सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में मीडिया द्वारा फोटोग्राफी निषेध है. इसके बावजूद समलैंगिकता पर फैसले के बाद पूरा परिसर इन्द्रधनुषीय रंग से सराबोर हो गया. दो वयस्क लोगों का निजी सम्बन्ध मानते हुए समलैंगिकता को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया परन्तु इस फैसले के लिए अपनाई गयी कानूनी प्रक्रिया पर अनेक सवाल खड़े हो गये हैं.
संविधान पीठ के फैसले में क्यूरेटिव याचिका का जिक्र क्यों नहीं
सुप्रीम कोर्ट में हर जज या पीठ का फैसला देश का कानून बन जाता है और जिनके खिलाफ अपील का कोई कानून नहीं है. 2013 के फैसले के विरुद्ध पुर्नविचार याचिका 2014 में निरस्त हो गई थी और उसके विरुद्ध क्यूरेटिव याचिकाएं 2016 से लंबित थीं. इस कानूनी प्रक्रिया को दरकिनार करके सुप्रीम कोर्ट ने नई याचिकाओं पर संविधान पीठ द्वारा सुनवाई का निर्णय लिया. क्यूरेटिव याचिकाओं पर फैसला लिए बगैर नई याचिकाओं पर संविधान पीठ का फैसला कानून सम्मत नहीं है.
सरकार द्वारा जवाब नहीं देने पर सुप्रीम कोर्ट जज की सख्त टिप्पणी
दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान यूपीए सरकार ने हलफनामा देकर धारा 377 को रद्द करने का विरोध किया था. विपक्ष में रहते हुए संघ और भाजपा ने भी समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने का विरोध करते हुए इसे अपसंस्कृति और बीमारी के तौर पर प्रचारित किया था. इन्ही विरोधाभासों की वजह से भाजपा सरकार ने इस मामले में लिखित जवाब दाखिल करने से इनकार कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड़ ने 180 पेज के फैसले में अनेक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए जवाब नहीं दायर करने के लिए सरकार की आलोचना की है. दिलचस्प बात यह है कि आईपीसी में राज्यों द्वारा भी बदलाव किया जा सकता है, इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सभी राज्यों का लिखित पक्ष नहीं सुना.
सुनवाई में वकीलों के अंर्तविरोध
अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने संविधान पीठ के सामने सरकार की तरफ से पैरवी करने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने क्यूरेटिव याचिकाओं में याचिकाकर्ता की पैरवी की थी. इसके पहले 2016 में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी और सन् 2012 में तत्कालीन एटार्नी जनरल वाहनवती ने सरकार की तरफ से पैरवी करने से मना कर दिया था. रोहतगी जी ने क्यूरेटिव याचिकाओं को अनुमोदित किया था और अटॉर्नी जनरल पद से त्यागपत्र के बाद उन्होंने निजी याचिकाकर्ताओं की तरफ से पैरवी भी किया. यूपीए सरकार ने इस मामले में विरोध करते हुए हलफनामा दायर किया था पर उस समय के मंत्री कपिल सिब्बल अब समलैंगिकता के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट में लामबंद दिखे.
समलैंगिको की बीमारी का क्या है सच
यूपीए सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के सम्मुख दिए गए हलफनामे में समलैंगिकता की वजह से एड्स, यौन बीमारियों और बच्चों के यौन शोषण की बात कही थी. समलैंगिकता के समर्थन में कई दशकों से संघर्ष कर रहे हमसफर ट्रस्ट के अशोक राव कवि ने इस फैसले के बाद इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इंटरव्यू में कहा कि समलैंगिक पुरूषों को एड्स होने का 20 गुना ज्यादा खतरा होता है. कवि ने यह भी कहा कि समलैंगिक वर्ग शोषण और दमन की वजह से अवसाद जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार है. एड्स जैसी बीमारियों के इलाज के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर केन्द्र और राज्य सरकार बड़े पैमाने पर सरकारी खजाना खर्च करती हैं. दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने अपने फैसले में समलैंगिकता को बीमारी या विकार मानने से इनकार कर दिया. यदि बीमारियों की बात मेडिकल रिपोर्ट में सच जाहिर होती है तो फिर मर्ज को संविधान के तहत मूल अधिकार कैसे बनाया जा सकता है. कानून की प्रक्रिया और संविधान से परे जाकर दिए गए इस फैसले से यह जाहिर होता है कि कानून के हाथ सचमुच लम्बे होते हैं. इस फैसले के बाद तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों से पीड़ित 25 करोड़ बेबस जनता भी अब कानून के लम्बे हाथों से निर्णायक मदद की उम्मीद क्यों न करे.
(विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
This Article is From Sep 07, 2018
समलैंगिकता के फैसले पर अनेक सवाल
Virag Gupta
- ब्लॉग,
-
Updated:सितंबर 07, 2018 18:46 pm IST
-
Published On सितंबर 07, 2018 18:46 pm IST
-
Last Updated On सितंबर 07, 2018 18:46 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं