देश में भले चाहे जितनी परेशानी हो, हमारे नेताओं को कोई परेशानी नहीं है. वे आराम से अच्छे कपड़े पहन रहे हैं, उनके सूटकेस नए-नए से लगते हैं. चश्मा भी महंगा ही होता है, इस दल से टिकट नहीं मिलता है तो उस दल से ले आते हैं. आप लोकतंत्र पर बहस करते रहिए, आपके सारे संघर्षों का फायदा वो लोग उठा ले जाते हैं जो किसी संघर्ष में नहीं होते हैं, किसी सड़क पर नहीं दिखते हैं और आराम से टिकट लेकर पार्टी तक ख़रीद लेते हैं. जब भी आप नेताओं की तरफ देखेंगे तो खुद पर ही शक होने लगेगा कि ख्वामख़ाह हमीं परेशान हैं. अकबर इलाहबादी का शेर है, 'क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ, रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ.' जनता के लिए लोकतंत्र ख़तरे में है क्योंकि उसकी आवाज सुनी नहीं जाती, लीडर के लिए कोई ख़तरा नहीं है. इसीलिए आप किसी लीडर को सड़क पर संघर्ष करते नहीं देखेंगे, वह मंच पर आता है और चला जाता है.
किसान न तो राज्यसभा का टिकट ख़रीद सकते हैं न लोकसभा का. वो न तो दल बदल सकते हैं न ही कपड़े बदल पा रहे हैं. नाशिक से मुंबई तक की पदयात्रा करनी पड़ती है. 180 किमी की इस यात्रा में किसानों ने अपनी तकलीफ को फिर से जीया होगा, फिर से वे अपनी आवाज़ और इरादे को धार दे पाए होंगे. इन सब कामयाबियों को हासिल करते हुए जब मुंबई आते हैं तब कैमरों की निगाह उनके पैर के छालों पर पड़ने लगती है. लागत से डेढ़ गुना दाम मिल नहीं रहा है, ऐलान ही हो रहा है, आश्वासन ही मिल रहा है. पेंशन मांग रहे हैं मिल नहीं रहा है. बाज़ार की व्यवस्था मांग रहे हैं वो हो नहीं रही. कर्ज़ माफी मांगते हैं जिसका ऐलान तो होता है मगर मिलती नहीं है. शांतिपूर्ण रैली का नतीजा यह निकला कि सरकार ने ज़्यादातर मांगें मान ली हैं. 30 जून 2017 तक के कर्ज़ माफ होंगे. आपको याद होगा कि महाराष्ट्र में 24 जून 2017 को कर्ज माफी की घोषणा हुई थी. डेढ़ लाख तक के कृषि कर्ज़ के माफ किए जाने का ऐलान किया गया था. दावा था कि 89 लाख किसानों को फायदा होगा. राज्य सरकार के खजाने पर 34,000 करोड़ का बोझ पड़ेगा. लेकिन ज़मीन से लोग बताते हैं कि अभी तक सबको कर्ज़ माफी नहीं मिली है. अब एक नया ऐलान हुआ है कि 30 जून 2017 तक के कर्ज़ माफ होंगे. अखिल भारतीय किसान महासभा के बैनर चले इन किसानों ने अपनी यात्रा पूरी कर सरकार पर दोबारा असर डाला है कि पहले का वादा भूल जाने पर वे दोबारा लौट सकते हैं. दोबारा भूल जाने पर तिबारा लौट सकते हैं.
आज 9 मार्च को मुंबई में आया था, आंदोलनों के साथ राज्य सरकार ने चर्चा की. जो उनकी मांगें थीं उनमें से करीब करीब सारी मांगें मंज़ूर की थी. 90 प्रतिशत से ज़्यादा भूमिहीन आदिवासी थे. उनकी मांग थी उन्हें वन ज़मीन का पट्टा मिलना चाहिए, सरकार ने पहल लेकर आश्वासन किया है कि छह महीने में ऐसे सारे दावों को मंज़ूर करेंगे. कानून में जितनी ज़मीन की अनुमति है वो उन्हें दी जाएगी. इस बात को मान्य किया है.
15 दिसंबर 2006 यानी 11 साल पहले अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी कानून पास हुआ था. हुआ यह था कि जो आदिवासी सदियों से अपनी ज़मीन पर रहे थे, उन्हें अतिक्रमणकारी के रूप में देखा जाने लगा था. जंगल में रहने वाले आदिवासियों को अपनी ही ज़मीन और जंगल पर अधिकार नहीं था. फोरेस्ट अफसर समझता था कि वही जंगल का मालिक है, आदिवासी नहीं. 11 साल पहले पास होने के बाद इस कानून के तहत बड़ी संख्या में आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे मिले हैं. महाराष्ट्र के आदिवासी किसान संसद के पास किए गए अपने कानून के हिसाब से हक मांग रहे हैं. गढ़चिरौली और नंदुरबार में 2006 के हिसाब से ज़मीन तो मिली है मगर बाकी ज़िलों में नहीं हुआ है. 11 साल पहले पास हुए इस कानून का यह रिकार्ड है कि दो ही ज़िले में कुछ ढंग से लागू हुआ है, बाकी ज़िलों में हाल बहुत अच्छा नहीं है. क्या महाराष्ट्र सरकार छह महीने के भीतर आदिवासी किसानों को उनका हक दिला सकती है. इसी 6 मार्च 2018 की हिन्दू की खबर है. भारत सरकार के आदिवासी मामले के मंत्री ने राज्य के मुख्य सचिवों को निर्देश दिया कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत जितने भी दावे किए गए हैं उन्हें जल्दी निपटाया जाए.
इस साल 30 जनवरी तक 20 राज्यों में करीब 1 लाख 40 हज़ार दावे किए गए. इनमें से 64,328 यानी 46 प्रतिशत ज़मीन की पहचान कर ली गई. मध्य प्रदेश से सबसे अधिक दावा किया गया 27,275. इसके बाद छत्तीसगढ़ 14,161, ओडिसा 5964 और महाराष्ट्र 5748.
किसानों ने बोर्ड के परीक्षार्थियों का ख्याल रखा. उन्हें सुबह दिक्कत न हो इसलिए वे रात को ही चल कर मुंबई आ गए. बदले में मुंबई वालों ने भी किसानों का ख़ूब ख़्याल रखा. कोई चाय लेकर आया, कोई खाना लेकर तो कोई चप्पल लेकर आ गया.
अगर यह बदलाव है तो अच्छा है. कब तक किसानों को अनदेखा किया जाएगा. नीरव मोदी हज़ारों करोड़ लेकर भाग जाता है मगर किसान डेढ़ लाख के कर्ज के लिए फांसी चढ़ जाता है. हर बजट में आप सुनते होंगे कि किसानों के लिए कर्ज़ की राशि इस बार 10 लाख करोड़ होगी. क्या वो राशि उन्हें मिलती है. आप जानते हैं कि इस बार के बजट में कृषि ऋण का लक्ष्य पिछले साल के 10 लाख करोड़ से बढ़ाकर 11 लाख करोड़ कर दिया गया है. पी साईनाथ ने बीबीसी हिन्दी से कहा है कि नाबार्ड की 2017 की संभावित लिंक क्रेडिट प्लान के तहत जितना कर्ज़ दिया गया है उसका 53 प्रतिशत हिस्सा मुंबई और उसके उपनगरों को दिया गया है. जबकि मुंबई में कौन किसान है आप समझ सकते हैं. इन दिनों बैंक सीरीज़ के दौरान सैकड़ों बैंकरों ने हमें बताया है कि किसान जब कर्ज़ लेने आता है तो उसे मजबूर किया जाता है कि वह फसल बीमा भी ले और दूसरी बीमा पालिसी भी ले. अक्सर बीमा का प्रीमियम उसके कर्ज़ के ब्याज़ से ज़्यादा हो जाता है. अब यह बात कई प्रकार की रिपोर्ट में आ चुकी है कि किसानों को बताए बग़ैर उनके कर्ज़ से बीमा की प्रीमियम राशि ले ली जा रही है.
किसान बेसब्र हो रहे हैं. दिल्ली या राज्यों की राजधानी से किए जा रहे एक-एक वादे और दावे पर उनकी नज़र है. इसीलिए जब यूपी में वादे के हिसाब से आलू के दाम नहीं मिले तो किसान लखनऊ की सड़कों पर आलू फेंक आए. आपको याद होगा पिछले साल अप्रैल महीने में तमिलनाडु के किसान आए थे. वहां सौ साल में सबसे भीषण सूखा पड़ा था. इन किसानों ने मीडिया और सरकार का ध्यान खींचने के लिए क्या क्या नहीं किया. सड़क पर दाल चावल रखकर खाया. नंगे बदन हो गए, गले में आत्महत्या करने वाले किसानों का नरमुंड लटका लिया. अंतिम संस्कार तक किया. इसके बाद भी किसी पर कुछ असर नहीं पड़ा. वे दोबारा आए उन्हीं मांगों को लेकर कि लागत का डेढ़ गुना दाम मिले, पेंशन मिले और कर्ज़ माफी हो. 100 दिनों तक प्रदर्शन करने के बाद ये दिल्ली से चेन्नई लौट गए. आप सोच रहे होंगे कि वे किसान ग़ायब हो गए हैं. लेकिन नहीं. ये किसान तमिलनाडु के कन्याकुमारी से चेन्नई तक के मार्च पर हैं. रास्ते में पड़ने वाले गांवों में जाते हैं, किसानों से मिलते हैं, उन्हें अपने मुद्दे के बारे में समझाते हैं ताकि किसानों में जागरूकता फैले. रास्ते में ही सोते हैं. इन किसानों ने अभी हिम्मत नहीं हारी है. 1 मार्च से 22 किसान बस में सवार होकर तमिलनाडु के गांवों में गए हैं. दिल्ली को ख़बर भी नहीं है. ये लोग हर ज़िले में तीन दिन तक रुकते हैं. अभी तक 4 ज़िलों का दौरा कर चुके हैं. वे तमिलनाडु के 32 ज़िलों में जाएंगे.
आपको याद होगा पिछले साल जून के महीने में 1 से 10 जून तक किसान मध्य प्रदेश के मंदसौर में कर्ज़ माफी और लागत का डेढ़ गुना हासिल करने के लिए आंदोलन कर रहे थे. हम और आप स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के बारे में न जानें मगर भारत का किसान स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के बारे में जान गया है. आप लागत का डेढ़ गुना नहीं देकर किसानों को बेवकूफ नहीं बना सकते हैं. 2019 की यही बड़ी कामयाबी होगी कि किसान लागत का डेढ़ गुना ले लेगा. जिस तरह से वो हर लड़ाई हारने के बाद लौट रहा है, उससे यही लगता है कि एक दिन वह यह दाम ले लेगा.
इन्हीं मांगों को लेकर किसानों ने राजस्थान के सीकर में 1 सितंबर 2017 से 13 सितंबर 2017 तक आंदोलन किया. यह आंदोलन इतना अनुशासित था और अहिंसक था कि इसमें ज़िले और आस-पास के वे लोग भी आ गए जो कभी किसानों के आंदोलन में शरीक नहीं हुए थे. प्याज़ मूंगफली के दाम नहीं मिल रहे थे, लागत बढ़ गई थी. अखिल भारतीय किसान सभा ने ही सीकर में आंदोलन तैयार किया था. सीकर से सीपीएम के दो पूर्व विधायक अमरा राम और प्रेमा राम इसे लीड कर रहे हैं. इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से ज़्यादा थी. किसान मांग कर रहे थे कि बछड़ों की बिक्री पर रोक हटाई जाए. आवारा पशुओं का समाधान हो और 2017 में पशुओं की बिक्री पर लगी पाबंदी का कानून वापस हटे. ये साठ साल के किसान के लिए पांच हज़ार का मासिक पेंशन भी मांग रहे थे. सीकर के किसान आंदोलन की खूबी यह थी कि इसमें ऑटो चालक यूनियन, प्राइवेट टैक्सी यूनियन, एंबुलेंस वाले, आरा मशीन यूनियन ने भी रैली निकाली है या आंदोलन को समर्थन दिया है. सबका कहना था कि किसान के पास पैसे नहीं हैं तो उनके व्यापार पर भी असर पड़ता है. तब सरकार दबाव में आई और समझौता किया कि 50,000 तक का लोन माफ होगा. किसानों को 2000 रुपये पेंशन मिलेगा. सरकार को लगा कि किसान भूल गए. अब दोबारा नहीं लौटेंगे लेकिन जब राजस्थान सरकार का बजट पेश हुआ तब सारे किसानों का लोन माफ नहीं हुआ. सिर्फ सहकारिता सोसायटी से लोन लेने वाले किसानों का 50,000 का लोन माफ हुआ. लिहाज़ा 22 फरवरी 2018 को फिर से सीकर में आंदोलन शुरू हुआ और जयपुर चलो का नारा दिया गया. सीकर, नागौर, झुंझुनू और कोटा से किसान जयपुर की तरफ बढ़ने लगे. इनकी गिरफ्तारी हुई मगर सरकार को किसान नेताओं को छोड़ना पड़ा. समझौता हुआ मगर लागू होता नहीं देखकर किसान फिर से 1 मई को अपने अपने ज़िला मुख्यालयों का घेराव करने वाले हैं. जयपुर में किसानों को नहीं घुसने दिया गया तो किसानों ने तय किया है कि वे इन मंत्रियों को गांवों में नहीं घुसने देंगे.
बिहार के कई ज़िलों में मक्का की खेती करने वाले किसान परेशान हैं. मक्के की फसल में दाना ही नहीं आया है. कई इलाकों में मक्के में दाना नहीं आया है. किसानों का पैसा काफी डूब गया है. पता चल रहा है कि उन्हें घटिया बीज बेच दिया गया है. बिहार की मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार 1732 एकड़ में मक्के की फसल में दाना नहीं आया है. जागरण और प्रभात ख़बर की ख़बरों के अनुसार मोकामा में 500 एकड़ में लगी फसल बर्बाद हो गई. किसानों की पूंजी डूब गई है. किसानों ने अच्छी पैदावार के लिए हाईब्रीड बीज खरीदी, जिसके लिए कीमत चुकाई 1500 रुपये प्रति किलो. बीज कंपनी ने दावा किया था कि एक बीघे में 40 क्विंटल मक्का उगेगा. किसानों को कुछ हाथ नहीं लगा. एक बीघे में बीज पर ही किसानों के 6000 रुपये लग गए और बर्बाद हो गए. सरकार के मंत्री ने विधानसभा में कहा है कि किसानों के नुकसान की भरपाई की जाएगी. बीज कंपनियों से धोखा खाने पर किसानों को भी पता नहीं रहता कि कहां जाएं, क्या करें. उनके वोट लेकर कपड़ा और दिन रात पार्टी बदलने वाले नेताओं को भी पता नहीं रहता है कि वे इन मामलों में आवाज़ उठाएं. आपको याद होगा कि पिछले साल महाराष्ट्र के यवतमाल में कीटनाशक से 21 किसानों की मौत हो गई थी. कंपनियों के खिलाफ कुछ नहीं होता है.
इसी 6 मार्च को कृषि मंत्री ने लोकसभा में बताया कि चार साल में महाराष्ट्र में कीटनाशक से 272 किसानों की मौत हुई है. ये सरकारी आंकड़ा है. 272 किसान ऐसे ही मर गए, उनकी कीमत होती तो नेता खुद ही हंगामा करते. पर क्या आपने नेताओं को चिंता करते देखा है. इसीलिए आप जितने भी संकट में हों, हमारे देश के नेता मौज में हैं. अब वापस लौटते हैं मुंबई आए किसानों पर. न्यूज़मिनट की अपर्णा कार्तिकेयन ने एक अच्छा लेख लिखा है कि जब किसान किसी आंदोलन में आते हैं तो पीछे कितना नुकसान होता है.
हर दिन 30 से 35 किमी पैदल चलने वाले इन किसानों के बारे में इस तरह से भी देखा जाना चाहिए. हम कई बार उनके प्रदर्शन की लागत का ध्यान नहीं रखते हैं. ये वो किसान है जो अपने खेत में खुद काम करते हैं. खेत से एक दिन भी दूर रहना उनके लिए घाटे का सौदा है. आंदोलनकारी जानते हैं कि वापस जाकर कई दिनों तक भूखा रहना होगा. तमिलनाडु के किसानों को आंदोलन के बाद 20 हज़ार से लेकर 30,000 रुपये तक का घाटा हुआ. किसानों के पीछे उनके जानवर भी बीमार पड़ जाते हैं. देखभाल करने वाला कोई नहीं होता है. बहुत से किसान खेतिहर मज़दूर होते हैं. वे एक दिन नहीं कमाएंगे तो उनके परिवार का खर्च नहीं चलेगा. भूखे सोना पड़ेगा. ज़ाहिर है सरकार को सोचना चाहिए कि कब तक फसल की लागत का डेढ़ गुना नहीं देंगे, कब तक किसानों को पेंशन नहीं देंगे, आज न कल देना ही होगा, बेहतर है दे दिया जाए.
वर्ना किसान मुंबई आए हैं, कल दिल्ली आने लगेंगे, अपने अपने राज्यों की राजधानियों में आने लगेंगे. भारतीय किसान युनियन के नेता ने फोन किया था कि वे भी दिल्ली आने वाले हैं. इन किसानों की मांग भी महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश के किसानों से अलग नहीं है. लागत का डेढ़ गुना दिया जाए. प्रो रमेश चंद्रा कमेटी की रिपोर्ट लागू हो. आत्महत्या करने वाले किसानों के परिजनों के पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति बने. मौजूदा बीमा पॉलिसी किसानों के फायदे में नहीं है. इससे सिर्फ बीमा कंपनी को फायदा हो रहा है. खेती को विश्व व्यापार संगठन से बाहर किया जाए. गन्ने का बकाया भुगतान तुरंत किया जाए.
इन मांगों को देखकर यही लगता है. या तो कृषि मंत्री लोग कोई काम नहीं करते हैं या फिर वे इतना काम करते हैं कि उसके बाद भी समस्याएं ख़त्म नहीं होतीं.
This Article is From Mar 12, 2018
कहीं ये वादा किसान आंदोलन थामने के लिए तो नहीं?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 12, 2018 21:38 pm IST
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Published On मार्च 12, 2018 21:38 pm IST
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Last Updated On मार्च 12, 2018 21:38 pm IST
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