राजनीति में कब कौन सा मुद्दा किस पर भारी पड़ जाए, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल होता है. बिहार की राजनीति के केंद्र में एक बार फिर नीतीश कुमार आ गए हैं. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद उठे सियासी तूफान ने विपक्ष को एक और मौका दे दिया है कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को घेरे.इस बार निशाना है नीतीश कुमार का स्वास्थ्य. तेजस्वी यादव ने पत्रकारों से बातचीत के क्रम में कहा, ''अगर धनखड़ जी इस्तीफा दे सकते हैं तो नीतीश जी क्यों नहीं? जो एकनाथ शिंदे के साथ हुआ, वही नीतीश जी के साथ होगा." तेजस्वी के इस बयान से एक बात स्पष्ट है धनखड़ के इस्तीफे से विपक्ष को संजीवनी मिली है. विपक्ष अब नीतीश के स्वास्थ्य को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह दांव सही साबित होगा? कहीं विपक्ष के लिए यह आत्मघाती तो साबित नहीं होगा?
नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा तीन दशकों से अधिक समय की है. इस पूरे काल में उन पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा. 'सुसाशन बाबू' की छवि उनके कोर वोट बैंक में आज भी मजबूत है. विशेष रूप से महिला मतदाता, अतिपिछड़ा वर्ग और ईबीसी समुदायों में उनका प्रभाव आज भी बरकरार है. यह आवश्यक है कि विपक्ष नीतीश कुमार के स्वास्थ्य पर टिप्पणी करते समय सतर्कता बरते, क्योंकि ऐसे बयान उनकी व्यक्तिगत साख को चोट पहुंचा सकते हैं, जिससे संभवतः जनमानस में नकारात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है.
नीतीश मैदान में हैं, मंच पर हैं, मिशन पर हैं
एक तरफ विपक्ष नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठा रहा है, वहीं दूसरी तरफ आंकड़ें एक अलग ही कहानी बयां कर रहे हैं. नीतीश कुमार लगातार कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं. मई-जून की तपती गर्मी में भी नीतीश कुमार ने 79 से अधिक कार्यक्रम किए. हाल ही में वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी मंच साझा करते नजर आए. यही नहीं नीतीश विभिन्न इलाकों में लंबी जनसभाएं भी करते नजर आए. अगर हाल के प्रमुख कार्यक्रमों पर नजर दौड़ाएं तो नीतीश ने पटना में एलिवेटेड रोड और ओवरब्रिज का उद्घाटन किया, गंगा जल आपूर्ति योजना का निरीक्षण किया, नीतीश स्मार्ट विलेज योजना की घोषणा की, आधुनिक बस स्टैंडों के निर्माण का ऐलान किया और जिलेवार स्वास्थ्य केंद्रों की समीक्षा की. इन सभी कार्यक्रमों में नीतीश जनता से रूबरू हुए.

बिहार में एक कार्यक्रम में पीएम नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.
15वीं यात्रा के दूरगामी संदेश
नीतीश कुमार ने बीते साल के अंत में प्रगति यात्रा शुरू की थी. इस दौरान उन्होंने सभी 38 जिलों में कार्यक्रम किए, जनता से मुखातिब हुए. उनकी समस्याएं सुनी और समाधान का विश्वास दिलाया. नीतीश ने कुल 38 जिलों को 50 हजार करोड़ से अधिक की योजनाओं का सौगात दिया. कई जगहों पर वे गांवों की गलियों में पैदल चलते हुए लोगों से मिले, महिला समूहों से बातचीत की और युवाओं से रोजगार, शिक्षा व प्रशिक्षण को लेकर विस्तार से जानकारी ली. हर जिले में उन्होंने अधिकारियों के साथ विकास कार्यों की समीक्षा की, स्कूलों, अस्पतालों और जल-नलकूप परियोजनाओं की स्थिति का जायज़ा लिया.
उन्होंने 2005 में पहली बार 'न्याय यात्रा' की थी. साल 2009 की जनवरी में नीतीश ने 'विकास यात्रा' की और फिर जीत के बाद 'धन्यवाद यात्रा' भी की. इसके बाद तो यात्राओं का सिलसिला ही शुरू हो गया. नीतीश अब तक 15 यात्रा कर चुके हैं. इन यात्राओं के बहाने नीतीश आम जन मानस से ना केवल मिलते हैं बल्कि उनकी बातें सुनकर, समस्याओं का समाधान भी करते हैं.
ऐसे में अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नीतीश कुमार का स्वास्थ्य वास्तव में इतना बिगड़ा हुआ होता, जैसा विपक्ष कह रहा है, तो क्या वे इतने सघन और थकाऊ दौरे कर पाते? क्या वे पूरे बिहार की यात्रा कर पाते और मंच से लगातार घंटों बोल पाते? प्रगति यात्रा ने जनता के अंदर कहीं ना कहीं यह संदेश स्पष्ट रूप से दे दिया है कि नीतीश एकदम स्वस्थ्य है. साथ ही वे लोगों से सीधे संवाद के जरिए अपनी पकड़ और विश्वास को और मजबूत कर रहे हैं.
विपक्ष का उल्टा पड़ता वार?
स्वास्थ्य पर हमला करना, खासकर ऐसे नेता पर जो अभी भी मंच पर सक्रिय नजर आ रहा हो, राजनीतिक रूप से उलटा भी पड़ सकता है. जब जनता यह देख रही हो कि मुख्यमंत्री लगातार जिलों का दौरा कर रहे हैं, विकास योजनाएं घोषित कर रहे हैं, तो वे विपक्ष की बातों को गंभीरता से नहीं लेते. तेजस्वी यादव के बयान में यह धार जरूर है कि उन्होंने ‘एकनाथ शिंदे मॉडल' का हवाला देकर बीजेपी की नीयत पर सवाल उठाए हैं, लेकिन यह हमला तभी असरदार होता जब नीतीश खुद सुस्त नजर आते. लेकिन मौजूदा परिदृश्य इसके विपरीत है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रैली निकालते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.
बीजेपी और नीतीश: समीकरण या साझेदारी?
बीजेपी ने बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार को फिर से चेहरा बनाने का संकेत दिया है. इसका सीधा अर्थ है कि पार्टी को नीतीश के नेतृत्व में जीतने की संभावना दिख रही है. जहां विपक्ष गठबंधन के जोड़-तोड़ में उलझा है, वहीं एनडीए में नेतृत्व को लेकर स्पष्टता है. यह भी साफ है कि बीजेपी, नीतीश की प्रशासनिक क्षमता और उनकी जनस्वीकृति को भुनाना चाहती है. नीतीश का चेहरा अगर बीजेपी के लिए उपयोगी है, तो विपक्ष के लिए यह और अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है.राजनीति में शुचिता, कार्यक्षमता और जनसंपर्क – यह तीनों गुण यदि किसी नेता में एकसाथ हों, तो विपक्ष को सोचना पड़ता है कि हमला कहां किया जाए. नीतीश कुमार में ये तीनों विशेषताएं मौजूद हैं. विपक्ष को चाहिए कि वे उनके नीतिगत निर्णयों पर बहस करें, घोषणाओं के अमल की समीक्षा करे, न कि उनके स्वास्थ्य पर सवाल उठाए. कहीं ऐसा न हो कि एक अनुभवी नाविक को कमजोर समझ मझधार में घेरने निकला विपक्षी, खुद दिशा खो बैठे.
अस्वीकरण: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.