रैली प्रधानमंत्री की थी और श्रोता राहुल गांधी थे

रैली प्रधानमंत्री की थी और श्रोता राहुल गांधी थे

आक्रामक अंदाज़ में तो बोलते ही हैं, लेकिन क्या आपको भी लगा कि मथुरा की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गुस्सा हावी था। वह एक सांस में ऐसे बोले चले जा रहे थे, जैसे सबको अपनी हर बात से ध्वस्त करने के इरादे से आए हों। एक दर्शक के नाते उनकी बातों को सुनते-सुनते मैं खुद हांफने लगा। सुनने वाले को मौका ही नहीं मिला कि ठहरकर सोचने के लिए कुछ साथ ले जा सकें। उनकी आगे की बात पिछली बातों को भी छोड़ती चली जा रही थी। मथुरा में जब प्रधानमंत्री पर कैमरे की निगाह गई, तब लगा कि वह खुश होकर बोलेंगे। गुलाब की मालाओं ने उनका मन थोड़ा तो अच्छा कर ही दिया होगा, इसलिए एक पल के लिए लगा कि आज वह एक प्रधानमंत्री की तरह बोलेंगे, न कि चुनावी रैलियों वाले मोदी की तरह, जब वह कहा करते थे कि क्या एक चाय वाले का बेटा प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। उनके पास भावुकता की शैली में भी सबको धराशायी करने की कला है, मगर तेज़ गर्मी में उनका गुस्सा और भी तेज़ होने लगा।

"जब तीन हेलीकॉप्टर साथ आ जाएं, तो समझ लेना अपना लाल आ गया है..." यूट्यूब पर बीजेपी के चैनल पर जब प्रधानमंत्री के आने से पहले स्थानीय नेताओं के भाषण सुन रहा था तो ऐसी अनेक पंक्तियां दिल को गुदगुदा गईं। स्थानीय नेताओं ने अच्छा बोला। वे भी प्रधानमंत्री की तरह बोलने लगे हैं। बार-बार 'मित्रों-मित्रों' कर रहे थे तो मोदी जी की तरह पूछ रहे थे कि ज़मीन ली जा रही है कि नहीं ली जा रही है। एक नेता ने कहा, 'मित्रों, आप रैली में इसलिए आए हैं कि आनंद लें और भविष्य का नरेंद्र मोदी बनें...' इसलिए आनंद लें और दूसरों को भी आनंद दें। कम से कम स्थानीय नेताओं ने सरकार की पहली सालगिरह के मौके को बेहतर समझा, लेकिन मोदी जी के आते ही माहौल आक्रामक हो गया। आनंद चला गया। न्यूज़ रूम के अनगिनत टीवी सेट पर उनकी आवाज़ गरज़ने लगी।

सालगिरह के जलसे में प्रधानमंत्री हंसते हुए कहते तो ज्यादा मार लगती। उनके मंच पर आने से पहले 'क्रीचर 3डी' के एक गाने पर पैरोडी चल रही थी। इसका मुखड़ा है, 'मोहबब्त बरसा दे न तू, सावन आया है, तेरे और मेरे मिलने का, ये मौसम आया है...' इसी की तर्ज पर नरेंद्र मोदी की शान में भी गाना बनाया गया था। मेरे दिमाग में असली गाने की तस्वीरों के साथ-साथ पैरोडी के बोल चलने लगे। लगा कि स्लो मोशन में कोई छाते को फेंकता भीगता चला आ रहा है। जूते की टाप से पानी की बौछारें खिल रही हैं। ऐसा हुआ नहीं।

भाषण में इतना गुस्सा था कि उनके निशाने पर धन्ना सेठ भी आ गए। वे केमिकल फैक्टरियों के धन्ना सेठों को चोर बताने लगे, जो यूरिया चोरी करके अपनी केमिकल फैक्ट्री में इस्तमाल करते आए हैं। काश किसानों का यूरिया चुराने वाले कुछ धन्ना सेठों के नाम भी बता देते, जिनके चलते यूरिया की मांग को लेकर किसान लाठी खा रहे थे। उन्होंने यह भी कह दिया कि बड़ी कंपनियां ज़्यादा रोज़गार नहीं देती हैं। यही बात तो उदारवादी नीतियों के आलोचक वर्षों से कह रहे हैं। क्या हमारे प्रधानमंत्री का आर्थिक नज़रिया बदल चुका है। उनके भाषण से लगा कि वह धन्ना सेठों से दूरी बना रहे हैं। पहली बार लगा कि प्रधानमंत्री पर राहुल गांधी हावी हो गए हैं। एक साल पहले तक ही वह राहुल गांधी को मात्र 'युवराज' या 'शहजादा' कहकर निपटा दिया करते थे। एक साल बाद वह राहुल गांधी के लगाए आरोपों से लड़ते हुए नज़र आए। लड़ते हुए नहीं, बल्कि जूझते हुए। इस हद तक कि किसानों के बीच जाकर भूमि अधिग्रहण बिल की खूबियों का बखान करना भूल गए।

वह अपने भाषण में जितना राहुल गांधी को खारिज नहीं कर रहे थे, उससे कहीं ज्यादा राहुल को नेता बना रहे थे। धन्ना सेठों की धुनाई करते हुए और बड़ी फैक्टरियां रोज़गार नहीं देतीं, कहते हुए राहुल गांधी की बात बोलने लगे। बल्कि उनकी पूरी सरकार राहुल गांधी के बयानों के पीछे भागती नज़र आ रही है। किसी भी मंत्री का बयान देख लीजिए, सब 'सूट-बूट की सरकार' वाले आरोप का ऐसे खंडन कर रहे हैं, जैसे कोई बड़ा घोटाला सामने आ गया हो। जैसे मोदी ने राहुल पर 'शहज़ादा' चिपका दिया था, वैसे ही राहुल ने 'सूट-बूट की सरकार' चिपका दिया है। यहां तक कि मंत्री और प्रवक्ता अब यह कहने लगे हैं कि अंबानी और अदानी किसकी सरकारों की देन हैं। हैरानी होती है कि कांग्रेस पर वार करने के चक्कर में बीजेपी भी इन उद्योगपतियों को संदेह के घेरे में ला रही है।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के एक बड़े हिस्से में इस बात पर ज़ोर दिया कि दिल्ली में पॉवर-सर्कल का चक्रव्यूह बना हुआ है। खुद को अभिमन्यु की तरह पेश करते हुए कहने लगे कि उन्होंने इस पॉवर-सर्कल के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है। अच्छे दिन कब आएंगे के जवाब में वह बुरे दिन चले गए का नारा देने लगे। उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री यह कहते कि अच्छे दिन आए हैं, और अभी और भी अच्छे दिन आएंगे, लेकिन वह एक नया नारा गढ़कर चले गए - 'बुरे दिन आए कि नहीं आए... एक साल में सत्ता के दलालों के बुरे दिन तो आ गए...' तो क्या यह मान लिया जाए कि सबके अच्छे दिन आ गए। प्रधानमंत्री ने ज़रूर अपनी सरकार की कई बड़ी योजनाओं को गिनाया, जिनके गुण-दोषों पर अलग से चर्चा की जा सकती है, पर क्या प्रधानमंत्री ने अच्छे दिन का नारा अब छोड़ दिया है। क्या चंद लोगों के बुरे दिन आने को ही सबके लिए अच्छे दिन का आगमन मान लिया जाए।

लगता है कि प्रधानमंत्री विपक्ष और राहुल गांधी के फेंके जाल में वाकई अभिमन्यु की तरह फंस गए हैं। अभिमन्यु की कहानी अंतिम विजेता की कहानी नहीं है। भारतीय मानस में अभिमन्यु एक ऐसा लड़ाका है, जो फंस जाता है, जो चक्रव्यूह के घेरे को तोड़ नहीं पाता है। अभिमन्यु तो शुरुआती चक्रव्यूह तोड़ भी देता है, लेकिन धारणा के इस खेल में अभिमन्यु बने प्रधानमंत्री पहले ही साल में फंसते नज़र आए। रैली प्रधानमंत्री की थी, मगर श्रोता राहुल गांधी थे। जैसे वह राहुल गांधी को सुना रहे हों कि उनकी सरकार किस तरह गरीबों की समर्थक सरकार है, 'सूट-बूट की सरकार' नहीं है।

सरकार का एक साल पूरा होने पर उपलब्धि और नाकामी पर संतुलित चर्चा नहीं हो रही है। दो खेमे हैं और दोनों अपने-अपने तर्कों से एक-दूसरे के 'सही' को भी 'गलत' साबित कर देते हैं। यही कोशिश होती है कि एक धारणा जीत जाए तो एक धारणा हार जाए। इससे सही तस्वीर कभी सामने नहीं आती है। कोई पक्ष अपनी कमी स्वीकार ही नहीं करता है। अनाप-शनाप तर्कों के जरिये खुद को सही बताया जा रहा है। हर बात पर प्रधानमंत्री को खारिज करने और नाकारा बताने का ही प्रयास हो रहा है। यह भी उचित नहीं है।

इसलिए मैं सरकार का एक साल पूरा होने पर एक सामान्य और तर्कसंगत समीक्षा की हद से आगे जाकर मूल्यांकन-मूल्याकंन खेलने का हिमायती नहीं हूं, बल्कि बोर हो गया हूं। मीडिया में जिस तरह का उतावलापन दिख रहा है, उससे तो यही लगता है कि उसके दिलो-दिमाग में मोदी का भूत सवार हो गया है। वे आएदिन मोदी की ताकत को कभी सर्वे, कभी डिबेट से कुरेदकर देखने लगता है कि अब भी वह ताकत बची है या नहीं। कभी जादू के नाम पर, कभी वादों के नाम पर मोदी नाम की ज्ञात-अज्ञात शक्तियों से भय खाता हुआ लगता है। बीजेपी भी उन्हें इसी तरह से पेश करती है, जैसे ताकत का दूसरा नाम मोदी ही हों। प्रधानमंत्री भी इस सिलसिले को आगे बढ़ा देते हैं।

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प्रधानमंत्री मोदी को सामान्य होने का वक्त मिलना चाहिए। उन्हें भी कुछ दिनों के लिए धारणाओं को बनाने वाले भांति-भांति के कारखानों से दूर रहना चाहिए। इस एक साल की एक उपलब्धि तो यह भी है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। अब मोदी जी आने वाले नहीं हैं, बल्कि आ चुके हैं और लगता नहीं कि जाने वाले भी हैं। कम से कम पांच साल तक तो नहीं। मुश्किल यह है कि व्यक्ति-केंद्रित राजनीति में व्यक्ति के अलावा कुछ होता भी तो नहीं है। इस दुष्चक्र में सब फंस गए हैं। अभिमन्यु भी और भीष्म भी। अर्जुन तो हमेशा ही फंसा हुआ था।