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This Article is From Feb 23, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या हमारे शिक्षा संस्थानों में बोलने की आज़ादी ख़त्म हो रही है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 23, 2017 22:14 pm IST
    • Published On फ़रवरी 23, 2017 22:01 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 23, 2017 22:14 pm IST
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक कॉलेज है रामजस. 1917 में राज केदार नाथ ने रामजस कॉलेज की स्थापना की थी. इस साल इस कॉलेज के सौ साल पूरे हो गए. उस वक्त हमारे पूर्वजों ने आज़ाद भारत का नारा लगाना शुरू कर दिया था. 'हमें चाहिए आज़ादी' वाला आजकल का नारा तो नहीं था मगर उस वक्त के हर नारे का यही मतलब होता था कि 'हमें चाहिए आज़ादी'. अब तो हमें चाहिए आज़ादी के नारे के पक्ष और विपक्ष में कई तरह के नारे हो गए हैं. जो वहां नहीं बोला जा सका, क्या वो यहां बोला जा सकता है. रामजस कॉलेज ऐसा वैसा कॉलेज नहीं है. एलिट माहौल के बीच खांटी मिज़ाज का बड़ा ही ऐतिहासिक कॉलेज है. कॉलेज की प्रस्तावना की भावना के तहत 21 फरवरी और 22 फरवरी को सेमिनार का आयोजन किया गया. भावना क्या थी कि छात्र एक्सप्लोर करेंगे. सेमिनार जैसा सोचा गया था उस तरीके से तो नहीं हुआ, मगर रामजस कॉलेज में विरोध की वो संस्कृति देखने को मिली, जो सेमिनार के विषय सूची में नहीं थी. सवाल सिलेबस से बाहर का आ गया.

कांफ्रेंस रूम के भीतर जो लड़के लड़कियां किस तरह पहुंचे और घिर गए, इसकी लंबी और भयावह कहानी है. मैं वैसे भी घटना के सभी पहलू की रिपोर्टिंग नहीं कर रहा बल्कि कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को यहां रख रहा हूं. हो सकता है इस मामले में कुछ चूक हो जाए. बहरहाल इतना आसान नहीं है कि छात्रों को खुलकर मीडिया के सामने आना, फिर भी कई सामने आ रहे हैं. उन्हें पता है कि बाद में जब वे अकेले पुलिस थाने बुलाये जायेंगे तो उनके साथ क्या-क्या होगा. रामजस के एक छात्र ने कहा भी कि अपने ही कॉलेज से पुलिस, चोर की तरह निकाल कर ले गई और जिन पर शक था कि वो मारने वालों में शामिल थे, वो हंस रहे थे. उनका मज़ाक उड़ा रहे थे.

पुलिस ने अपनी ग़लती मानी है तो मान कर चलना चाहिए कि बहुत बुरा होने के बाद ये कुछ अच्छा हुआ है. लेकिन वो शिकायतकर्ताओं से ही जांच में मदद की गुहार लगा रही है. भीड़ की जांच कभी नतीजे पर नहीं पहुंचती है. एबीवीपी और वामपंथी संगठनों ने पुलिस को अर्जी दी है, दोनों ने अपने अपने विरोध प्रदर्शन किए हैं. दिल्ली है तो इतना कुछ हो गया, जोधपुर के जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी को एक प्रोफेसर को इसलिए निलंबित कर दिया, क्योंकि उन्होंने निवेदिता मेनन को बोलने के लिए बुलाया था, कुछ नहीं हुआ. निवेदिता मेनन ऐसा क्या बोल देती है कि जिससे भारतीय गणतंत्र की बुनियाद हिल जाती. हम इतना कमज़ोर कब से हो गए हैं. भीड़ और हल्ला हो जाने के बाद आपको पता नहीं चलता कि किसने क्या किया. मूल सवाल से सब भटक जाते हैं और फिर बात जेएनयू पर पहुंचती है, कश्मीर पर जाती है, वहां से लौट कर देशभक्ति पर आ जाती है. इन बातों के ज़रिये मारने वालों को बचा लिया जाता है या फिर आरोप लगाने वालों को उलझा दिया जाता है. सिर्फ नारे सुनाई देते हैं. मारने वालों को इन नारों के सहारे बचा लिया जाता है. जेएनयू का ज़िक्र हुआ है तो लगे हाथ बता देते हैं. पिछले साल फरवरी की घटना थी. कितना बवाल हुआ था. सारा काम छोड़कर मीडिया और राजनीतिक दल आपस में भिड़ गए. जिस मुद्दे को लेकर अभी और इसी वक्त फैसला हो रहा था, वो अब कहां हैं.

व्यापम घोटाले में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे 634 छात्रों का एडमिशन कैंसल कर दिया. इनकी ज़िंदगी एक तरह से बर्बाद हो गई. इन छात्रों ने भी सिस्टम का फायदा उठाया और सिस्टम से जुड़े लोगों ने इन छात्रों के ज़रिये करोड़ों कमाए. क्या आपने किसी भी दल के छात्र संगठन को 634 मेडिकल छात्रों को शिकार बनाने वाले सिस्टम के खिलाफ भारत माता की जय या लाल सलाम सलाम के नारे लगाते देखा है. रोज़गार के सवाल पर किसी को आग उगलते देखा है.

उमर खालिद बेल पर है. एक साल से आरोप पत्र नहीं बना और न ही ट्रायल. तो क्या आप उसे सज़ायाफ्ता मान सकते हैं. उमर ख़ालिद बस्तर में आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर पीएचडी कर रहे हैं. इसी पर बोलने गए. अगर मौका मिलता तो वे क्या बोलते. रामजस कॉलेज में दूसरा भाषण माया राव का था. माया राव का विषय था बॉडिज़ इन प्रोटेस्ट. आम दर्शकों के लिए ये भारी भरकम टॉपिक लगेगा मगर इसे आप समझिये कि बहुत लोगों के साथ उनके शरीर की बनावट के कारण ही भेदभाव होता है. समलैंगिक समाज अपने अधिकारों के लिए जब लड़ता है तो उस लड़ाई के सेंटर में वो शरीर ही होता है जिसे लेकर हम तरह-तरह की बेतुकी धारणाएं बनाते हैं. माया कृष्ण राव थियेटर कलाकार हैं. उन्होंने रामजस में बताया कि आम विरोध प्रदर्शनों और थियेटर या नाटक के ज़रिये प्रदर्शनों में क्या अंतर होता है.

'आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट' नाम से अमरीका में ज़ोरदार प्रदर्शन हुआ था. एक विषय था आक्यूपाई कैंपस. एक महिला जब कैंपेस में आती है तो उसे बराबरी का मौका नहीं मिलता है. इस विषय पर बोलने वाली सृष्टि श्रीवास्तव का मानना है कि लड़कियों के लिए कैंपस को लोकतांत्रिक बनाया जाना चाहिए. श्रृष्टि 'पिंजड़ा तोड़' अभियान चलाती हैं. जैसे लड़के हॉस्टल में देर रात भी लौट सकते हैं, लड़कियां शाम को बाहर ही नहीं जा सकती। पिंजड़ा तोड़ इस तरह के विषय को उठाता है.

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