निर्भया कांड के तुरंत बाद हमने मुख्य न्यायाधीश से मिलकर निवेदन किया कि सुप्रीम कोर्ट के 35 से अधिक फैसलों का केंद्र और राज्य सरकार द्वारा प्रभावी पालन नहीं होता जो राष्ट्रीय समस्या है. निर्भया के बाद उपजे सोशल मीडिया के आंदोलन से कानून और सरकार तो बदल गए पर चार साल बाद भी व्यवस्था जस की तस क्यों है? आईए समझें हमारी पीआईएल में शामिल उन छह प्रमुख मांगों को, जिन पर सुप्रीम कोर्ट के जल्द निर्णय और सरकार की प्रभावी कार्रवाई से तस्वीर बदल सकती है-
आपराधिक जनप्रतिनिधियों फास्ट ट्रायल और वीआईपी सिक्यूरिटी की वापसी
सुप्रीम कोर्ट ने नवीनतम फैसले में हाई कोर्ट जजों को एयरपोर्ट पर सिक्यूरिटी जांच में छूट से इनकार करते हुए कहा कि सिक्यूरिटी के लिए स्टेटस का मापदंड नहीं हो सकता. देश में 31% से अधिक सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि दागी हैं, जिनमें से कई के विरुद्ध रेप और अन्य गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं. माननीयों द्वारा समाज में अपराध बढ़ाने के साथ आपराधिक लोगों को संरक्षण भी दिया जाता है. इनके विरुद्ध मुकदमों पर फास्ट ट्रैक ट्रायल से इन्हें शीघ्र दंडित करने की हमने मांग की. आपराधिक नेताओं और दबंगों की पुलिस सुरक्षा हटाने और विशेषाधिकार खत्म करने से रेप जैसे अपराधों में कमी आ सकती है, इसके बावजूद सरकार ने ऐसे लोगों के विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई नहीं की.
थकाऊ अदालती व्यवस्था से जनता हलाकान
अभियुक्तों को दंड नहीं मिलने और अदालत में जन समर्थन की कमी से निर्भया के माता-पिता निराश हैं पर अदालतों से तो देशव्यापी निराशा का माहौल है. निर्भया के बाद भी दिल्ली में हर रोज छह बलात्कार हो रहे हैं और इन मामलों को रोकने की व्यवस्था बनाने के लिए दायर कई पीआईएल पर चार साल बाद भी सुप्रीम कोर्ट को फाइनल सुनवाई का अवसर नहीं मिला. उत्तर प्रदेश की जुझारू महिला आईएएस अधिकारी प्रोमिला शंकर की पीआईएल पर बहस करते हुए हमने कई निवेदन किए जिसमें अपराध के बाद दंड देने पर जोर देने की बजाय, अपराध को रोकने की व्यवस्था बनाने का आग्रह भी किया. निर्भया के बहाने यह बहस भी होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की थकाऊ प्रक्रिया और सरकार द्वारा ऐसे मामलों में बिलम्ब पर जवाबदेही कैसे लागू हो?
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निर्भया के बाद कानून में बहुत कुछ बदला होगा, लेकिन समाज कतई नहीं बदला...
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अपराधियों का राष्ट्रीय रजिस्टर और सोशल मीडिया
आपराधिक मामले और पुलिस व्यवस्था राज्यों का विषय है पर सभी राज्यों में सही समन्वय के अभाव से केंद्र सरकार की इस पर महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख हमने मांग की कि रेप जैसे गंभीर अपराधों में सजायाफ्ता मुजरिमों का केंद्र द्वारा राष्ट्रीय रजिस्टर रखने से रिपीट अपराध पर रोक लग सकती है. डिजिटल इंडिया के तहत पुलिस की मदद के लिए इस डाटाबेस का ऐप बनाकर उसे अपडेट करने की हमारी मांग पर सरकार द्वारा प्रभावी कदम तो उठाने ही चाहिए.
इंटरनेट पर यौन अपराधियों तथा पोर्न वेबसाइटों पर बैन क्यों नहीं
शराब को रोड एक्सीडेंट की बड़ी वजह मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2017 से केंद्रीय और राज्य हाईवे के किनारे शराब की दुकानों को बंद करने का अभी हाल में आदेश दिया है. रेप की आपराधिक मानसिकता बढ़ाने के लिए पोर्न वेबसाइट और मोबाइल क्लिपिंग के बढ़ते चलन के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में कई साल से पीआईएल पेंडिंग है. डिजिटल इंडिया में तकनीकी विकास के बड़े दावे करने वाली सरकार ने इन वेब साइटों पर प्रतिबंध लगाने पर असमर्थता जाहिर की है और सुप्रीम कोर्ट में कई साल से मामला लंबित है. विदेशों में यौन अपराध के लिए दंडित व्यक्ति सोशल मीडिया के सदस्य नहीं बन सकते पर सरकार द्वारा भारत में यह व्यवस्था अभी तक लागू नहीं की गई.
आदिवासी इलाकों से महिलाओं की खरीद फरोख्त जीवन पर्यंत रेप के समान
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार पिछले साल देश भर में रेप के 34500 से अधिक मामले आए जिनमें 33098 मामलों में अपराधी लोग पीड़ितों के परिचित थे. इस पर पुलिस या कानून के बजाय समाज को ही सजग होना पड़ेगा. आदिवासी इलाकों में गरीबी का फायदा उठाकर महिलाओं को देह व्यापार में धकेलने के साथ शादी के लिए बेचना रेप से बड़ा अपराध है जिसके विरुद्ध सुदूर इलाकों में सरकार को प्रभावी कार्रवाई करनी ही चाहिए.
पुलिस की तफ्तीश, वकीलों के पैंतरे और आपराधिक विधि पर सुप्रीम कोर्ट में सवाल
गरीब लोगों को तो बड़े वकील नहीं मिलते जिसमे बेगुनाही के बावजूद कई बार वे दंडित हो जाते हैं. निर्भया कांड के अभियुक्तों के विरुद्ध पुलिस जांच पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त वरिष्ठ अधिवक्ता ने सवाल उठाकर मामले को नया मोड़ दिया पर सरकार अभी भी पुलिस सुधारों पर चुप है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल के मामले में आपराधिक कानून और प्रक्रिया में सुधार पर बल दिया. जनता के लिए महत्वपूर्ण इन सुधारों की जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ने की बजाय विधि आयोग की रिपोर्टों को सुप्रीम कोर्ट खुद क्यों नहीं लागू कराती?
निर्भया कांड के चार साल बाद यह समझना जरूरी है कि बड़ी घटना के बाद नए कानून की मांग व्यवस्था परिवर्तन करने के बजाय भ्रष्टाचार और जटिलता को बढ़ाते हैं. सरकार कानून की संख्या कम करते हुए उपलब्ध कानूनों का बेहतर पालन सुनिश्चित करे, अदालतें अपनी व्यवस्था में तेजी लाएं, तभी महिलाएं निर्भय होकर समाज को नई ज्योति दे सकेंगी.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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This Article is From Dec 16, 2016
निर्भया कांड - तीन माह में कानून में बदलाव पर अदालत चार साल में नहीं बदली
Virag Gupta
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 16, 2016 09:20 am IST
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Published On दिसंबर 16, 2016 03:36 am IST
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Last Updated On दिसंबर 16, 2016 09:20 am IST
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