'अध्यादेश लाने की प्रक्रिया अपने आप में लोकतांत्रिक है। अध्यादेश उचित है या नहीं है, बड़ी संख्या में अध्यादेश जारी करना मनोवैज्ञानिक असर खराब होता है। लोगों को लगता है कि सरकार अध्यादेश से चल रही है।'
1950 में लोकसभा के पहले स्पीकर जी वी मावलंकर ने जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करते हुए यह बात कही थी। अध्यादेश को लेकर इनदिनों कांग्रेस बीजेपी के बीच आए दिन बहस हो जाती है। दोनों यह नहीं बताते कि अध्यादेश सही है या ग़लत। कांग्रेस कहती है कि मोदी सरकार संसद से बचना चाहती है इसलिए अध्यादेश लाना चाहती है। बीजेपी कहती है कि आपने भी तो ऐसा ही किया था।
इस बहस से आपको यह नहीं पता चलता कि अध्यादेश को लेकर संवैधानिक स्थिति क्या है। 6 जनवरी के इंडियन एक्सप्रेस में नलसर युनिवर्सिटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने अध्यादेश पर एक लेख लिखा है जिसे गुज़रने पर पता चलता है कि अध्यादेशों की राजनीति को कांग्रेस बीजेपी से आगे जाकर देखना चाहिए। फ़ैज़ान मुस्तफ़ा से इस बारे में लंबी बातचीत हुई जिससे मुझे यह लेख लिखने में काफी मदद मिली।
यह सही है कि केंद्र सरकार ने 1952 से लेकर 2014 के बीच 668 अध्यादेश जारी किए हैं। लेकिन सिर्फ यही एक तथ्य सही नहीं है। अध्यादेश लोकतंत्र के खिलाफ है। पहले स्पीकर से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सब कह चुके हैं। राज्य सरकारों की हालत तो और भी बुरी होगी लेकिन पर्याप्त शोध न होने के कारण किसी के पास सही आंकड़े नहीं है। अगर आप इस बहस में दिलचस्पी रखते हैं और सरकार भी गाहेबगाहे अध्यादेश को लेकर भिड़ती रहती है तो अब उसी को राज्यवार बताना चाहिए कि किस राज्य में अध्यादेश ज्यादा जारी होता है और किस राज्य में नहीं।
फ़ैज़ान मुस्तफ़ा साहब ने मुझे बताया कि पुणे के डीसी बाधवा बिहार के भूमि कानूनों का अध्ययन कर रहे थे। उसी दौरान उन्होंने देखा कि बड़ी संख्या में कानून की जगह अध्यादेश के ज़रिये सरकारें हुकूमत कर रही हैं। वाधवा साहब अध्यादेशों पर शोध करने लगे। उन्हें पता चला कि 1967 से 1981 के बीच बिहार में 256 अध्यादेश जारी हुए जबकि विधानसभा ने 189 कानून ही बनाए। यह एक भयावह स्थिति थी। इतना ही नहीं 18 जनवरी 1986 को बिहार के राज्यपाल जगन्नाथ कौशल ने एक दिन में 58 अध्यादेश जारी किया था। यह अपने आप में रिकॉर्ड हो सकता है मगर इसके लिए ज़रूरी है कि आपको यह भी पता चले कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात और केरल में अध्यादेशों की क्या स्थिति है।
बहरहाल वाधवा साहब ने अपने शोध के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा कर दिया। बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1987 में व्यवस्था दी कि जब तक बहुत आपात स्थिति न हो अध्यादेश दोबारा जारी नहीं होना चाहिए। यानी एक अध्यादेश जब छह महीने बाद समाप्त होता है तो उसे फिर से जारी न किया जाए। पिछले साल जब मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाई तो उसके ख़िलाफ मशहूर वकील इंदिरा जयसिंह भी सुप्रीम कोर्ट चलीं गईं। अभी फ़ैसला आना बाकी है। वैसे आप पढ़ना चाहें तो वाधवा साहब ने एक किताब भी लिखी है, Endangered constitutionalism- documents of supreme court case।
हमारी संविधान सभा ने भी अध्यादेश के बेज़ा इस्तमाल को लेकर आशंका ज़ाहिर की थी। अमेरिका और इंग्लैंड में कार्यपालिका के पास अध्यादेश के अधिकार नहीं हैं। भारत में अध्यादेश कानून बनाने की प्रक्रिया का मज़ाक उड़ाने का ज़रिया बन गया है। इसके बारे में सही जानकारी के अभाव में यह मामला अक्सर केंद्र में कांग्रेस बनाम बीजेपी की सरकार का बन कर रह जाता है। जबकि राज्यों में अध्यादेश की वास्तविक जानकारी हम सबको इस गंभीर समस्या के प्रति बेहतर तरीके से जागरूक कर सकती है। बशर्ते हमारे ये दल बता दें कि वे अध्यादेश का समर्थन करते हैं या नहीं।
This Article is From Apr 21, 2015
अध्यादेश की राजनीति और आधी-अधूरी जानकारी
Ravish Kumar
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Updated:अप्रैल 21, 2015 21:10 pm IST
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Published On अप्रैल 21, 2015 21:05 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 21, 2015 21:10 pm IST
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