लाइब्रेरी में अंग्रेजी के अखबारों पर ही रोक लगा दी थी। 1981 में पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में पांचवी तक अंग्रेजी की पढ़ाई नहीं होती थी। 1999 में इस रोक को हटाया गया और दूसरी कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू हो गई।
यहां वहां से उदाहरण इसलिए दिये ताकि पता चले कि अंग्रेजी का नाम आते ही हम किस किस तरह से विरोध करने लगते हैं। और जब हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं की बात होती है तो किन किन तर्कों से अंग्रेजी का पक्ष लेने लगते हैं। अब आते हैं कि क्या अदालतों में बहस हिन्दी या स्थानीय भाषा में होनी चाहिए। कई जगह पर होती है। 21 जनवरी 2013 के दिन टाइम्स ऑफ इंडिया में स्मृति सिंह की एक ख़बर छपी है।
एक आरोपी चंद्रकांत झा ने फैसले की कॉपी हिन्दी में मांगी तो अदालत में परेशानी खड़ी हो गई। हत्या के आरोपी झा के फैसले की सुनवाई दो दो बार इसलिए टल गई क्योंकि अदालत में कोई ट्रांसलेटर नहीं था जो अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद कर सके। अदालत में ट्रांसलेटर की व्यवस्था तो होती नहीं तब अतिरिक्त सेशन जज ने ज़िला जज को इसके लिए लिखा। पता चला कि ज़िला अदालत में भी ट्रांसलेटर यानी अनुवादक नहीं है। ज़िला जज ने लिखा कि बार बार दिल्ली सरकार से अनुरोध करने पर भी कुछ नहीं किया गया है। बाद में किसी तरह अनुवाद का इंतज़ाम किया गया।
आप सभी कि क्या राय है। भारतीय भाषाएं अपने लिए जनहित याचिका के ज़रिये कब तक लड़ती रहेंगी। क्या तिवारी की मांग सही है कि सुप्रीम कोर्ट में फैसला हिन्दी में लिखा जाए बहस हिन्दी में हो।
(प्राइम टाइम इंट्रो)