नमस्कार मैं रवीश कुमार, भाषण प्रधानमंत्री का था लेकिन क्या यह भाषण प्रधानमंत्री का ही था? क्या क्या नहीं गया, इस पैमाने से प्रधानमंत्री ने दो साल के भीतर मची तबाही पर पलटवार करना शुरू कर दिया. उन तमाम सवालों को जो वाजिब थे और जायज़ थे प्रधानमंत्री ने भारत को बदनाम करने की नीयत से जोड़ दिया. जब लोग से लेकर डॉक्टर तक अस्पताल और आक्सीजन के बिना सड़क पर दम तोड़ रहे थे, तब सवाल उठना क्या क्या नहीं गया था. जब मरे हुए लोगों के शवों को जलाने के लिए लकड़ियां तक नहीं मिल रही थीं, तब इसकी बात उठाने का मतलब यह था कि क्या क्या नहीं कहा गया. जब मरने वालों की संख्या छिपाई गई, तमाम अखबारों ने सवाल उठाए और कई रिपोर्ट के आधार पर मरने वालों की संख्या में सुधार किया गया, तब क्या क्या नहीं कहा गया था. आज सुप्रीम कोर्ट में कोरोना की दूसरी लहर में मुआवज़े को लेकर सुनवाई चल रही है. अकेले गुजरात में नब्बे हज़ार से अधिक लोगों को मुआवज़ा दिया जा रहा है जबकि आधिकारिक संख्या दस हज़ार से कुछ अधिक ही थी. तो उस वक्त और आज भी मरने वालों की संख्या को लेकर सवाल उठाना क्या भारत को बदनाम करने के लिए क्या क्या नहीं कहा गया था. लाशें गंगा में बह रही थीं तो बहती लाशों के बारे में सवाल करना, भारत को बदनाम करने के लिए क्या क्या नहीं कहा गया था. क्या भारत की बदनामी इस बात से नहीं हो रही थी कि आम लोगों को आक्सीजन नहीं मिल रही है, लोग तड़प कर मर रहे हैं? और ये बात भारत की बदानामी की भावुकता से ज्यादा सरकारी इंतज़ामों की नाकामी की थी, ये नाकामी तब हुई जब कोरोना की लहर का एक साल गुजर चुका था और पहले दिन से कहा जा रहा था कि स्वास्थ्य में निवेश करना होगा और तैयारी करनी होगी. लेकिन प्रधानमंत्री ने आज उस तबाही को केवल भारत की बदनामी से जोड़ दिया और क्या क्या नहीं कहा गया से जोड़ दिया.
हम प्राइम टाइम का एक पुराना हिस्सा दिखाना चाहते हैं जिसमें हम आक्सीजन की सप्लाई को लेकर बनी कमेटी, सरकार के जवाब का हिस्सा दिखाया था. 9 जून 2021 के प्राइम टाइम का यह हिस्सा देखिए तो काफी कुछ याद आ सकता है. इसके छह सात मिनट में आप समझ पाए होंगे कि तब आक्सीजन संकट को लेकर क्या हुआ था. जब लोग मरने लगे तब यह सवाल विपक्ष ही नहीं जिनके घरों के लोग मर रहे थे या जो बीमार थे, सबके सवाल थे कि आक्सीजन का इंतजाम क्यों नहीं हुआ. प्रधानमंत्री ने तब यह नहीं बताया कि किस तरह बंगाल चुनाव में उनका मंत्रिमंडल व्यस्त था. दूसरी लहर की चेतावनी दी जा चुकी थी. खुलेआम कोरोना के नियमों का उल्लंघन होने लगा था.
लोकसभा में आज प्रधानमंत्री जब विपक्ष पर आक्रामक हो रहे थे तब क्या वे उस दौर की तस्वीर सही सही रख रहे थे जिसमें न जाने कितने लाख परिवारों के अपने तड़प तड़प कर मर गए और बिना आक्सीजन के मार दिए गए. उस दौर को आप किस किस तरह से याद करेंगे. क्या आपको याद नहीं कि सरकार ने कोर्ट में मुआवजा देने से इंकार कर दिया था. क्या आपको याद नहीं कि जब कोर्ट ने पूछा कि एक को टीका पैसे लेकर दिया जा रहा है और एक को मुफ्त, यह अंतर क्यों है तब सबके लिए मुफ्त टीका आया. क्या शुरू से ही मुफ्त टीका था? तीन जून 2021 को जस्टिस चंद्रचूड़ ने पूछा था कि टीके का रोडमैप कहां है. 18 से 44 साल के लोगों को पैसा देने पर क्यों मजबूर किया जा रहा है? यह तो मनमाना है और कुतर्कों पर आधारित है. तब जाकर सबके लिए मुफ्त टीका आया था. जब पूछा जाने लगा कि टीका कहां है, तब सरकार के पास क्या जवाब था? याद कीजिए. तब राज्यों से कहा गया कि आप टीका खरीद लें. लेकिन इसमें कई हफ्ते बर्बाद हुए, बाद में विपक्ष के मुख्यमंत्रियों ने पत्र लिखना शुरू कर दिया कि यह काम केंद्र का है कि वह टीका खरीदे. विदेशी कंपनियां राज्यों से करार नहीं कर रही हैं. तब जाकर फिर से टीका खरीदने का काम केंद्र ने लिया. लेकिन मार्च से लेकर मई तक अस्पतालों में जो तबाही थी उसे याद कीजिए तो आज का भाषण आपको शायद ही शानदार लगे.
यही नहीं, टीका बनाने वाली कंपनी Serum Institute of India भी कभी कह रही थी कि आर्डर नहीं है, तो कभी पैसा नहीं मिला है. प्रधानमंत्री ने कहा कि टीका स्वदेशी है. लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया का टीका स्वदेशी नहीं है, उसका विकास ब्रिटेन की संस्थाओं और उसके पैसे से हुआ है. को-वैक्सीन स्वदेशी है, लेकिन उसे लेकर ब्राजील में क्या विवाद हुआ, अमरीका और WHO ने कितने महीनों के बाद मान्यता दी, क्या ये सब बताया प्रधानमंत्री ने. क्या उन्होंने बताया कि जिन टीकों को स्वदेशी कहा जा रहा है, उसके विकास के लिए भारत सरकार ने कितना पैसा दिया था?
लोकसभा में प्रधानमंत्री ने कहा, “इस कारोना काल में कांग्रेस ने तो हद कर दी. पहली लहर के दौरान लाकडाउन की सलाह कर रहे थे. जो जहां हैं, वहीं पर रुके. सारी दुनिया में यह संदेश दिया जाता है क्योंकि मनुष्य जाएगा और कोरोना संक्रमित है तो कोरोना साथ ले जाएगा. तब कांग्रेस के लोगों ने मुंबई के रेलवे स्टेशन पर खड़े रहकर मुंबई छोड़कर जाने को प्रोत्साहित करने के लिए लोगों को प्रेरित किया. जाओ महाराष्ट्र का हमारे ऊपर बोझ है, वो ज़रा कम हो. जाओ तुम यूपी के हो, तुम बिहार के हो, वहां कोरोना फैलाओ. आपने यह बहुत बड़ा पाप किया. महा अपराध का मौहाल खड़ा कर दिया. आपने हमारे श्रमिक भाई बहनों को अनेक परेशानियों में धकेल दिया. उस समय दिल्ली में ऐसी सरकार थी, जो है, उस सरकार ने तो जीप पर माइक बांधकर दिल्ली की झुग्गी झोंपड़ी में गाड़ी घुमाकर कहा कि लोगों भागो. दिल्ली जाने के लिए बसें ने भी आधे रस्ते छोड़ दिया. उसका कारण हुआ यूपी में, उत्तराखंड में, पंजाब में, जिस कोरोना की इतनी गति नहीं थी, इतनी तीव्रता नहीं थी, इस पाप के कारण कोरोना ने इन्हें अपनी लपेट में ले लिया. कांग्रेस के इस आचरण से मैं ही नहीं पूरा देश अचंभित है.”
प्रधानमंत्री विपक्ष पर बेशक हमला करें लेकिन क्या यह तथ्य नहीं है कि सोनिया गांधी ने सरकार को सकारात्मक सुझाव देते हुए पत्र लिखे थे और कहा था कि सेंट्रल विस्टा का काम रोककर बीस हज़ार करोड़ से पलायन कर रहे मज़दूरों की मदद की जानी चाहिए. मनमोहन सिंह से लेकर राहुल गांधी तक के उठाए सवालों ने सरकार को जवाबदेही के कठघरे में खड़ा किया था या देश को बदनाम किया था? क्या बाद में सरकार ने कई काम वही नहीं किए जो विपक्ष की तरफ से कहे गए थे? क्या लाखो की संख्या में महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों से पलायन कांग्रेस के कहने पर हुआ, दिल्ली से मज़दूरों का पलायन दिल्ली सरकार के कारण हुआ? क्या इन सरकारों ने खाने खिलाने का इंतजाम नहीं किया?
प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर आरोप लगाया कि उन्होंने कुछ नहीं किया सिवाय भारत को बदनाम करने के, लेकिन क्या प्रधानमंत्री अपने इस भाषण में विपक्ष के एक भी काम की तारीफ की? मुंबई के रेलवे स्टेशन पर कांग्रेस ने कितनों का टिकट कटवा दिया? और लाखों लोग जो देश भर से पैदल चलने लगे अपने गांव घरों की तरफ, क्या वो कांग्रेस के कहने पर गए या तालाबंदी के फैसले के कारण गए, उस समय याद कीजिए रेल गाड़ी का चलना बंद हो गया था. लाखों लोग पैदल चल रहे थे, क्या पैदल चलने का टिकट कांग्रेस ने कटवाया था? पलायन इसलिए हुआ था कि अचानक तालाबंदी हुई थी. लोगों के काम धंधे बंद हो गए थे. उनके रहने खाने का कोई प्लान नहीं था. यही नहीं, महाराष्ट्र में ट्रेन की पटरी पर चलते मध्यप्रदेश के इन मज़दूरों का टिकट किसने कटवाया था, जो थककर पटरी पर सो गए थे और चलती ट्रेन के नीचे कट गए. इस महा प्रलय का सारा बोझ कांग्रेस पर डाल कर प्रधानमंत्री ने उस दौर को रिवाइंड कर दिया है तो आप रिवाइंड करके देख लें कि उस समय क्या हुआ था.
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कह दिया कि कई देश ऐसा कर रहे थे और WHO ने तालाबंदी का सुझाव दिया. यह बात पूरी तरह से गलत है. WHO ने कभी तालाबंदी की बात नहीं की. कभी सुझाव नहीं दिया. यही कहा था कि हर देश अपनी परिस्थिति के हिसाब से कदम उठाएं. WHO ने यही कहा था कि टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन की रणनीति अपनाएं. WHO ने यात्राओं पर बैन का भी सुझाव नहीं दिया था. बल्कि इसके सामाजिक आर्थिक नुकसान की चेतावनी ही जारी की थी. ज़रूर चीन ने किया था लेकिन कई देशों ने वुहान की तरह तालाबंदी नहीं की थी, जिस तरह पूरे भारत में तालाबंदी की गई थी. उस समय केवल ट्रेसिंग पर बात होती थी कि जिन्हें कोरोना हुआ है वो किस किस के संपर्क में आए उनका पता किया जाए. तब इतना भयानक नहीं फैला था. आराम से विदेशों से आए चंद लाख लोगों की ट्रेसिंग हो सकती थी. जिन देशों ने ट्रेसिंग ठीक से की उनके यहां ऐसी तबाही नही आई.
आज अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने यह भी कह दिया कि योग का मज़ाक उड़ाया गया. आप ठीक से याद करें योग का मज़ाक उड़ाया गया या योग के नाम पर कुछ भी सुझाव देने या दवा चलाने पर सवाल किया गया. क्या IMA ने कोरोनिल को लेकर जो पत्र लिखा था, सरकार से जो सवाल किया था क्या वो योग का मज़ाक उड़ाने के लिए था, प्रधानमंत्री को योग का मजाक उड़ाना याद रहा लेकिन यह सब क्यों नहीं याद रहता है.
हुकमत के हमराहियों को पता है कि समाज ने देखा है कि लाखों मरे हैं, मगर बताया गया हज़ारों में. उनके इस गुस्से पर पानी डालने के लिए तरह तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं. दूसरी लहर नहीं आई थी तब इन्हीं रामदेव की तथाकथित दवा कोरोनिल के लांच के समय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी गए थे. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने तो स्वास्थ्य मंत्री से कोरोनिल के लांच में जाने और कोरोनिल की विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठाया था. कोई एक्शन नहीं हुआ. विवादित आंकड़ा ही सही, 12 दिनों में पचास हज़ार की आधिकारिक संख्या ने बहुत कुछ बदला है. वर्ना रामदेव की तथाकथित दवा कोरोनिल का लांच करने वाले डॉ हर्षवर्धन ने रामदेव को पत्र नहीं लिखा होता और रामदेव भी माफी नहीं मांगते. तथाकथित दवा इसलिए कह रहा हूं कि मोदी सरकार के दो दो मंत्रियों के लांच करने के बाद भी मोदी सरकार ने इस दवा में भरोसा नहीं जताया है और ICMR ने अपनी गाइडलाइन में इसका ज़िक्र नहीं किया है. जिस तरह रेमडिसिवर और प्लाज़मा को लेकर बहुत महीनों बाद ICMR ने कहा कि ये उपयोगी नहीं है. जितने आत्मविश्वास से रामदेव एलोपैथी को स्टुपिड कह देते हैं, शायद उतना आत्मविश्वास ICMR में नहीं है कि कह दे कि कोरोनिल का सेवन न करें या यही कह दे
4 मई 2021 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि हमें इस बात का बहुत दर्द है कि अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई न होने से कोविड के मरीज़ मर गए. यह पूरी तरह से अपराध है और नरसंहार से कम नहीं है. उन लोगों के द्वारा नरसंहार है, जिन पर यह जवाबदेही थी कि आक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करेंगे. क्या यह भारत को बदनाम करने के लिए कहा जा रहा था या तबाही ऐसी थी कि सरकार की नाकामी पर सब चीख चिल्ला रहे थे. वक्त नहीं है कि कोरोना को लेकर किए गए प्रधानमंत्री के एक एक दावे की यहां समीक्षा की जाए. गोदी मीडिया करेगा भी नहीं. बस वो दिन न आए जब कोई कह दे कि दूसरी लहर में मरने वालों ने भारत को बदनाम करने की नीयत से जान दे दी. यूपी में दस फरवरी को पहले चरण का मतदान होना है. पश्चिम यूपी के चुनावों भाषणों में दंगों की याद दिलाई जा रही है. हिन्दी के अख़बार भी रोज़ बीजेपी के भाषण की एक ही हेडलाइन लगा रहे हैं.
दिन कोई सा भी हो, मगर अखबारों में इसी तरह की हेडलाइन हर दिन छप रही है. बीजेपी के नेता कुछ और भी कहते होंगे लेकिन हेडलाइन की भाषा देखकर लगता है कि कोई एक ही आत्मा है जो सारे अखबारों में हेडलाइन लिखने वालों के शरीर में समा गई है. बीजेपी की सभा की खबरें ज्यादा भी होती हैं और उनकी हेडलाइन मोटी मोटी भी होती है. बहुत ध्यान से इसमें आठ शब्दों में एक या एक से अधिक शब्द तो होते ही हैं. जैसे तुष्टीकरण, गुंडा, गोली, दंगा, माफिया, मंदिर और बुलडोजर. क्या हर दिन इसी तरह की हेडलाइन से पश्चिम यूपी को तपाने का प्रयास चल रहा है? पश्चिम यूपी इम्तहान के मुश्किल दौर से गुज़र रहा है. दंगों की याद दिलाने की कोशिशों के बाद भी संयम का परिचय दे रहा है. राजनीति के जानकारों को पश्चिम यूपी के इस संयम की सराहना करनी चाहिए. भले वे वोट किसी को भी दें लेकिन इस मुद्दे से उन्होंने अपने बच्चों को ही बचा लिया है वर्ना इसकी हिंसा से वोट किसी को मिलता है और घर किसी और का बर्बाद होता है.
राकेश टिकैत ने कहा था, “एक महीने से एक बिरादरी को टारगेट किया जा रहा है. क्या इस देश में एक ही बिरादरी है चुनाव में. क्या उसको बदनाम करने की साज़िश रची जा रही है. मुख्यमंत्री हो या बड़े लीडर हो, यमुना के खादर से शुरू करते हैं और मुज़फ्फरनगर पर जाकर वहीं घूम रहे हैं. शील्ड मिला है, एक स्टेडियम कराना चाहते हैं, वो मैच कराना चाहते हैं, हमने कहा कि भाई वो मैच अबकी बार मुज़फ्फरनगर की धरती पर तो होगा नहीं. ये ढाई महीने का प्रोसेसिंग किया है कि हिन्दू मुस्लिम जिन्ना कि आप वहां पर खेल लोगे, वो मैच मुज़फ्फरनगर या पश्चिम की धरती पर कहीं पर भी नहीं होने देंगे.”
इतनी स्पष्टता से विपक्ष के नेता भी सांप्रदायिकता के खिलाफ नहीं बोल रहे हैं जिस तरह से टिकैत बोल रहे हैं. वैसे यह काम चुनाव आयोग का भी है कि वह देखे कि किसी समुदाय को टारगेट कर वोट तो नहीं मांगा जा रहा है, नफरत की भाषा तो नहीं बोली जा रही है. लोक प्रतिनिधित्व कानून की धारा 125 में यह बात साफ साफ लिखी है. तीन से पांच साल की जेल का प्रावधान है. आज बिजनौर के वर्द्धमान कॉलेज के मैदान में प्रधानमंत्री की सभा होनी थी. इसके लिए एक हज़ार लोगों को आने की इजाज़त दी गई थी. इस सभा में मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से आ गए लेकिन प्रधानमंत्री का हेलीकॉप्टर नहीं उड़ सका. कारण बताया गया कि मौसम खराब था. प्रधानमंत्री ने वीडियो कांफ्रेसिंग से इसे संबोधित किया. जयंत चौधरी ने ट्विट किया है कि बिजनौर में धूप खिल रही है लेकिन भाजपा का मौसम ख़राब है. वीडियो कांफ्रेंसिंग से संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि अपने किसानों को और पूरे पश्चिमी यूपी को एक बात और याद दिलाना चाहता हूं. आज जो लोग आपको बहकाने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे ये जरूर पूछिएगा कि जब उनकी सरकार थी, तब वो इस इलाके में, आपके गांवों में कितनी बिजली देते थे. बिजली आने पर ज़ोर है लेकिन बिजली का मुद्दा कुछ और भी है.
29 दिसंबर और 14 जनवरी के अमर उजाला में बिजली से संबंधित दो खबरें छपी हैं. पश्चिम यूपी के साढ़े तीन लाख से अधिक किसानो ने नलकूप का बिजली बिल नहीं दिया है. नलकूप बिजली बिल का ही 1400 करोड़ बिल बाकी है. पश्चिम यूपी के 14 ज़िलों के पांच लाख उपभोक्ताओं ने बिजली बिल रोक लिया है. पश्चिम अंचल के विद्युत निगम को 4700 करोड़ के बिजली बिल वसूलने हैं. यूपी की बिजली वितरण कंपनियां एक लाख करोड़ के कर्ज़ में डूबी हुई हैं. इस पर कोई बात नहीं हो रही है.
संवाददाता रवीश रंजन ने गन्ना किसानों से बात की तो उन्होंने कहा, “हमारे गन्ना मिल पेमेंट नहीं दे रही है, सरकार बदलने वाली है भाजपा की तो पेमेंट दिलवा रहे हैं. वर्ना हम बैठे हुए हैं पेमेंट को, गन्ना मिल पेमेंट कहां दे रही है.”
रवीश- सरकार तो कह रही है कि बिजली दी है
किसान ने कहा, “कनेक्शन दिए बिल 200 का महीना हो तब लाइट होगी, अब ढाई हज़ार आ रहे हैं, अब 175 रुपये का बिल जो 60-65 कर दिया तो किसान कहां से देगा, अभी तो बिजली का बिल हाफ कर दिया, हाफ तो यूं किया है कि वोट लेनी है फिर चौगुना कर देंगे. पांच साल में पचीस रुपये बढ़े हैं. पांच रुपये पर साल का एवरेज आ रहा है. आप डीजल का भाव देख लो और आज भाव देख लो. दो सौ हैं हमारे इस गांव में जिनकी नौकरी नहीं है, क्या करेंगे सड़कें बनवा दी, क्या सड़कों को चाटेंगे जब रोटी नहीं मिलेगी.”
अब हम आते हैं स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट पर. 2015 में यह योजना लांच हुई थी और पांच साल में सौ शहरों को स्मार्ट बन जाना था. यह सातवां साल है, वैसे इसे जून 2023 तक के लिए बढ़ा दिया गया है. कहीं इसे भी अमृत काल में 2047 तक न बढ़ा दिया जाए. पश्चिम यूपी में स्मार्ट सिटी को लेकर मुद्दा क्यों नहीं है? आगरा, सहारनपुर, बरेली, मुरादाबाद और अलीगढ़ को स्मार्ट सिटी बनाई जानी थी. अलीगढ़ को 2017 में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में शामिल किया गया था. रवीश रंजन की यह रिपोर्ट देख लीजिए तो पता चलेगा कि स्मार्ट शहर को बनाया जा रहा है या सरकार खुद को स्मार्ट समझने लगी है?
लोकसभा में बीजेपी की सांसद पूनम महाजन वजेंदला राव ने स्मार्ट सिटी को लेकर सवाल किया है. तीन फरवरी को केंद्रीय शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने स्मार्ट सिटी पर विस्तृत जवाब देते हुए कई जानकारी दी है. इसमें बताया गया है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत सहारनपुर को अभी तक केंद्र ने 196 करोड़ ही दिए हैं और उसमें से 59 करोड ही खर्च हुआ है. मुरादाबाद को 196 करोड़ ही मिले हैं और उसमें से 91 करोड़ ही खर्च हुआ है. बरेली 196 करोड़ मिले और 171 करोड़ खर्च हुए हैं, वहीं आगरा में 392 करोड़ खर्च हुआ है.
स्मार्ट सिटी की वेबसाइट के अनुसार हर शहर को हर साल सौ करोड़ दिया जाना था यानी पांच साल में पांच सौ करोड़. इसमें राज्य सरकार को भी अपना हिस्सा देना है. हम केवल केंद्र के हिस्से की बात कर रहे हैं. आप देख रहे हैं कि न तो पूरा पैसा दिया गया और जो दिया गया है उसमें से भी कम खर्च हुआ है. इसमें केंद्र और राज्य को अपना अपना हिस्सा देना है. इसी जवाब में तीन फरवरी को केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने बताया है कि 100 स्मार्ट सिटी के लिए 28, 413 करोड़ दिए गए हैं जिसका 83 प्रतिशत खर्च हो चुका है.
लेकिन मार्च 2021 की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि पांच साल में 48000 करोड़ देने का वादा किया गया था. इस हिसाब से अभी तक 28,413 करोड़ ही दिए गए हैं. जितना कहा गया था उसका 59%. ये हाल है स्मार्ट सिटी का.
बात केवल खर्च की नहीं है. क्या ये शहर दुनिया के उन शहरों की तरह स्मार्ट हो चुके हैं जिनसे यह आइडिया लिया गया है. जो शहर स्मार्ट हुए हैं या होने वाले हैं उनके सरकारी स्कूल और कालेज और अस्पताल कितने स्मार्ट हुए हैं? स्मार्ट का इस्तेमाल एक और अर्थ में होता है. कोई कहता ही होगा कि मुझसे ज्यादा स्मार्ट मत बनो मतलब चालाक मत बनो. आपको तय करना है कि आपके शहर को स्मार्ट बनाया जा रहा है या कोई आपसे ज्यादा खुद को स्मार्ट बता रहा है. हम तो केवल बता रहे हैं.