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This Article is From May 25, 2016

बेघरों के लिए यह गर्मी कितनी भयंकर है...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 26, 2016 19:47 pm IST
    • Published On मई 25, 2016 21:00 pm IST
    • Last Updated On मई 26, 2016 19:47 pm IST
2022 आने में अभी छह साल का वक्त है। 2022 वह साल होगा, जबकि ‘सभी के लिए आवास’ का हमारे प्रधानमंत्री का सपना पूरा हो जाएगा। इसके लिए उन्होंने छह साल की बड़ी समयावधि तय की है। इतना लंबा समय लेने का मतलब है कि देश में बेघरबारों की बड़ी संख्या है, लेकिन तब तक बेघरबारों के लिए जो अस्थायी व्यवस्थाएं (आश्रय गृह) आदि हैं उनको चाक-चौबंद करने की बड़ी जरूरत है। पर ऐसा है नहीं! आश्रय घर जैसे ढांचे मौजूदा समय में केवल चारदीवारी बनकर रह गए हैं, ताकि देश की अदालतों की डांट खाने से बच जाएं। इनकी सबसे ज्यादा सक्रियता अत्यधिक ठंड के मौसम में ही नजर आती है, जब इनका एक या दो दौरे में औचक निरीक्षण होता है, कोर्ट इनके लिए निर्देश जारी करती है, एनजीओ के लोग एडवोकेसी करते हैं। लेकिन गर्मी जैसे भयानक मौसम में भी इनकी कितनी उपयोगिता है, इसका न तो ठीक-ठीक अंदाजा लगाया जाता है, न व्यवस्था की जाती है और न ही किसी और स्तर की सक्रियता होती है।

अभी हाल ही में खबर आई कि मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में लू लगने से 7 लोगों की मौत हो गई, जबकि 100 लोग गर्मी के कारण डायरिया से पीड़ित हो गए, जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। ऐसे मामले हर शहर में सामने आते हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में इसी साल हजार से ज्यादा मौतें लू लगने से हुई हैं। ओडिशा में भी यह आंकड़ा तकरीबन शतक के आसपास है। गर्मी में लू लगना, डायरिया होना और उसके कारण होने वाली अन्य बीमारियां बेहद आम हैं। यह बीमारियां घरों में रहने वाले लोगों के लिए भी भारी पड़ती हैं, सोचिए ऐसा मौसम उन लोगों पर कितना भारी होता होगा, जिनके सिर पर एक अदद छत नहीं है। जिनका शरीर दोपहर के 45-46 डिग्री तापमान से लेकर रात में चलती गर्म हवा को कैसे झेलता है। यह आबादी कोई सौ-दो सौ लोगों की नहीं है।

भारत की जनगणना में बेघर लोगों का आंकलन भी किया जाता है। 2011 की जनगणना हमें बताती है कि साल 2011 में बेघर या आश्रयविहीन लोगों की संख्या 17.72 लाख थी। इसे आसानी से समझें तो देश में तकरीबन भोपाल या इंदौर शहर जितनी आबादी अब भी बेघर है। केवल शहरी जनसंख्या को देखें तो 9.38 लाख लोग ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत नहीं है। जाहिर है बाकी ग्रामीण आबादी में भी बेघरबार लोगों का आंकड़ा कोई कम नहीं है। यह वह लोग हैं, जिनके सिर पर किसी तरह की कोई पक्की छत नहीं है, लेकिन इस परिभाषा में उन लोगों को शामिल ही नहीं किया गया है जो कि पन्नी या ऐसे ही किसी अस्थायी आवास में रहते हैं। भले ही उनका आवास एक हल्की बारिश, आंधी या भीषण गर्मी को सहने योग्य नहीं है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि जनकल्याणकारी राज्य में लोगों को ऐसे मौसम से बचाए रखने की कुछ चाकचौबंद व्यवस्थाएं हों। लेकिन इसके लिए मंशा साफ होनी चाहिए।

दिक्कत यह है कि देश में ज्यादातर व्यवस्थाएं निर्देशों के परिपालन में होती हैं। जब तक अंदर से तीसरी दुनिया की मजबूर लोगों की जरूरतों को पूरा करने की आवाज नहीं आती, तब तक वह केवल रस्मअदायगी जैसी ही बात होगी। दुखद यह है कि इसके लिए जो संवेदना का तत्व है, वह कहीं खोया हुआ लगता है। तभी हर मौसम में देश के तकरीबन हर इलाके से ऐसे मौतों पर आह भी नहीं निकलती। इसीलिए सिस्टम भी ऐसे ही धीरे-धीरे चलता है, तकरीबन रेंगते हुए।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक हर एक शहर में एक लाख की आबादी पर एक रैन बसेरा होना चाहिए। इस आधार पर देश के सभी राज्यों में 2402 आश्रय घर बनाये जाने की जरूरत है, लेकिन 27 नवंबर, 2015 की स्थिति में 1340 आश्रय घर ही मौजूद हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 27 नवंबर, 2015 को केंद्रीय आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय द्वारा दाखिल हलफनामों से पता चलता है कि महाराष्ट्र में 409, उत्तर प्रदेश में 250, मध्य प्रदेश में 122, राजस्थान में 118 और दिल्ली में कुल 141 आश्रय घरों की स्थापना जरूरत है।

लेकिन समुदाय की अपनी ताकत भी तो खत्म हो रही है, जो कुछ वक्त पहले तक तो ऐसी ही मुसीबतों से जमकर लोहा ले लेता था, बिना सरकार का मुंह ताके। आप खुद शहर का एक चक्कर मार लीजिए। 10 साल पहले तक हर नुक्कड़, हर चौराहे पर ठंडा पानी पिलाने वाले प्याऊ कहां गायब हो गए। आखिर कैसे इन्हीं 10-12 सालों में पानी की बीस रुपये लीटर वाली बॉटलों का बाजार कितना बढ़ गया है। आखिर कैसे हमने इतनी आसानी से रेलवे प्लेटफार्म या शहर में 1-2 रुपये वाली ठंडे पानी की योजनाओं को स्वीकार कर लिया है। बात रुपये के कम-ज्यादा होने की नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि हमारी व्यवस्थाओं और आर्थिक रूप से सक्षम समाज ने यह स्वीकार कर लिया है कि जो भुगतान करेगा, उसे ही किसी भी प्रकार की शुद्ध सेवा हासिल होगी। जो सक्षम नहीं होगा, वह कहीं लू से मरता रहेगा, कहीं ठंड से, कहीं बीमारी से या कहीं भूख से।

दुख की बात यह है कि हमारा देश का केवल छोटा सा वर्ग ही इस सक्षम की श्रेणी में आ पाया है। सवाल केवल प्राथमिकता का है और इन्हीं प्राथमिकताओं में असफल हो जाने के कारण दो साल पहले कुछ अच्छे दिनों की आस लिए लोगों ने एक बड़ा फैसला देश को दिया था। दो साल बीत जाने के बाद यह देश फिर हक्का-बक्का सा है, क्योंकि महंगाई तो उसकी जान ले ही रही है, बाकी वायदों पर भी सिवाय आशा और उम्मीद के हकीकत में कुछ खास मिला नहीं है। जितने लोग अब से दो साल पहले सड़कों पर बेघरबार थे, अब भी वैसे ही लू के थपेड़े सह रहे हैं। दो साल का वक्त यूं तो काफी नहीं होता है, लेकिन यदि आप इसमें भी घर-रोटी और रोजगार से ज्यादा प्राथमिकता शौचालय को देंगे, तो जाहिर सी बात है कि बिना पानी के वह कैसे काम करेंगे? जाहिर है इसकी शुरुआत और निचले स्तर से करनी होगी। वरना स्मार्ट और डिजिटल इंडिया का सपना देश में कहीं सपना बनकर ही न रह जाए।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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