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This Article is From Aug 01, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : दलित आंदोलन के बीच आनंदी बेन का इस्तीफ़ा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 01, 2016 21:35 pm IST
    • Published On अगस्त 01, 2016 21:24 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 01, 2016 21:35 pm IST
इस्तीफा लिखकर फैक्स करने की बात तो हम सब सुनते रहे हैं मगर यह भारतीय राजनीति का पहला इस्तीफा है जो स्टेटस अपडेट की शक्ल में आया है. गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन ने फेसबुक पर अपने इस्तीफे का लंबा सा पोस्ट लिखा तो दो घंटे के भीतर 3400 से ज्यादा लाइक मिल गए और 1163 शेयर हो गए. दो घंटे में 896 कमेंट आ गए.

फेसबुक पर आनंदीबेन पटेल को 3 लाख 82 हज़ार लोग फॉलो करते हैं. ये सब इसलिए बताया कि अक्सर कहा जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बीच फैसले की भनक किसी को नहीं लगती है. केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद तक किसी को पता नहीं था कि स्मृति ईरानी का मंत्रालय बदला जा सकता है, एक मात्र कैबिनेट मंत्री के रूप में प्रमोशन पाने वाले प्रकाश जावड़ेकर को भी पता नहीं होगा कि वे स्मृति ईरानी की जगह लेने वाले हैं. यह फैसला ऐसा था कि कई दिनों तक अटकलें चलती रहीं कि स्मृति ईरानी को क्यों हटाया गया. यह उदाहरण बताता है कि प्रधानमंत्री के राजनीतिक फैसले अपने वक्त और अपने अंदाज़ में होते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति को उनके ट्वीटर हैंडल से समझने वाले नादान लोगों को अभी काफी कुछ सीखना बाकी है.

यह भी कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने अपने इस्तीफे की ख़बर फेसबुक पर पोस्ट करके क्यों दी. ये और बात है पोस्ट के तुरंत बाद रिकॉर्डेड बयान आ गया और अमित शाह ने पत्र मिलने की बात स्वीकार कर ली. फिर भी क्यों ये ख़बर उस तरह से नहीं आई जैसे स्मृति ईरानी के हटाये जाने की ख़बर देर रात आई थी. दिल्ली के सारे सूरमाओं के सूत्र कहां बेख़बर रहे कि आनंदीबेन अपने इस्तीफे का एलान ख़ुद करती हैं. कितना अंतर है स्मृति ईरानी के हटाये जाने और आनंदीबेन के हटने के फैसले की ख़बर सार्वजनिक होने में. दशकों तक गुजरात की राजनीति में एकमात्र और एकछत्र दिखाई देने वाले नरेंद्र मोदी उतने भी अकेले नहीं थे. उनके कुछ करीबी और विश्वासपात्र भी थे. तभी तो प्रधानमंत्री के दिल्ली आते ही अमित शाह दिल्ली आ गए और आनंदीबेन को गुजरात की ज़िम्मेदारी सौंपी गई जिसे प्रधानमंत्री मोदी बारह साल तक मेरा गुजरात कहते रहे. कोई अपने कलेजे को किसी के हाथ यूं ही नहीं सौंप देता है. इस ख़बर में जान तब आएगी जब कोई यह राज़ खोल देगा कि किसने कहा होगा प्रधानमंत्री से कि अब आनंदीबेन पटेल का वक्त आ गया है या आनंदीबेन ने ख़ुद अपना फैसला बताकर दोनों की उलझनों को खत्म कर दिया. क्या यह तीनों का साझा फैसला था. राजनीति में रिश्ते बहुत लंबे चलते हैं और जब किसी मुकाम पर पहुंच कर अलग होते हैं तो वो सिर्फ एक ख़बर नहीं होती है. घटना होती है.

1998 से आनंदीबेन पटेल मंत्री हैं और दो साल से मुख्यमंत्री. 2001 से गुजरात में राजनीतिक स्थायित्व है. गुजरात में 14 साल में सिर्फ एक बार मुख्यमंत्री का पद बदला वो भी तब जब उसके मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री हो गए. मौजूदा सरकार प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बनी थी. एक तरह से देखें तो 2012 से लेकर 2016 के बीच गुजरात को तीसरा मुख्यमंत्री मिलने वाला है. ज़माने बाद गुजरात में ऐसा हो रहा है. फेसबुक पर आनंदीबेन पटेल ने लिखा है कि पिछले तीस सालों में मुझे भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यकर्ता के तौर पर कई तरह की ज़िम्मेदारियां निभाने का मौका मिला है. मैंने संगठन और सरकार में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां निभाईं हैं. जिसे मैं अपनी किस्मत समझती हूं. महिला मोर्चा से लेकर मुख्यमंत्री के पद की ज़िम्मेदारी तक पार्टी ने मुझ पर विश्वास रखा इसकी मैं ऋणी हूं. कुशल संगठक दीर्घ दर्शता और कर्मठ आदरणीय श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहले संगठन में फिर सरकार में काम करने का मुझे मौका मिला. जिसकी वजह से लगातार मैं लायक बनी. पिछले 18 साल से गुजरात सरकार में अहम विभागों में काम करते करते अनेक रचनात्मक सुधार करते करते प्रजा के लिए योजनाओं के अमलीकरण और पारदर्शिता लाने के लिए मैं लगातार कोशिश करती रही हूं.

'नरेंद्र मोदी ने प्रथम महिला मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी 2014 में मुझको. श्री नरेंद्र भाई गुजरात के सीएम के रूप में 12 साल से अधिक कार्यरत रहे और उनकी जगह मेरा चयन हुआ जो आकाश में तारे गिनने जितना कठिन था. लेकिन मुझे इस बात का गर्व है कि उन्होंने गुजरात के विकास कार्यों को जो दिशा दी थी उसे तेज गति से बढ़ाने में मैं पीछे नहीं रही हूं.'

क्या वाकई बीजेपी में 75 साल का कोई बेंच मार्क बन गया है जिसके कारण मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को पद छोड़ना पड़ रहा है. वे नवंबर में 75 साल की हो रही हैं. लेकिन मोदी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री कलराज मिश्र पिछले महीने 75 साल के हुए हैं. क्या वे भी इस्तीफा देने वाले हैं. 75 का यह बेंचमार्क सबके लिए है या परिस्थिति के अनुसार है. राजनीति तभी दिलचस्प लगती है जब आप इसे किस्सों की तरह देखते हैं, जैसे ही आप सिर्फ ख़बर की नज़र से देखते हैं, राजनीति नीरस हो जाती है. गुजरात की राजनीति में आक्रामकता एक स्थायी भाव है. क्या जो भी नया मुख्यमंत्री होगा वो संगठन और सरकार में धमक रखने वाला होगा या दिल्ली से चलने वाला होगा. क्या दिल्ली से गुजरात चलाने का प्रयोग असफल रहा या आनंदीबेन अहमदाबाद से ही गुजरात चला रही थीं. उनके फेसबुक पोस्ट के बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का भी बयान आ गया.

अमित शाह ने आनंदीबेन पटेल के कार्यकाल को सफल बताते हुए कहा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी की विरासत को सफलता पूर्वक आगे बढ़ाया है. और अब उनके इस्तीफे पर फैसला संसदीय बोर्ड करेगा. क्या अमित शाह गुजरात के मुख्यमंत्री हो सकते हैं. कुछ महीनों तक मीडिया में चलने वाली चर्चाओं में अमित शाह का नाम भी खूब आया करता था. 5 जून को इकोनोमिक टाइम्स की हेडलाइन है कि नरेंद्र मोदी के गुजरात में सब कुछ ठीक नहीं है. क्या अमित शाह आनंदीबेन पटेल की जगह लेंगे. 2 जून को इंडियन एक्सप्रेस में गुजरात की राजनीति को सूक्ष्म निगाह रखने वालीं शीला भट्ट की खबर की हेडलाइन है कि बीजेपी गुजरात में सीएम खोज रही है, महत्वपूर्ण सवाल है कि कौन होगा. उनकी भी इस खबर में अमित शाह का नाम आता है. शीला भट्ट ने लिखा है कि बीजेपी के भीतर कई लोग मानते हैं कि गुजरात में अगर कोई अंतर ला सकता है तो वो सिर्फ अमित शाह ला सकते हैं. जिन नामों की चर्चा हो रही है उनमें से किसी का अमित शाह की तरह कमांड नहीं है. यह जून नहीं है. अगस्त है. इन दो महीनों में यूपी का चुनाव करीब आ गया है. यूपी में बीजेपी का कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के एलान की प्रतीक्षा कर रहा है, क्या अब ऐसा होगा कि पार्टी नेतृत्व में से एक खुद ही मुख्यमंत्री बनकर गुजरात चला जाए. यूपी जैसे चुनाव से पहले पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा बदलाव करने का जोखिम क्या प्रधानमंत्री लेना चाहेंगे. यह सवाल भी आएगा कि राष्ट्रीय स्तर पर अमित शाह का विकल्प कौन होगा.

गुजरात में बात सिर्फ मुख्यमंत्री बदलने की नहीं है. पटेल आंदोलन और दलित आंदोलन के कारण बीजेपी के आधार को चुनौती मिल रही है. दलित आंदोलन ने जिस तरह से अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है उसने बीजेपी के खेमे में घबराहट बढ़ा दी है. रोहित वेमुला के बाद दलित राजनीति में जो उबाल आया था उससे उबरने के लिए बीजेपी ने कितने कार्यक्रमों को लॉन्‍च कर दिया था. कुंभ में साथ नहाने से लेकर साथ बैठकर खाना खाने तक. लेकिन उना की घटना ने उन सारे कार्यक्रमों पर पानी फेर दिया है.

रविवार को अहमदाबाद में तीस से अधिक दलित संगठनों की इस विशाल रैली ने पार्टी को हैरान ज़रूर किया होगा कि इतनी बड़ी सभा तो कांग्रेस भी नहीं कर पाई होगी. बिना एक नेता या संगठन के इतने दलित दो दो बार अहमदाबाद में कैसे जुट गए. जुटे ही नहीं, गौ रक्षा के हिंसक और भावनात्मक सवालों का जवाब जिस तरह से गुजरात के दलितों ने दिया है उस तरह से शेष भारत के दलित नेताओं या कार्यकर्ताओं को सूझा तक नहीं. उन्हें रोहित वेमुला के वक्त भी समझ नहीं आया और स्मृति ईरानी के भावुक भाषणों में बह गए लेकिन गुजरात के दलितों ने इस मसले से भावुकता को उखाड़ फेंका है. एलान कर दिया कि अब से मरी हुई गाय उठाने का काम ही नहीं करेंगे और उठाना बंद भी कर दिया.

रोहित वेमुला के वक्त मायावती ने भी बोलने की औपचारिकता निभाई थी मगर उना की घटना ने उन्हें भी आक्रामक बना दिया है. वेमुला से लेकर ऊना तक यह सवाल जब ज़ोर पकड़ा कि दलित उत्पीड़न पर बीजेपी के दलित सांसद क्यों आवाज़ नहीं उठाते. इसका असर अब हुआ. दिल्ली में अनुसूचित जाति और जनजाति फोरम के 160 सांसदों ने बैठक कर प्रधानमंत्री को साफ संदेश दिया कि ऐसी घटनाएं बर्दाश्त नहीं की जाएंगी. इन 160 सांसदों में से बीजेपी के भी सांसद हैं. इन सभी ने दलगत भावना से ऊपर उठकर गुजरात के दलितों के फैसलों का समर्थन कर दिया और कहा कि वो मरी हुई गाय हटाने से लेकर हाथ से सीवर साफ करने का काम बंद कर दें. हैदराबाद के बीजेपी विधायक राजा सिंह ने बयान दिया कि उना में गौ मांस के आरोप में दलित की पिटाई सही हुई है तो बीजेपी सांसद उदित राज ने तुरंत बयान दे दिया कि इस विधायक को पार्टी से निकाल दिया जाना चाहिए. ज़ाहिर है गुजरात के दलितों की आवाज़ अब सबके कानों में गूंज रही है.

अगर दलित आंदोलन की प्रतिक्रिया में आनंदीबेन का इस्तीफा हुआ है तो क्या कोई दलित मुख्यमंत्री होगा. आनंदीबेन की जगह कौन लेगा. नितिन पटेल का नाम आगे चल रहा है. क्या नितिन पटेल उन सवालों का जवाब होंगे जिन्हें लेकर गुजरात में बीजेपी परेशान है.

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