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This Article is From Mar 23, 2024

जोगीरा सारारारा : भारतीय लोकतंत्र का प्रतिनिधि पर्व

Keyoor Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 06, 2024 14:26 pm IST
    • Published On मार्च 23, 2024 08:00 am IST
    • Last Updated On मार्च 06, 2024 14:26 pm IST

रंग के बिना जीवन बदसूरत है. जीवन बेरंग नहीं होना चाहिए, इसलिए होली की रचना की गई होगी. होली जीवन के विविध रंगों को जीने का बहाना है. हर्बर्ट मार्क्यूज भी ऐसे बेरंग जीवन को 'वन डायमेंशनल मैन' या 'एक आयामी मनुष्य' कहते हैं. ऐसे जीवन का कोई अर्थ नहीं, कोई मतलब नहीं. मुझे भारतीय परंपरा में होली बेहद पसंद है. इसके कई कारण हैं. कुछ बचपन की स्मृतियां और कुछ वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ में इसकी महत्ता को लेकर. बचपन की स्मृतियां ऐसी कि शरारतों की स्वतंत्रता थी. जीवन का एक दिन ऐसा होता था कि जीवन बस हास्य, व्यंग्य रह जाता था. सारी महत्वाकांक्षाएं महत्वहीन हो जाती थीं.

दोस्त-दुश्मन सबका भेद मिट जाता था. बांस से बनी पिचकारी होती थी और उसमें रंग से अधिक पानी. और मज़ा तब आता, जब उस पानी की बौछार पर पड़ोसी की गाली की बौछार होती. उस गाली में आनंद इतना, मानो गाली नहीं, आशीर्वाद हो. धर्म-मज़हब से ऊपर उठकर जीने का अवसर होता था. मेरे मुस्लिम दोस्त होली से दो-तीन दिन पहले ही मेरे घर पर आ जाते. और फिर होली ऐसी होती कि क्या कहने! रंगों का ज़ोर इतना कि किसी की शक्ल पहचानने के काबिल नहीं रह जाती थी. कपडे फाड़-फाड़कर होली खेलते. गांव में घूम-घूमकर रंग लगाते. क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम, क्या बड़ा, क्या छोटा - सब बराबर.

मेरे पापा को रंगों से चिढ़ थी, सो वह होली के दिन अपने अख़बार और किताबों के साथ कमरे में बंद हो जाते. हमें हिदायत दी जाती कि उस कमरे की तरफ कोई न जाए. लेकिन वह कमरा भी खोल दिया जाता था, जब उनके कोई ऐसे मित्र होलय्या हुड़दंग के साथ दरवाज़ा खुलवाते. और पापा अपनी आंखें लाल-पीली किए बाहर निकलते. लेकिन उनमें रंगों की ऐसी पोत की जाती कि उनकी गुस्से से लाल आंखें भी रंगीन हो जाती थीं. मतलब होली पर ऐसा कुछ होता, जो आमतौर पर दुष्कर माना जाता था. उस दिन जो जैसा होता था, वैसा नहीं रह जाता.

समाज में आदमी का अपना अस्तित्व मिट जाता था - मिल जाता था. आदमी अपनी आदमियत के साथ जीता था. लेकिन कई ऐसे अवसर भी आते थे, जब राह चलते कुछ लड़के हमें रंग लगाने के लिए घेर लेते. लेकिन रंग लगाने वाले झुण्ड की अलग विशेषता थी. अगर आपने उसके सामने रंग लगाने से आनाकानी किया, तो फिर रंगों में आप घोल-मोल दिए जाते. उनसे बचने का एक ही तरीका था कि उन्होंने रोका नहीं कि हम उनसे पहले रुक जाते. और अपना गाल उनकी तरफ बढ़ा देते. बड़े प्रेम से वे थोडा गुलाल उस पर मलते और फिर मैं उनके गालों पर प्यार का रंग लगाता. और फिर सब जोगीरा- सारारारा.

होली मेरा इतना पसंदीदा पर्व है कि होली आने से कुछ सप्ताह पहले ही मैं अपने भीतर होली महसूस करने लगता हूं. जीवन बेहद सहज और सुन्दर दिखने लगता है. और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस पर्व में कुछ ऐसी खास बातें हैं, जो इसे लोकप्रिय बनाती हैं. आखिर क्या है इसमें? जो पहली बात इसमें है वह है बराबरी का बोध. इस दिन समाज अपनी बनावटी दीवारों को कमोबेश तोड़ देता है. अगर पूरी तरह नहीं भी तोड़ पाता, तो भी उस दिन वह तोड़ने का दिखावा ज़रूर करता है. आदमी का पद, जाति, वर्ग, उसकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, उसकी ख्याति सब समाज के सामने घुटने टेक देती है. और आदमी बड़ी आसानी से यह सब कर भी देता है, क्योंकि पद, उसकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, उसकी ख्याति ने उसके जीवन को थकाऊ बना दिया होता है, इसलिए वह उस एक दिन अपने जीवन को जीना चाहता है. सबके साथ-मिलकर बैठकर खेलना चाहता है - खाना चाहता है.

हास्य आदमी के अस्तित्व का अहम हिस्सा है. अगर इन्सान में हास्य नहीं, तो संभवतः इन्सान होने की काबिलियत उसमें नहीं. जानवर नहीं हंसते. उनमें व्यंग्य बोध नहीं होता. आदमी, आदमी इसलिए है कि उसमें हास्य है, उसमें व्यंग्य है. वह गुदगुदा सकता है. और इसलिए हास्य, बुद्धि और विवेक का विषय है. इसके लिए बुद्धि अनिवार्य है. होली की परम्परा निश्चय ही प्राचीन काल के विवेकी और बौद्धिक समाज के चिंतन का परिणाम होगा. ऐसा महान उत्सव बनाने-मनाने के लिए महान बुद्धि का होना अनिवार्य था.

रिचर्ड रिजमैन की चर्चित किताब है - 'द लोनली क्राउड'. यह किताब दुनिया में फैलते व्यक्तिवाद पर है कि कैसे यह मनुष्य से उसकी सामाजिकता छीन रहा है. इसी तरह उर्दू में एक पंक्ति है - "शहर में जितनी भीड़ भरोगे - उतनी ही तनहाइयां बढ़ेंगी..." आज प्रचंड नगरीय जीवन ने आदमी को आदमी से काट दिया है. मार्क्स के शब्दों में कहें, तो वह अलगाव का शिकार है. यह अलगाव व्यक्ति को व्यक्ति से अलग कर रहा है. उसकी सामजिकता लगातार मरती जा रही. और सामाजिकता की मृत्यु अंततः मानवता की मृत्यु ही है. होली अपने रंगीन हुड़दंग के बहाने, अपनी शरारतों के बहाने, हर साल एक प्रयास करता है कि समाज फिर जीवित हो उठे. होली सामूहिकता का उद्घोष है - वैदिक सूक्त की तरह - "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्... देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते..."

इसी तरह अत्यधिक तार्किकता के युग में आदमी के भीतर की संवेदना, उसकी कलात्मकता, और रचनाधर्मिता के लिए स्पेस घटता जा रहा है. अत्यधिक तार्किकता मनुष्यता का अंत है. आदमी में सनक, झक्कीपन नहीं हो, तो फिर वह मनुष्य नहीं, रोबोट है. होली लोगों को रोबोट होने से, मशीन बनने से रोकता है. यह स्वीकृति देता है कि आदमी अपनी सनक बनाए रखे, और रचनाशीलता के लिए सनक, पागलपन का सदुपयोग करे. और सबसे महत्वपूर्ण जो है, वह है होली में छिपे खेल भाव के होने का. होली एक खेल है. खेल का सम्बन्ध बचपन से है. लेकिन उम्र बढ़ने पर हम बूढ़े बना दिए जाते हैं, लेकिन भीतर एक बचपन हमेशा मौजूद रहता है. होली खेल के द्वारा उस बचपन को फिर से जीवित कर देता है. आदमी समाज द्वारा निर्धारित आयुजनित व्यवहार से हटकर बच्चों की तरह जीता है - निष्कलुष और निर्लिप्त भाव से. उभरते हुए खेल के समाजशास्त्र के लिए होली एक बड़ा सब्जेक्ट है.

ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व अगर कोई त्योहार सबसे अधिक करता है, तो वह होली है. यह भारत की विविधता को स्वीकारने का बड़ा उत्सव है. अलग-अलग रंग, सब मिलकर एक. और इसलिए मिथिला में होली इन्सान ही नहीं, श्रीराम भी खेलते हैं -

"रामक हाथ कनक पिचकारी,
सीताक हाथ अबीर झोली,
मिथिला में राम खेले होली,
मिथिला में राम खेले होली..."

केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं... अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं... इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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