मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा, चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा, चुनाव आयुक्त अशोक ल्वासा. इन तीनों पर भारत का हर नागरिक भरोसा व्यक्त करता है कि इनके निर्देशन में चुनाव आयोग संवैधानिक दायित्वों को निभाने में कोई समझौता नहीं करेगा. किसी भी नेता के दबाव में नहीं आएगा और न ही किसी राजनीतिक दल की मदद करेगा. चुनाव आयोग से आने वाली ख़बरें बहुत आश्वस्त नहीं कर रही हैं. सबकुछ इतिहास के भरोसे मत छोड़िए. वर्तमान का भी दायित्व है दर्ज करना. हिन्दी की जनता तक सूचना नहीं पहुंचने दी जा रही है. इन सूचनाओं को पहुंचाइये कि चुनाव आयोग कैसे हमारे भरोसे का इम्तहान ले रहा है. हर दिन वह भरोसा पहले से अधिक हिल जा रहा है.
चुनाव आयोग के सामने प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ आचार संहिता के उल्लंघन के पांच मामले आए. यह भी शर्मनाक मामला है कि भारत के प्रधानमंत्री आचार संहिता का उल्लंघन कर रहे हैं. आयोग ने चेतावनी दी थी कि सेना के नाम पर वोट नहीं मांगा जाएगा. धार्मिक पहचान और उन्माद के नाम पर वोट नहीं मांगा जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के दबाव में शुरू में तीन चार नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई तो हुई लेकिन जब अमित शाह और नरेंद्र मोदी का नाम आया तो आयोग के हाथ कांपते से लगते हैं.
9 अप्रैल को लातूर में प्रधानमंत्री मोदी ने पुलवामा और बालाकोट के नाम पर वोट मांगा. 20 दिन लग गए फैसला लेने में. जब फैसले का वक्त आया तो दो आयुक्तों ने प्रधानमंत्री को क्लिन चिट दी. एक आयुक्त ने विरोध किया. विरोध करने वाले आयुक्त का नाम है अशोक ल्वासा. मोदी के ख़िलाफ़ 5 शिकायतें थीं. एक भी शिकायत पर पूर्ण बहुमत से क्लीनचिट नहीं मिली है. नियम तो एक ही होता है. उल्लंघन भी कोई ऐसा जटिल नहीं है मगर फैसला संदिग्ध है.
9 अप्रैल को अमित शाह ने केरल के वायनाड की तुलना पाकिस्तान से कर दी थी. अमित शाह के दिल में यही भारत है. उनसे सहमति न हो तो वे भारत के एक हिस्से को ही पाकिस्तान घोषित कर दें. इसके बाद भी चुनाव आयोग उन्हें क्लीनचिट देता है. इसे धार्मिक उन्माद और धार्मिकता का इस्तेमाल करने का आरोपी नहीं मानता है.
इन सबके बीच चुनाव आयुक्त अशोक ल्वासा भी हैं. लगातार पांच शिकायतों में वे असहमति दर्ज करते हैं. कोई आयुक्त पांच बार लगातार विरोध दर्ज करे यह सामान्य बात नहीं है. प्रधानमंत्री को जो क्लीनचिट मिल रहा है उसे आयुक्त अशोक ल्वासा की असहमतियों की नज़र से देखिए. आपकी रुह कांप जानी चाहिए कि क्या कोई है जो प्रधानमंत्री को बचाने के लिए वहां मौजूद है. भरोसा होना चाहिए कि कोई अशोक ल्वासा है जो अपने नैतिक बल पर टिका है. संवैधानिक दायित्व के बोध पर अडिग है. फिर ऐसे देखिए कि आयोग में एक के सामने दो ऐसे हैं जो लगातार प्रधानमंत्री को पांच मामलों में क्लीनचिट देते हैं. क्या चुनाव आयोग प्रधानमंत्री मोदी आयोग बन गया है?
2014 के बाद से चुनाव आयोग के भीतर बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे भरोसा बनता नहीं है. प्रधानमंत्री को पहले भी कई तरह की रियायतें मिली हैं. वो रैली कर सकें इसलिए आयोग की प्रेस कांफ्रेंस टाली गई. लोकसभा का चुनाव लंबा किया गया. किसी किसी राज्य में एक चरण में चार सीटों पर मतदान हो रहा है. ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के नाम पर आम आदमी पार्टी के विधायकों की मान्यता रदद् करने का विवाद पलट कर देखिए. दिल्ली में चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने की साज़िश नज़र आएगी. कितनी बहसें होती थीं उस वक्त चैनल में, जिन्हें ये करना था वो करके वापस जा चुके हैं.
आप किसी भी दल के समर्थक हों. इतिहास में आयोग की जो भी कहानी हो. यह काफी नहीं है. क्या हमने इस वर्तमान को इसलिए चुना है कि वह इतिहास के जैसा हो. 2014 के पहले के पूर्व चुनाव आयुक्त मुखर होकर बोलते थे. अब प्रतिक्रिया के लिए पूर्व आयुक्तों से संपर्क किया जाता है तो टाल जाते हैं. जो बोलते हैं वो भी खुलकर नहीं बोलते हैं. उनके वाक्यों को ध्यान से देखिए. क्या डर इतना बड़ा हो गया है कोई इस एक संस्था के लिए भी नहीं बोल पा रहा है? क्या आप डरने के लिए 2019 के चुनाव में हैं? क्या आप आयोग को ख़त्म होते देखने के लिए 2019 के चुनाव में हैं?
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