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This Article is From Jun 08, 2022

केके: वे अपने गीतों के पर्दे में छुपे रहे

Madhavi Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    June 08, 2022 22:14 IST
    • Published On June 08, 2022 22:14 IST
    • Last Updated On June 08, 2022 22:14 IST

‘जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है'- केदारनाथ सिंह की यह कविता पंक्ति जैसे सिहराती कई अवसरों पर याद आती है. कई बार इसे जीवन में महसूस किया है. खून से जुड़े रिश्ते या दिल से जुड़े लोग जब अनंत यात्रा पर जाते हैं तो हम अपने को कितना असहाय, निरुपाय महसूस करते हैं. लेकिन केके का जाना एक अलग तरह की हूक पैदा करने वाला रहा. उनसे जैसे एक अहैतुक तादात्म्य है.

कुछ अफ़साने अफ़सोस का तर्जुमा होते हैं. मैं सौभाग्यशाली हूं जो मैंने उन्हें रूबरू देखा और लगभग सांस रोक कर सुना. मध्य प्रदेश की बीना रिफ़ाइनरी का वह आयोजन में भूल नहीं पाती. उनको सुनते हुए डरती थी कि कहीं एक भी बीट मिस न कर दूं. आज वे सांस रोके हुए हैं और मैं हर बीट मिस करती जा रही हूं. वाज़िब आजमाइशें हैं, ज़िंदगी सब पर नही आती.

केके उसी दिन से दिल मे घर कर गए थे जिस दिन पहली बार ‘तड़प तड़प के इस दिल से' सुना था- क्या विस्तार, क्या ही मर्मभेदी सुरों की उठान, अवसाद में डूबे पुरुष कंठ का निस्संग राग- सब एकदम अद्भुत पारलौकिक विशिष्टता से संयोजित! इस आवाज़ में सबको एकाकार करने की क्षमता थी. यहां गायक और अभिनेता की एकीकृत वेदना को सहज विलगित नहीं किया जा सकता- इस दैवी गान में जैसे पीड़ा मुखरित होती है! फिर कुछ अंतराल के बाद एक गीत आया आवारापन बंजारापन... फिर केके ने मुग्ध किया मानो वर्षों की एकांत साधना के बाद जीवन से बेजार निस्पृह साधक-सीधे दिल मे उतरती सधी संतुलित स्वर लहरी.

लेकिन एकाध नहीं, कितने सारे गीत हैं उनके जो सहसा याद आते हैं. फिल्म छिछोरे का- ‘कल की ही बात है बांहों में पहली बार आया था तू' या ‘काइट' फिल्म का ‘हद से आगे भी ये गुजर ही गया, खुद भी परेशां हुआ और मुझको भी ये कर गया, ‘ओम शांति ओम' का कितना कुछ कहना है फिर भी है दिल मे सवाल कई , सपनों में जो रोज कहा है वो फिर से कहूं या नहीं. ये सिलसिला जैसे ख़त्म होता ही नहीं.  

एक स्तर पर केके मुझे जगजीत सिंह की याद दिलाते थे. जगजीत सिंह की जिस एक ख़ूबी को मैंने बहुत गहरे महसूस किया, वह किसी शब्द विशेष पर उनकी अद्भुत पकड़ थी- उनकी आवाज़ में उसके घुमावों के साथ बनने वाली एक सम्मोहक गूंज मिलती थी. जहाँ हम सोचते हैं कि यह शब्द यहां नि:शेष हो रहा है, चुक जा रहा है, वहीं उसे एक नया विस्तार देने वाला स्वर दैर्घ्य चला आता है, एक घुमाव जो  गहनतम गाम्भीर्य और माधुर्य के अंतहीन विस्तार तक ले जाता है. जगजीत सिंह की यह ख़ूबी आपको केके के गायन में भी मिलती है. शब्दों के उच्चारण का यह अनोखापन ,स्वर का आरोह अवरोह या जिसे ‘वॉयस मॉड्युलेशन'  कहते हैं, इतनी ख़ूबसूरती से जगजीत जी के बाद केके में ही नजर आता है. शायद यह पुरुष स्वर में ज्यादा तीव्रता के साथ गूंजता है हालांकि ये उतार-चढ़ाव मुझे कभी कभी पापोन  के गायन में भी महसूस हुआ है और मोनाली ठाकुर के गाये ‘मोह मोह के धागे' में भी .  

इतने वर्षों के संगीत का सुरीला सफर बिना किसी विवाद के तय करना भी एक उपलब्धि है. अंतस का प्रेम जो बचपन से साथ रहा शायद वही प्रेरणा देता रहा, वही गीतों में प्रस्फुटित होता रहा, संवेदना के उच्चतम आवेग के साथ. मन की निर्मलता और औदात्य उनके सहज स्मित में परिलक्षित होती थी. चिर युवा आवाज में एक ठहराव था, एक सलाहियत थी, एक चार्म था, उनकी मोहक मुस्कान में, उनके मनमोहक गान में. पुरस्कारों में भी उनका नाम नही के बराबर देखा पर कोई शिकवा नही  शिकन नहीं. जैसे वे उदात्त कर्मयोगी हों- जीवंत ऊर्जा से लबरेज जो हर बार नए कलेवर में नए फ्लेवर के साथ सामने आता था- ऐसा चिरप्रणयी जो हर बार लुभाता था . ऐसे ही लोगों से जीवन की खूबसूरती है और आस्था उम्रदराज है .

केके अब भी सुनाई तो देंगे पर गाते हुए दिखाई नही देंगे. उन्हें रचते समय जो नरमाई बरती गई थी उन्हें मौत भी उसी नरमाई से बख़्शी गई. संगीत के आग़ोश में ही उनकी दास्तान मुकम्मल हुई. उनकी मासूम छवि ,विनम्रता कभी धूमिल न हो सकेगी . वे हमेशा याद आएंगे, आते रहेंगे- खामोशियो में, दर्द में , अकेली उदास रातों में, यहां हम सबके साथ, हमारे बन कर वे भी रहेंगे- सदा बन कर. वे जैसे अपने गीतों के पर्दे में छुपे हुए आवाज़ देते रहेंगे. 
अलविदा केके!

(लेखिका संगीत मर्मज्ञ और डीपीएस, उज्जैन की डायरेक्टर हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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