दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में भयंकर हादसे के बाद अचानक पूरा सिस्टम हरकत में आ गया. अब कई शहरों के तमाम कोचिंग संस्थानों में सुरक्षा-मानकों की जांच-पड़ताल चल रही है. लेकिन केवल इतना काफ़ी नहीं. यह देखना भी ज़रूरी है कि आखिर हमारी शिक्षा-व्यवस्था की बुनियाद में कहां-कहां गैप रह जा रहा है, जिसे पाटने के लिए कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है.
सिलेबस और किताबें
सबसे पहले उन चीज़ों की ओर देखना होगा, जिनसे स्कूली शिक्षा की बुनियाद तैयार होती है. हमारे यहां स्कूलों की किताबें और सिलेबस मोटे तौर पर कैसे हैं? यहां CBSE, ICSE जैसे बोर्ड और अलग-अलग स्टेट बोर्ड के सिलेबस में अंतर देखा जाता है. कुछ राज्यों में स्कूलों का सिलेबस और परीक्षा का पैटर्न ऐसा रखा गया है कि ज़्यादा से ज़्यादा विद्यार्थी आसानी से अगली क्लास में जाते रहें. किसी के फ़ेल होने की संभावना न के बराबर रहे. इसके लिए पाठ्यक्रम बनाते वक्त ही उदारता बरती जाती है.
ऐसी ही स्थिति किताबों को लेकर है. कुछ राज्य सरकारों के प्रकाशन की किताबों को देखें, तो इनमें कई स्तर पर सुधार की संभावना दिखती है. इनमें ज़रूरी फ़ोटो, चार्ट और ग्राफ़िक्स का अभाव खटकता है, जो निजी प्रकाशन की किताबों में आसानी से मिल जाते हैं. ये किताबें सरकारी स्कूल के बच्चों को मुफ़्त दी जाती हैं. गौर करने वाली बात है कि एक बड़े तबके के विद्यार्थियों की पढ़ाई-लिखाई इसी सिस्टम से होती है. आगे चलकर ऐसे बच्चों का मुकाबला उन विद्यार्थियों से होता है, जिनकी पढ़ाई-लिखाई बेहतर प्राइवेट स्कूलों से हुई होती है. यहां प्रोडक्ट के स्तर पर एक बड़ा गैप पैदा हो जाता है. अक्सर कोचिंग संस्थान इस तरह के गैप को भरते हैं.
दुविधाओं की दुनिया
10वीं या 12वीं तक आते-आते ज़्यादातर बच्चों में एक बड़ी दुविधा देखी जाती है. दुविधा यह कि पहले स्कूलिंग पर फोकस करें या सीधे कॉम्पिटीशन की तैयारी में पिल जाएं? कुछ स्टूडेंट बोर्ड में बढ़िया मार्क्स लाने को प्राथमिकता देते हैं, जबकि कुछ स्टूडेंट उसी दरमियान अपना पूरा फोकस NEET, JEE या उन्हीं जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं पर रखते हैं. कई छात्र इसके लिए 'फ्लाइंग' का रास्ता चुन लेते हैं. माने क्लास के लिए आवाजाही या अटेंडेंस की कोई टेंशन नहीं, सीधे बोर्ड एग्ज़ाम में बैठ जाइए!
आगे चलकर यही सवाल थोड़ा बदल जाता है. अब सवाल यह होता है कि डिग्री चमकाने पर ज़्यादा ध्यान दें या नौकरी दिलाने वाली परीक्षा पर? इसी तरह की एक दुविधा सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करने वालों के बीच देखी जाती है. पहले प्रिलिम्स की तैयारी करें या मुख्य परीक्षा की? कुछ का तर्क होता है कि पहले पहला दरवाज़ा पार करेंगे, तभी तो दूसरा गेट पार करने का सवाल आएगा, इसलिए वे सीधा प्रिलिम्स की तैयारी में जुट जाते हैं.
बेसिक्स का सवाल
ऊपर जिन दुविधाओं का जिक्र किया गया है, उनसे एक बात तो यह पता चलती है कि पढ़ाई-लिखाई का पूरा सिस्टम दो भागों में बंटा हुआ है. सर्टिफ़िकेट या डिग्री पाने के लिए कुछ अलग तरीके से पढ़ना होता है, जबकि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अलग अप्रोच रखना होता है. बोर्ड या यूनिवर्सिटी एग्ज़ाम के सिलेबस, सवाल की गहराई या सवाल का नेचर (ऑब्जेक्टिव-सब्जेक्टिव), प्रतियोगी परीक्षाओं से काफी हद तक अलग होते हैं. दोनों के बीच बड़ा अंतर होता है. इसी प्वाइंट पर कोचिंग इंस्टीट्यूट अपने लिए अवसर बना लेते हैं.
हालात ऐसे हैं कि सिविल सर्विसेज़ की तैयारी शुरू करने वाले किसी ग्रेजुएट को भी एक बार फिर से स्कूलों में चलने वाली NCERT की किताबें पढ़ने की सलाह दी जाती है. यह आधार मज़बूत करने की प्रक्रिया का ही हिस्सा होता है.
कोचिंग संस्थानों की भूमिका
आज मेडिकल-इंजीनियरिंग एंट्रेंस की तैयारी कराने वाले कई नामी-गिरामी कोचिंग इंस्टीट्यूट निचली क्लास से ही बच्चों के एडमिशन की पेशकश करते हैं. ऐसे कोचिंग इंस्टीट्यूट दावा करते हैं कि इनके स्टडी मैटीरियल स्कूल के एग्ज़ाम और कॉम्पिटीशन, दोनों जगह कारगर होते हैं. सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थान भी तरह-तरह के कोर्स के साथ, बड़े-बड़े दावे कर, एक बड़े वर्ग को लुभाने में कामयाब हो जाते हैं.
लेकिन कोचिंग लेना किसके लिए फ़ायदेमंद होगा, किसके लिए नहीं, यह कई फ़ैक्टरों पर निर्भर करता है. एक सेहतमंद आदमी को अगर सही टॉनिक मिल जाए, तो उसकी क्षमताओं में इज़ाफ़ा हो सकता है. किसी बीमार को सही दवा मिल जाए, तो उसकी सेहत सुधर सकती है. लेकिन इसके उलट, अगर किसी को गलत दवा दे दी जाए, तो उसके बुरे नतीजे भी हो सकते हैं. किसी भटके हुए को सही रास्ता दिखाने वाला मिल जाए, तो वह अपनी मंज़िल पा सकता है, लेकिन सही ट्रैक पर जा रहे किसी शख्स को कोई गुमराह कर दे, तो कहने को क्या रह जाता है?
कोचिंग जुनून कैसे बन जाता है?
ज़्यादातर स्टूडेंट जब एक बार किसी टीचर को आदर्श मान लेते हैं, किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट को 'नंबर वन' समझ लेते हैं, तो वहां पढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. खासकर सिविल सर्विसेज़ एग्ज़ाम के लिए, जहां सक्सेस रेट महज 0.2% के आसपास हो. बड़े नाम वाले कोचिंग की भीड़ ही साल-दर-साल और बड़ी भीड़ को खींच लाती है.
सवाल यह भी है कि स्टूडेंट कोचिंग की खातिर दूसरे शहर जाकर, बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें कैसे उठा लेते हैं? तंग गलियों में, छोटी-सी कोठरी में दो-चार स्टूडेंट साथ-साथ कैसे रह लेते हैं? कच्चा-पक्का, कुछ भी कैसे खा लेते हैं? जवाब साफ़ है. एक तो ज़्यादातर स्टूडेंट के मन में सुनहरे भविष्य की आस होती है, जिसके सहारे वे मौजूदा तकलीफ़ें झेल जाते हैं. दूसरे, रहन-सहन के मामले में इनके सामने अक्सर विकल्पहीनता जैसी स्थिति होती है. सब जानते हैं कि एक बेहतर विकल्प अक्सर ज़्यादा पैसों की मांग करता है.
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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