कभी हम रेडियो पर कहानियां, लोकगीत, समाचार और क्रिकेट का कमेंट्री सुना करते थे, वो आवाजें, जो हमें अपनी सी लगती थीं. फिर टीवी आया, जहां एक-एक एपिसोड के लिए हफ्तों का इंतजार पड़ता था. लेकिन अब वक्त में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अब मोबाइल स्क्रीन पर एक उंगली चलती है और 15 या 30 सेकंड की एक छोटी-छोटी रील हमें हंसाती भी है, दुखी भी करती है और कभी-कभी हमारी सोच को प्रभावित भी कर देती है. यही है आज की 'रील्स की दुनिया' तेज, रंगीन और भावों से भरपूर. हर स्क्रॉल के पीछे कोई नया एहसास, या तो कोई नई कहानी या कोई विचार छिपा हुआ होता है.
क्या इंसान को बीमार बना रहे हैं रील्स
आज के दौर में शॉर्ट वीडियो और इंस्टाग्राम रील्स जितने मजेदार लगते हैं, उतने ही खतरनाक भी साबित हो रहे हैं. न्यूज नाम की एक बेवसाइट पर प्रकाशित Global Health Threat: Habit as bad as booze नाम के एक अध्ययन में बताया गया है कि ये छोटे वीडियो दिमाग को उसी तरह जकड़ लेते हैं जैसे शराब या जुए की लत. ये धीरे-धीरे ध्यान और निर्णय क्षमता को कमजोर कर देते हैं. वहीं रिसर्च गेट पर आए एक अध्ययन (The effect of short-form video addiction on users attention) बताता है कि लगातार स्क्रॉलिंग करने से हमारा ध्यान बिखर जाता है. इससे नींद की गुणवत्ता भी बिगड़ती है. सीधी सी बात यह है कि जिस मनोरंजन को हम हल्के-फुल्के मजे के रूप में देखते हैं, वही हमारी मानसिक सेहत और जीवनशैली पर गहरा असर डाल रहा है.
आज के समय में इंस्टाग्राम रील्स और शॉर्ट वीडियो ने हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर गहरी पकड़ बना ली है. थोड़ी देर मनोरंजन के लिए शुरू हुआ स्क्रॉलिंग कई बार घंटों तक चलती है. यही आदत धीरे-धीरे लत का रूप ले लेती है. चीन की तिआंजिन नॉर्मल यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च बताती है कि लगातार छोटे वीडियो देखने से हमारे दिमाग की ध्यान केंद्रित करने की क्षमता घटने लगती है और नींद भी प्रभावित होती है. जिन युवाओं ने लंबे समय तक शॉर्ट वीडियो देखे, उनके दिमाग के वही हिस्से सक्रिय हुए जो आमतौर पर नशे की स्थिति में दिखते हैं. अध्ययन में शामिल युवाओं में देखा गया कि उनमें दूसरों की जिंदगी देखकर तुलना और ईर्ष्या की प्रवृत्ति बढ़ी, जिससे मानसिक तनाव और बेचैनी भी सामने आई. साफ है कि यह केवल मनोरंजन का सवाल नहीं है, बल्कि हमारे समय, नींद, रिश्तों और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा गंभीर मसला है.
भावनाओं का समंदर हैं रील्स
आज रील्स हमारी दिनचर्या में ऐसे घुल-मिल गए हैं, जैसे चाय में चीनी. कुछ सेकंड के वीडियो, जो कभी हमें हंसाते हैं, कभी चौंकाते हैं और कभी अनजाने में हमारी सोच को भी बदल देते हैं. सुबह उठते ही, बस में सफर करते समय, या रात को सोने से पहले, इन रंग-बिरंगी क्लिप्स से बच पाना मुश्किल है. इसके बाद भी रील पूरी तरह बुरे नहीं हैं. ये नए विचार, रचनात्मकता और सही जानकारी फैलाने का बेहतरीन जरिया भी बन सकते हैं. शर्त केवल यह है कि हम इनका नियंत्रित इस्तेमाल करें, क्योंकि एक बार रील्स देखने लगते हैं तो स्क्रोल करते-करते समय का पता ही नहीं चलता है. इन सोशल मीडिया प्लेटफार्म को इस तरह बनाया ही गया है कि लोग ज्यादा से ज्यादा अपना समय इन प्लेटफार्म पर दें.
आज जहां भी देखें, वहां लोग ज्यादातर रील देखते नजर आते हैं. आज जहां भी नजर डालें इंस्टाग्राम हो, फेसबुक, यूट्यूब शॉर्ट्स, स्नैपचैट या टिकटॉक, हर तरफ रील्स का ही जादू बिखरा हुआ है. अब सिर्फ फिल्मी सितारे ही नहीं, बल्कि आम लोग भी कैमरे के सामने देखते हैं. जैसे यदि गांव का कोई लड़का हो या शहर की कोई लड़की, खेत में खड़ा किसान हो या कविता कहता कोई युवा, रसोई में काम करती गृहिणी हो या मोबाइल से खेलता हुआ कोई छोटा बच्चा, हर कोई कुछ न कुछ कह रहा है, कुछ दिखा रहा है, कुछ महसूस करवा रहा है. ये सब हो तो रहा है लेकिन बस इन कुछ ‘सेकंड' की रील्स के माध्यम से ही. यही तो है रील्स की असली ताकत या कमजोरी है, कुछ ही पलों में हंसी, आंसू, सोच और सच्चाई का एहसास करा देता है. धीरे-धीरे यह आदत हमारे दिमाग को एक 'तेज लेकिन सतही' अनुभव की आदत के रूप में डाल देती है. सोचने का समय ही नहीं मिलता, महसूस करने की गहराई खो जाती है. हम भावनाओं के ऊपर-ऊपर तैरते रहते हैं. ये अब केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा, बल्कि लोगों की अभिव्यक्ति का एक मंच बन गया है, जहां हर आवाज को जगह मिल रही है और हर भाव डिजिटल दुनिया में अपना जगह बना रहा है.
लोगों को अपनी बात कहने का मंच बना रील
'रील्स' किसी के लिए ये मंच; नाच-गाने का, किसी के लिए व्यंग्य और जोक्स का, तो किसी के लिए जीवन की सच्चाई बताने का. कुछ लोग इसे सूचना देने के लिए इस्तेमाल करते हैं तो कुछ लोग केवल मनोरंजन के लिए. लेकिन हर रील के पीछे एक प्राणी ही होता है, उसकी सोच, उसका सपना, उसकी आवाज. जो तकनीक होते हुए भी बहुत मानवीय है. आज रील्स केवल समय बिताने का साधन नहीं, बल्कि एक आत्म-अभिव्यक्ति बन चुकी है. यह सोशल-मीडिया का दिल की तरह है, जहां हर सेकेंड में कोई कहानी जन्म लेती है, किसी की मुस्कान, किसी की पीड़ा और किसी की प्रतिभा का.
सोशल-मीडिया पर जब हम रील्स देखते हैं तो लगता है जैसे किसी अजनबी की जिंदगी की खिड़की एक पल के लिए खुल गई हो. कभी कोई मां अपने बच्चे को गोद में लिए मुस्कुरा रही होती है तो अगले ही पल कोई नौजवान अपने टूटे दिल की कहानी सुना रहा होता है. कुछ सेकेड में हम हंसते हैं, फिर कुछ ही सेकंड में एक दुख महसूस करते हैं. रील्स का यही जादू है. ये एक मिनट के भीतर ही हमें इतनी सारी भावनाओं से भर देती है कि दिल और दिमाग दोनों 'थक' से जाते हैं. यह एक भावनात्मक 'रोलर कोस्टर' जैसा अनुभव होता है, जिसमें कभी हम हंसी में डूब जाते हैं, कभी उदासी में, तो कभी प्रेरणा पाते हैं और कभी खो से जाते हैं. एक रील में लड़की बारिश में नाच रही होती है, दूसरी में कोई किसान अपने खेतों की दुर्दशा दिखा रहा होता है. तीसरी में कोई शादी में थिरकता है, और चौथी में कोई आत्महत्या से पहले की आखिरी आवाज सुना जाता है.
हर रील एक भावना है
हर रील एक अधूरी, छोटी, लेकिन असरदार कहानी होती है. इन वीडियो को देखकर लगता है कि हम सब किसी तेज रफ्तार दौड़ में हैं, जहां भावनाओं का कोई ठहराव तक नहीं है. हम बस 'स्वाइप' या 'स्क्राल' करते जाते हैं; हंसी से दुख तक, नृत्य से क्रांति तक, अकेलेपन से प्रेम तक हर भावना ऐसा लगता है कि कुछ ही सेकेंड की मेहमान होती है. धीरे-धीरे यह आदत हमारे दिमाग को एक तेज़ लेकिन सतही अनुभव की आदत डाल देती है.
रील्स में अब केवल मनोरंजन नहीं है, इसमें जानकारी, राहत, और सबसे अहम, अभिव्यक्ति होती होती है. कोई खाना बनाना सिखा रहा है, कोई किताब की बात कर रहा है, तो कोई गांव की मिट्टी से जुड़े गीत सुना रहा है. लोग अब मंच पर नहीं, मोबाइल कैमरे के सामने बोलते हैं. अपने जीवन की बातें हों, अपने अनुभव हों, या अपने सच को सामने रखते हैं. कई बार हम थक कर बैठते हैं, तनाव से घिरे होते हैं और रील्स खोल लेते हैं. तब कुछ ही देर में एक गीत, एक हंसी, एक शरारती बच्चा, या कोई बुजुर्ग की आँखों में छिपा अनुभव; सब कुछ हमें थोड़ा आराम महसूस होने लगता है. कभी-कभी, हम खुद भी रील्स बनाते हैं. नाचते हैं, बोलते हैं, लिखते हैं, गाते हैं और हम खुद को जाहिर करते हैं, जैसे बरसों से भीतर दबा कुछ बाहर आने को बेताब हो. यह आत्म-अभिव्यक्ति का छोटा-सा मंच, अब लोगों को बोलने का, दिखने का, जुड़ने का साहस देता है.
डिस्क्लेमर: केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अरुण कुमार गोंड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.