'आई लव मोहम्मद' अभियान प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं है, यह पतन का एक संकेत है. यह दिखाता है कि भारत का मुस्लिम समाज पैगंबर के चरित्र, शांति और नैतिक शक्ति के संदेशों से कितना भटक गया है. इनकी जगह खोखले प्रदर्शनों और भावनात्मक दिखावों ने ले ली है.
पैगंबर मोहम्मद ने कभी नहीं कहा कि अपनी आस्था को प्रदर्शित करने के लिए भव्य दिखावा किया जाए. उनका जीवन सत्य, न्याय, क्षमा और बौद्धिक स्पष्टता पर केंद्रित था. पैगंबर के प्रति सच्चा प्रेम दर्शाना है तो यह किसी दिखावे से नहीं बल्कि उसे जीवन में उतारने से ही संभव है. लेकिन आस्था आज बैनर लेकर सड़कों पर प्रदर्शन और नारेबाजी तक सिमट कर रह गई है. गहरी आध्यात्मिक और बौद्धिक शून्यता इसके पीछे छिप गई है.
इस त्रासदी की जड़ें गहरी हैं. कुछ ताकतवर धर्मगुरुओं ने दशकों से मुस्लिम समुदाय को जानबूझकर अज्ञानता के गर्त में फंसाए रखा है. शिक्षा, आत्मचिंतन और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देने के बजाय, उन्होंने कर्मकांड और अंधभक्ति की संस्कृति को पाला-पोसा है. क्यों? क्योंकि एक अनभिज्ञ समुदाय को कंट्रोल करना आसान होता है. उसे जब चाहे, भावनात्मक उन्माद के जरिए उकसाया जा सकता है, और राजनीतिक प्रभाव या व्यक्तिगत लाभ के लिए सौदेबाजी में इस्तेमाल किया जा सकता है. यह किसी भी लिहाज से आस्था नहीं है, ये धार्मिक लबादे में लिपटी चालाकी है.
जरा इसकी तुलना पैगंबर के आचरण से कीजिए. जब उन्होंने ताइफ का दौरा किया था तो उन पर पत्थर फेंके गए, उन्हें अपमानित किया गया. फरिश्ते जिब्राइल ने नगर को नष्ट करने की बात कही, लेकिन पैगंबर ने मना कर दिया. इसके बजाय उन्हें क्षमा करने और मार्गदर्शन देने के लिए प्रार्थना की. इसी तरह जब एक यहूदी महिला ने अपने परिवार को कष्ट में देखकर जब बदला लेने के लिए उनके खाने में जहर मिला दिया, तब भी उन्होंने प्रतिशोध के बजाय क्षमा को ही चुना. ये घटनाएं आक्रोश की नहीं बल्कि महान नैतिक नेतृत्व की मिसाल हैं.
मुस्लिम समाज का नेतृत्व आज भी आक्रोश पर फलता-फूलता है. वो पैगंबर की क्षमा का उपदेश नहीं देते बल्कि पीड़ा को भुनाते हैं. वे सच्चा ज्ञान नहीं बांटते बल्कि अपना आदेश मानने वालों की फौज तैयार करते हैं. वो समुदाय को ऊपर उठाने के बजाय उसे झुकाकर रखना चाहते हैं.
अगर मुसलमान वाकई पैगंबर से प्रेम करते हैं तो उनके चरित्र, ज्ञान और साहस में वही प्रेम दिखना चाहिए, न कि ऐसे सुनियोजित अभियानों में जो सिर्फ सत्ता के द्वारपालों की सेवा के लिए आयोजित होते हैं.
अब इस बात को खुलकर कहने का वक्त आ गया है. मुसलमानों की आस्था में पैगंबर के उसूल फिर से दिखने चाहिए, न कि मौलानाओं की राजनीति.
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