फेक न्यूज़ की यह तीसरी कड़ी है. बड़ी चुनौती है कि कोई कैसे पता लगाए कि फेक न्यूज़ है या नहीं. राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित हो कर कई वेबसाइट मौजूद हैं जो न्यूज़ संगठन के भेष में आपके साथ छल कर रही हैं. भारत में इस तरह की कई वेबसाइट हैं जिनके नाम इस तरह से रखे गए हैं जिन्हें देखकर लगता है कि कोई न्यूज़ संगठन होगा. दिक्कत ये है कि इनकी चोरी पकड़ लेने के बाद भी जो सफाई होती है वो उस झूठ का पीछा नहीं कर पाती है जो बहुत दूर निकल चुकी होती है. फेक न्यूज़ खासकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने लगा है. इसके ज़रिये कहीं सांप्रदायिक तनाव पैदा किया जा रहा है तो कहीं किसी दल के नेता को लगातार बदनाम किया जाता रहता है. सूचनाओं को पहले न्यूज़ की शक्ल में भेजा जाता है. कई महीनों तक फैलाने के बाद उसी सूचना का चुटकुला बनाकर फिर से भेजा जाता है ताकि आप बार बार देखते रहे हैं कि जवाहर लाल नेहरू का असली नाम क्या था और वे कहां से आते थे. 15 मई 2016 को टाइम्स ऑफ इंडिया की अमूल्या गोपालकृष्णनन ने नेहरू को फैलाये जा रहे झूठ को लेकर एक रिपोर्ट छापी. नेहरू भी फेक न्यूज़ वालों के तंत्र से नहीं बच सके. जवाहर एक अरबी शब्द का नाम है, कोई कश्मीरी ब्राह्मण अपने बच्चे का अरबी नाम रख ही नहीं सकता है. नेहरू के दादा गियासुद्दीन ग़ाज़ी थे, मुग़लों के कोतवाल थे जिन्होंने अपना नाम गंगाधर नेहरू रख लिया. नेहरू का जन्म इलाहाबाद की वेश्याटोली में हुआ था. नेहरू ने एक कैथलिक नन को गर्भवती कर दिया था, चर्च ने उस नन को भारत से बाहर भेज दिया जिसके लिए नेहरू आजीवन चर्च के आभारी रहे.
पहले तो यह सवाल आप ख़ुद से पूछिये कि क्या आपने कभी व्हाट्सऐप या इंटरनेट पर नेहरू से संबंधित इस तरह की फेक जानकारी देखी है. इस वक्त जब भारत में 16वें प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का शासन चल रहा है तब किसी को पहले प्रधानमंत्री की वंशावली या उन्हें मुग़ल बताने में क्या दिलचस्पी हो सकती थी. एक पूरा राजनीतिक तंत्र लगा रहा नेहरू के बारे में इस तरह की बातों को फैलाने में. साल भर से ज़्यादा समय से चल रहा था लेकिन जब अमूल्या ने इन तथ्यों की जांच की तब कुछ लोगों तक यह बात पहुंची क्योंकि तब तक फेक न्यूज़ के गिरोह से लड़ने वाला altnews.in नहीं आया था. यू ट्यूब पर भी नेहरू को लेकर कई तरह के वीडियो बनाये गए हैं जिनमें फेक तथ्यों का इस्तेमाल किया गया है. एक वीडियो का ज़िक्र है जिसका टाइटल है हिन्दुस्तान का सबसे अय्याश आदमी. जिसे 40 लाख लोगों ने देखा था. मकसद है कि नेहरू की साख को ख़त्म करते रहा जाए.
नेहरू को लगातार बदनाम किया जा रहा है. नेहरू दुनिया में नहीं हैं. इसलिए 2019 में उनके प्रधानमंत्री का चुनाव उम्मीदवार बनने की कोई संभावना भी नहीं है फिर एक राजनीतिक तंत्र क्यों नेहरू को बदनाम करता जा रहा है. नेहरू के बारे में ऐसी ग़लत सूचनाओं को न्यूज़ की शक्ल में पेश किया गया ताकि लाखों लोग देख सकें और नेहरू के प्रति घृणा फैलती रहे. इनमें से अधिकांश फेक न्यूज़ था. मकसद था कि नेहरू को कश्मीरी ब्राह्मण से मुसलमान बना दो. अय्याश बता दो. एक वीडियो में बताया गया है कि नेहरू की मौत एड्स से हुई थी. जैकलीन केनेडी और मृणालिनी साराभाई की तस्वीरें लगाकर नेहरू को अय्याश दिखाया गया. फोटोशॉप का इस्तेमाल हुआ. वीकिपीडिया में नेहरू और उनके पिता मोतिलाल नेहरू को लेकर जानकारियां बदल दी गईं. टाइम्स ऑफ इंडिया ने Centre for Internet and Society के प्राणेश प्रकाश के हवाले से लिखा है कि सरकार के आईपी एड्रेस से यह बदलाव किया गया. 24 जनवरी 2016 की स्क्रोल डॉट इन की एक खबर है. जब नेताजी के पेपर सार्वजनिक किये गए तो उनमें से कुछ भी ख़ास नहीं निकला मगर उसके हवाले से नेहरू के नकली पत्र बनाकर व्हाट्सऐप के ज़रिये बांटा जाने लगा जिसके झांसे में पत्रकार तक आ गए. जब पता चला तो सबने डिलिट करना शुरू कर दिया और माफी मांगनी शुरू कर दी. जबकि इस तरह का कोई पत्र ही नहीं था.
फेक न्यूज़ का एक रूप यह भी है. आज के समय आपको फेक न्यूज़ देना और इतिहास के तथ्यों को भी फेक कर देना. सोचिये इस तरह से आप न तो आज के बारे में सही जान पायेंगे, और न बीते हुए कल के बारे में. इंटरनेट पर नेहरू के बारे में फेक जानकारियां भरी जा रही हैं. आपका बच्चा स्कूल कॉलेज के प्रोजेक्ट के लिए जब डाउनलोड करेगा तो ग़लत जानकारियां लिख आएगा. हो सकता है कि राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित शिक्षक उन्हीं जानकारियों पर उसे नंबर भी दे दें और वो पूरी ज़िंदगी इस यकीन में जीता रहेगा कि जो जानता है वह सही था जबकि वो फेक था. फेक न्यूज़ और फेक वीडियो के कारण कई जगह सांप्रदायिक हिंसा हुई है, हत्या हुई है और संपत्तियों को नुकसान भी पहुंचा है. लेकिन इसी फेक न्यूज़ के ज़रिये इतिहास की सबसे बड़ी हिंसा से जुड़ी जानकारी को ही मिटाने की कोशिश की गई.
आपने पिछले हफ्ते ही देखा था कि प्रधानमंत्री मोदी इज़रायल दौरे पर होलोकॉस्ट मेमोरियल गए थे. जहां उन्होंने इतिहास का एक क्रूरतम अध्याय बताया था. लेकिन गार्डियन अखबार की कैरोल कैडवॉलडर ने नोटिस किया कि गूगल के सर्च में यह डालने पर कि Did the Holocaust really happen? तो जवाब आता है कि होलोकॉस्ट हुआ ही नहीं था और सर्च रिज़ल्ट एक नव नात्ज़ी वेबसाइट stormfront.org पर ले जाता है जहां इस तरह की बातें लिखी हैं कि चोटी के दस कारण कि होलोकॉस्ट हुआ ही नहीं था. 11 दिसंबर 2016 के अपने लेख में कैरोल ने इस पर विस्तार से बात की है जो गार्डियन अखबार में छपा है. उन्होंने बताया है कि यू ट्यूब पर भी इस तरह के कई वीडियो हैं. जबकि किताबों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह बात दर्ज़ है कि हिटलर ने साठ लाख लोगों को मरवा दिया था. कैरोल ने जब यह सवाल उठाया तो उसके बाद गूगल ने सुधार कर दिया लेकिन सोचिये इंटरनेट पर ऐसे कितने ऐतिहासिक साक्ष्यों को बदल दिया गया होगा. उसी तरह जैसे सरकारें इतिहास की किताबों को बदल देती हैं. आप सोचते हैं कि यह आपके और आपके बच्चे के लिए महत्वपूर्ण सवाल नहीं है. क्या आपा इतने समझदार माता पिता हैं जो अपने बच्चों को फेक न्यूज़ और फेक हिस्ट्री की विरासत खुशी खुशी देना चाहता है.
हम फेक न्यूज़ की सीरीज़ में अलगॉरिथम पर भी बात करने का प्रयास करेंगे जिसके ज़रिये इन सब तथ्यों को बदलकर गूगल सर्च में सबसे ऊपर कर दिया जाता है. आप व्हाट्सऐप नेहरू और होलोकॉस्ट के बारे में फेक हिस्ट्री पढ़ रहे हैं, आपका बच्चा भी जब वही फेक जानकारी लेकर आएगा तो हो सकता है कि आप कह दें कि वाह कितना समझदार हो गया है. जो मैं जानता हूं वही ये भी जानता है. लाखों लोग इस तरह की फेक हिस्ट्री, फेक न्यूज़ शेयर कर रहे हैं. पिछले साल बज़फीड नाम की वेबसाइट ने 5 बड़ी फेक न्यूज़ की एक लिस्ट बनाई थी जो इस प्रकार है.
- ओबामा ने देश के सभी स्कूलों में निष्ठा की शपथ लेने पर रोक लगाने के आदेश दे दिये हैं. इसे फेसबुक पर 21 लाख बार शेयर किया गया.
- पोप फ्रांसिस ने डोनाल्ड ट्रंप की उम्मीदवारी का समर्थन किया, इसे 9 लाख बार शेयर किया गया.
एक और दिलचस्प तथ्य है. अमरीकी अखबार The Sun Chronicle के Tom Reilly ने 29 जून, 2017 को अपने एक संपादकीय में लिखा कि एसोसिएडेट प्रेस जैसी बड़ी संस्था भी फेक न्यूज़ का शिकार हुई है. जबकि यह संस्था 171 साल पुरानी है, दुनिया भर के 1700 अख़बारों, 5000 टीवी और रेडियो ब्रॉडकास्ट एपी की स्टोरी छपती है. तो सोचिये कहां कहां फेक न्यूज़ पहुंच जाता होगा. ये उस संस्था का हाल है जिसके 120 देशों में 243 न्यूज़ ब्यूरो हैं. भारत के आठ दस टीवी चैनल मिला देंगे तो भी इतने रिपोर्टर नहीं होंगे.
एसोसिएटेड प्रेस ने यह बात स्वीकार की है कि उसकी कुछ ऐसी ख़बरें भी थीं जो न्यूज़ नहीं थीं. इसलिए एपी ने एक नया न्यूज़ फीचर शुरू किया है Not Real News. इसके तहत ऐसी फेक न्यूज़ का पर्दाफ़ाश किया जाएगा जो ट्विटर या दूसरे प्लेटफॉर्म पर वायरल हुईं. फिर भी यह काम ये भी किसी बड़ी झील को छलनी से साफ़ करने जैसा है.
फेक न्यूज़ एक व्यापक श्रेणी है. इसकी कई उपशाखाएं हैं. एक शाखा है फेक तस्वीरों की. कई नेताओं के ट्वीट से लेकर सरकार की रिपोर्ट तक में फेक तस्वीरें पहुंच जाती हैं और वहां से आप लोगों के बीच कि वाह देखो क्या नज़ारा है. हाल ही में भारत के गृहमंत्रालय की 2016-17 की सालाना रिपोर्ट के पेज नंबर 40 पर यह जानकारी दी गई कि अंतरराष्ट्रीय सीमा है, वहां पर 2043 किमी तक तेज़ रौशनी की व्यवस्था करने की मंज़ूरी प्रदान की है, सिर्फ 100 किमी ही काम बाकी रह गया है. बाकी हो गया है. इसे दिखाने के लिए गृहमंत्रालय की रिपोर्ट में एक तस्वीर लगाई गई जिसके नीचे लिखा हुआ है सीमा पर तेज़ रौशनी की व्यवस्था. जिसे आप देखकर समझेंगे कि वाह ये तो कमाल ही हो गया. लेकिन जब 14 जून को altnews.in ने इस तस्वीर को झूठ बताते हुए रिपोर्ट छापी तो सब हैरान रह गए. आखिर गृहमंत्रालय की रिपोर्ट में फेक तस्वीर कैसे जा सकती है. आई कहां से. क्या ये रिपोर्ट गूगल सर्च करके बनाई जा रही थी. altnews ने बताया कि यह तस्वीर स्पेन मोरक्को सीमा की है. गनीमत है कि गृहमंत्रालय के गृहसचिव ने ज़रा भी देरी नहीं की. हमारी सहयोगी नीता शर्मा ने रिपोर्ट की कि गृहसचिव ने रिपोर्ट की तैयारी से जुड़े अधिकारियों से सफाई मांगी तो पता चला कि बीएसएफ से ये तस्वीर आई थी. गृहसचिव ने इसके लिए अफसोस जताया और सालाना रिपोर्ट के ऑनलाइन संस्करण से तस्वीर हटा ली गई है. मगर तीन महीने से यह तस्वीर मौजूद थी. जाने कहां कहां पहुंच गई होगी. अगर आल्ट न्यूज़ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि hindutwa.info पर इसे लेकर सरकार की उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने का शुरू हो गया. लिखा गया कि भारत-पाक और भारत-बांग्लादेश सीमा को पूरी तरह से सील करने का काम भी ज़ोर से चला हुआ है और जल्द ही सीमाएं पहले की अपेक्षा काफी ज़्यादा सुरक्षित हो जाएंगी. एक काम करने वाली सरकार को ऐसा करते देखते हुए काफी अच्छा अहसास होता है...
यही नहीं, बीजेपी के सांसद परेश रावल के दो ट्वीट की चर्चा करने जा रहा हूं. पहला ट्वीट 3 जुलाई का है. सांसद परेश रावल ने पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम का एक बयान ट्वीटर हैंडल पर शेयर कर दिया. लिखा कि ये छद्म लिबरल लोगों के लिए है. बाद में पता चला कि वो बयान कलाम का था ही नहीं.
"इस बयान में लिखा था कि मुझे पाकिस्तान ने इस्लाम का हवाला देकर मिलाने का प्रयास किया लेकिन मैंने मातृभूमि के साथ गद्दारी नहीं की." जब हंगामा हुआ तो परेश रावल ने कहा कि मुझे पता नहीं था कि यह फेक है. अगर इनकी जगह कोई और होता तो मैं इसे दो बार चेक करता मगर कलाम की वजह से मुझे यह सही लगा.
यह बिल्कुल मुमकिन है कि ऐसा हुआ है और ऐसा हो जाता है. कोई भी ऐसी तस्वीरों और बयानों के झांसे में आ जाता है. लेकिन जब उन्होंने मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय को लेकर एक ट्वीट किया तो उसके कई ख़तरनाक पहलू सामने आ गए.
17 मई 2017 को परेश रावल ने ट्वीट किया कि अरुंधति रॉय ने इंटरव्यू दिया है कि 70 लाख भारतीय सेना कश्मीर के आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकती. इसी के साथ उन्होंने अरुंधति रॉय की तस्वीर लगा दी जिसमें वो सेना की जीप के आगे बिठाई गईं हैं.
इसे लेकर कई बड़े न्यूज़ चैनलों पर बकायदा बहस हो गई. बहस का तेवर ऐसा था कि अरुंधति रॉय के खिलाफ भीड़ आक्रामक हो सकती थी. जबकि अरुंधति राय न तो हाल में श्रीनगर गईं थीं और न ही ऐसा कोई इंटरव्यू किसी को दिया था. अरुंधति राय ने एक साल पहले आउटलुक पत्रिका को ज़रूर इंटरव्यू दिया था मगर परेश रावल का ट्वीट उस इंटरव्यू को लेकर नहीं था. 24 मई को thewire.in ने जब यह पता लगाया कि परेश रावल तक जानकारी कैसे पहुंची तो फेक न्यूज़ का एक और ख़तरनाक पहलू सामने आ गया.
परेश रावल ने अरुंधति रॉय का यह फेक इंटरव्यू The Nationalist नाम के फेसबुक पेज से उठाकर ट्वीट कर दिया. इस पेज पर ख़बर पहुंची postcard.news से, इस वेबसाइट की कई ख़बरें फेक न्यूज़ के सिलसिले में विवादित हो चुकी हैं. इस पर लिखा था कि अरुंधति रॉय ने यह इंटरव्यू The Times of Islamabad को दिया है कि 70 लाख भारतीय सेना कश्मीर के आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकती हैं. पोस्टकार्डन्यूज़ ने अपना सोर्स नहीं बताया लेकिन वायर ने पाया कि रेडियो पाकिस्तान ने सबस पहले यह प्रसारित किया था. जिस The Times of Islamabad को पाकिस्तानी अख़बार बताया जा रहा है, वो वेबसाइट है, अखबार नहीं है. postcard.news ने जिस दिन ये फेक इंटरव्यू छापा था उसी दिन इसे satyavijayi.com ने भी छापा और चार पांच वेबसाइट ने भी इसे अपने यहां जगह दी. इन सभी का नाम भी फेक न्यूज़ के सिलसिले में आ चुका है. thewire.in पकड़ा कि internethindu.in ने अपनी स्टोरी में Times of Islamabad का लिंक दिया था. आप देखिये कि किस तरह पाकिस्तानी साइट से चलते हुए फेक न्यूज़ फेक इंटरव्यू भारत के सांसद के ट्वीटर हैंडल पर पहुंचता है और वहां से भारत के चैनलों पर अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ ज़ोरदार बहस छिड़ जाती है. परेश रावल ने ट्वीट डिलिट कर दिया लेकिन आज भी यह फेक इंटरव्यू radio pakistan की वेबसाइट और भारत के पोस्ट कार्ड.news पर तस्वीर के साथ है. यह भी एक रणनीति है. जब विवाद थम जाएगा तो फिर से इस फेक इंटरव्यू को घुमाया जाने लगेगा. या क्या पता व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में घुमाया ही जा रहा हो.
आप सोचिये यह कितना ख़तरनाक पहलू है. फेक न्यूज़ के मामले में भारत और पाकिस्तान की वेबसाइट भी एक दूसरे की मदद कर सकती हैं. कोई आपके नाम से पाकिस्तान में फेक इंटरव्यू छपवा दे, जब तक आप सफाई देंगे, टीवी चैनल, नेता और ये वेबसाइट मिलकर आपका भयंकर नुकसान कर चुके होंगे. अभी तो इसके ज़रिये आवाज़ उठाने वालों को डराया जा रहा है, कमज़ोर और डरपोक विपक्ष को डराया जा रहा है लेकिन जल्दी ही इस खेल के ज़रिये आप लोगों को भी फिक्स किया जाने लगेगा. बल्कि किया भी जा रहा है.
This Article is From Jul 13, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : फ़ेक न्यूज़ को कैसे पहचानें?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 13, 2017 22:19 pm IST
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Published On जुलाई 13, 2017 22:19 pm IST
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Last Updated On जुलाई 13, 2017 22:19 pm IST
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