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This Article is From Aug 24, 2019

अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के साथ 'दिल और दिमाग' से काम करने वाले नेताओं का दौर भी गया...

Prabhat Upadhyay
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 24, 2019 21:33 pm IST
    • Published On अगस्त 24, 2019 21:30 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 24, 2019 21:33 pm IST

अरुण जेटली नहीं रहे. महीने भर के अंदर बीजेपी को दूसरा बड़ा झटका लगा है. इसी महीने की शुरुआत में सुषमा स्वराज का निधन हो गया था. जेटली और स्वराज की अपनी-अपनी खूबियां थीं. नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली पिछली सरकार में जब जेटली (Arun Jaitley) मंत्री थे, तो वे अक्सर सरकार के संकटमोचक की भूमिका में नजर आते. मसला कोई भी हो, जेटली के पास जवाब जरूर होता. राफेल जैसे पेचीदा मामले पर जब विपक्ष ने मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा किया, तो रक्षामंत्री से पहले अरुण जेटली (Arun Jaitley) इन हमलों का जवाब देने के लिए मैदान में खड़े दिखाई दिये. और भी कई ऐसे मौके आए, जब जेटली ने सरकार की उखड़ती सांस को 'ऑक्सीजन' दी. हालांकि यह भी सही है कि जेटली ने अपनी सियासी पारी की शुरुआत छात्र जीवन से की. आपातकाल में जेल भी गए, लेकिन वे कभी 'जननेता' नहीं बन पाए. अपनी 4 दशक से ज्यादा की राजनीतिक पारी में वे एक बार लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन हार का सामना करना पड़ा. इसके बावजूद जेटली की चमक कभी फीकी नहीं पड़ी. 

ऐसे वक्त में, जब उनके साथ के कई नेता नेपथ्य में चले गए या ढकेल दिये गए, बावजूद इसके जेटली की आखिर तक पूछ रही. इस साल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जेटली ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए खुद कोई पद लेने से इनकार कर दिया था. खबर आई कि बीजेपी के तमाम नेताओं ने उनसे इस फैसले पर विचार करने का आग्रह किया. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनसे इस मसले पर बात की. हालांकि, जेटली के गिरते स्वास्थ्य ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी. अरुण जेटली आखिरी वक्त तक पार्टी में 'अहम' रहे, इसकी कई वजहें थीं. उन्हें कानून और सियासत की जितनी बारीक समझ थी, उससे कहीं ज्यादा समझ 'रिश्तों' की थी. वे 'लुटियंस' और 'रायसीना' दिल्ली के हर रास्तों और तौर-तरीकों से वाकिफ थे. कौन सा ताला किस चाबी से खुलता है, यह अच्छी तरह पता था. और जब आपके पास हर ताले की चाबी हो, तो सियासत में भला और क्या चाहिए!

जेटली के बरक्स सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj) का मिज़ाज बिल्कुल अलग था. वे 'लुटियंस दिल्ली' में रहीं, लेकिन यहीं की होकर नहीं रह गईं. अक्सर लोकसभा क्षेत्र से दिल्ली की दूरी तय करने के बाद नेताओं के लिए यह दूरी एक 'खाई' बन जाती है, जो न तो कभी पटती है और न ही इसे पाटने का प्रयास किया जाता है, लेकिन सुषमा स्वराज ने इस मामले में नजीर पेश की. उन्होंने अपनी सियासी पारी के दौरान 'राजनीतिक क्रूरता' को अपने पास फटकने तक नहीं दिया. केंद्र की पिछली सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए उन्होंने सात समंदर पार बसे भारतीयों के अंदर विश्वास पैदा किया कि एक ट्वीट पर देश उनके साथ खड़ा है, उनकी दुःख-तकलीफ सुन रहा है. ऐसे मौके भी आए जब सुषमा स्वराज को ख़ुद अपनी पार्टी के कई नेताओं की आलोचना झेलनी पड़ी और सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया गया, लेकिन इस तरह के हर मौके पर उनका दिल 'बड़ा' नजर आया. अब सुषमा स्वराज और अरुण जेटली दोनों नहीं हैं. उनके साथ ही 'दिल और दिमाग' से काम करने वाले नेताओं का एक दौर भी चला गया.   

(प्रभात उपाध्याय ndtv.in  में चीफ सब एडिटर हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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