बच्चे चंट होते हैं, मासूमियत तो जवानी में होती है... बुढ़ापा बेरुखेपन और क्रूरता के बीच झूलता है, अधेड़ उमर काइयां होती है, पर मासूमियत तो जवानी में होती है... बचपन की मासूमियत अब सिंथेटिक है... क्यूटनेस मैनुफैक्चर्ड है... इंटरनेट का ऐल्गोरिदम मासूमियत प्रोजेक्ट कर रहा है... नाक बहने वाले, फूले पेट वाले कुपोषित बच्चों का फोटो पिछली बार कब पॉप-अप हुआ था याद नहीं... वे सर्च इंजन से बाहर जा चुके हैं... असल क्यूट तो जवानी होती है...
बचपन तो बिना मतलब के बाल नोचकर खाल में दांत घुसा देता है... अधेड़ गणित करता है ... बुढ़ापा स्वार्थी हो जाता है... पर मासूमियत सिर्फ जवानी के हिस्से ही तो आती है, जो हाथ पकड़े-पकड़े पूरी फिल्म निकाल देता है... पता होता है कि कुछ होना-जाना नहीं है, हथेली का पसीना पोंछ-पोंछकर हाथ में हाथ धरे रहता है... फ़िज़िकल नहीं, तो मेटाफ़िज़िकल रिलेशनशिप में संतुष्ट हो जाता है... जवानी क्यूट होती है... जवानी इतनी क्यूट और इनोसेंट होती है कि 'बुक-माई-शो' ही 'टिंडर' हो जाता है... बचपन के लिए 'किंडर जॉय' तो होता है पर संतुष्टि नहीं होती, जब उसके मन का खिलौना न निकले... बचपन पक्का खिलाड़ी होता है... फोकस्ड होता है... मन का न हुआ तो पांव पटककर यूरेशियन फ़ॉल्टलाइन को चनका देता है... एवरेस्ट को कसमसा देता है... पर जवानी अपना मन मसोसती है... ख़्वाहिशों को पोस्टपोन करती रहती है... धीरज उसका प्रारब्ध है... वह एक मुस्कुराहट पाने के लिए चार दिन बस स्टॉप पर खड़ी रहती है... ग्यारह किलोमीटर लंबा शॉर्टकट लेती है... रिक्शा के पीछे साइकिल चला-चलाकर सालों गुज़ार देती है... निष्काम कर्म करती है...
अधेड़ काइयां होता है, वह गणित करता है... नौजवान एक झलक में तृप्त हो जाता है... जवानी की तृप्ति गारंटी वाली होती है... भले ही ख़ुशी की उम्र तीन सावन की भी न हो, लेकिन एक सूखे गुलाब के साथ पूरी ज़िन्दगी गुज़ारने की कसम खाने का माद्दा रखता है... बचपन तो मतलबी होता है, उसे एटर्निटी से मतलब नहीं होता... दिन में सत्रह बार वह शाश्वत को निःश्वास करते हैं... जवानी की तरह फ़्यूचर टेंस में नहीं जीते हैं... उनको बस प्रेज़ेंट टेंस से मतलब होता है, जिसके लिए पूरी कायनात टेंस होती है... पास्ट टेंस को वह पास्ट में ही रहने देते हैं... लेकिन अधेड़ नहीं, वह हाथ मलता है... जवानी हाथ थामती है...
हृदय तो जवानी का ही निश्कलुष होता है, जो सबकी बात मान जाता है... दिनों को अच्छा करने वाले डिटर्जेंट को घोलकर पी जाता है और उफ़ तक नहीं करता... कभी कोशिश कीजिए बचपन को लैक्टोजेन या फैरेक्स खिलाने-पिलाने की... मजाल है कि चार बार टेस्ट करके पांच बार जब तक थूकेगा नहीं, सवाल ही नहीं उठता कि कुछ स्वीकार कर ले... और इस पर भी गारंटी यह नहीं कि पीठ पर थपकी देते वक़्त उल्टी नहीं कर देगा... जवानी के पास ऐसा विकल्प समाज ने नहीं दिया है... दिन अच्छे हों न हों, वह ख़ून के घूंट पीकर भी उलटती नहीं है... वह ज़ुबान की पक्की होती है... अधेड़ वादे से पलट जाता है... जवान मासूम है... वह अधेड़ उमर के बहकावे में आ जाता है... जो उसे सिखा देता है कि उसका जीना मरने के बाद शुरू होगा तो उस प्रचारित ज़िन्दगी की उम्मीद से भरा मर लेता है... बचपन शातिर होता है... वह हर तरीके पर सवाल करता है... जवानी का मन बिना झिझक गाय को मां मान लेता है, उस मां की रक्षा में भाई की जान भी ले लेता है... बचपन चवन्नी-छाप खिलौने के लिए हाथ तो भंभोड़ देता है, पर मज़ाल है कि बचपन अपनी मां के अलावा किसी और को अपनी मां माने... इस बीच अधेड़ अपनी मां की देखभाल और रक्षा को आउटसोर्स कर देता है...
जवानी अपने लिए नहीं सोचती है... उसे जो समझा दिया जाता है, उन आदर्शों के लिए सोचने लगती है, धर्म के लिए सोचने लगती है... उसे बता दिया जाता है कि जीने का एक ही तरीक़ा है, तो वह भेड़ बन जाती है... उसे बताया जाता है कि धर्म ख़तरे में है, तो वह भेड़िया बन जाती है, लोन वुल्फ़ बन जाती है... वह सिखाने वालों से नहीं पूछ पाती कि मैं क्यों, आप क्यों नहीं...?
भोलापन ही है जो जवानी को ये विश्वास करने पर मजबूर कर देता है कि भगवान को प्रेम कर सकता है पर इंसान नहीं... वो इसी भोलेपन में प्रेमी जोड़ों को दौड़ा दौड़ा कर मारता है... वो भी विश्वास कर लेता है कि देवियों को तो अपना वर चुनने का अधिकार होता है पर लड़कियों को नहीं... इसीलिए वो अगर किसी लड़की को अपने पसंद के लड़के के साथ कॉफ़ी पीते देखता है तो उसके बाल खींच के गिरा गिरा के मारता है, इतना मारता है जब तक लड़कियां अपने कपड़ों में पेशाब नहीं कर देती हैं... अधेड़ गणित करता है... बुढ़ापे में बेरुख़ी है...
भोलापन तो जवानी में दिखता है... वह बहता है - बहकता है... बूढ़ों का ब्रेनवॉश नहीं होता... बच्चों का भी नहीं... ब्रेनवाश केवल जवानी का होता है... उसे समझा दिया जाता है कि असल ज़िन्दगी धरती पर नहीं, मरने के बाद शुरू होती है, तो वह मर भी लेता है... उसे समझाया जाता है कि संगीत गुनाह है और उसका आनंद लेने वालों को सज़ा मिलनी चाहिए, तो जवानी अपने साथ उनकी भी जान ले लेती है... जवानी सवाल नहीं करती... उसका ब्रेनवॉश होता है... बचपन का नहीं, बूढ़ों का नहीं... अधेड़ काइयां होता है, वह तो ब्रेनवॉश करता है...
जवानी में मासूमियत होती है, तो वह आदर्श और धर्म के लिए लड़ता भी है... अधेड़ नहीं लड़ता... वह गणित करता है... वह जस्टीफ़ाई करता है... ज़िन्दगी को जस्टीफ़ाई करता है... मौत को भी जस्टीफ़ाई करता है... वह हत्या को भी जस्टीफ़ाई करता है, और आत्महत्या को भी... अपनी ज़िन्दगी की असफलताओं की मायूसी का बदला मासूमियत और सपनों की हत्या करवा कर लेता है... अधेड़ अपने मरे हुए सपनों का बदला मानवता से ले रहा है... धरती को उजाड़ बना रहा है... नौजवानों से नौजवानों को मरवाकर मासूमियत को ख़त्म कर रहा है... संभावनाओं का क़त्ल कर रहा है... उम्मीदों, सपनों और आदर्शों की माया में यकीन करने की क्षमता का भी क़त्ल कर रहा है...
मुझे अब अपनी उम्र समझ में नहीं आ रही है... मेरे लैपटॉप में इंक ख़त्म हो रही है, तो लिखना रोक रहा हूं... नहीं तो और बताता कि बचपन तो इंसानियत को घसीट रहा है, इंसानियत को चला तो जवानी ही रही है...
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...
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This Article is From May 24, 2017
जवानी में होती है मासूमियत, बचपन में कहां...?
Kranti Sambhav
- ब्लॉग,
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Updated:मई 24, 2017 08:47 am IST
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Published On मई 24, 2017 08:47 am IST
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Last Updated On मई 24, 2017 08:47 am IST
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