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This Article is From May 27, 2016

दूसरी सालगिरह पर मोदी सरकार कितनी खरी?

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 27, 2016 14:18 pm IST
    • Published On मई 27, 2016 14:18 pm IST
    • Last Updated On मई 27, 2016 14:18 pm IST
अमूमन किसी सरकार की दूसरी सालगिरह भारी जश्न का कारण तभी बनती है जब उसके पास कोई खास वजह हो। बेशक, केंद्र में कई दशकों बाद भारी बहुमत से आई एनडीए-2 सरकार को यह खास वजह हाल में असम के विधानसभा चुनावों में भारी जीत ने मुहैया कराई है। शायद वह इस अवसर को अगले साल राजनैतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश चुनावों में अपनी संभावना बेहतर करने के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। लेकिन सवाल है कि क्या एनडीए-2 या मोदी सरकार अपनी जगाई उम्मीदों पर खरी उतर पाई है?

सरकार की कामयाबी उसके द्वारा शुरू की गईं ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों से होती है जो समाज, राजनीति और बौद्धिक माहौल में क्रांतिकारी बदलाव ला दे। ऐसे बदलाव की नींव ज्यादातर सत्ता के शुरुआती वर्षों में ही रखी जाती है। पहले साल ही राजीव गांधी सैम पित्रोदा को ले आए थे और सी-डॉट की स्थापना की थी। दूरसंचार के क्षेत्र में मौजूदा क्रांति का श्रेय राजीव गांधी की उसी पहल को है। पीवी नरसिंह राव ने अपने पहले बजट से ही उद्योगों को लाइसेंस राज से मुक्त करके आर्थिक उदारीकरण की ओर कदम बढ़ाया जिसके दूरगामी नतीजे हुए। बराक ओबामा ने अल अजहर विश्वविद्यालय में अपने संबोधन से मुसलमानों की भावनाओं को छूने की कोशिश की और अमेरिका द्वारा बुश की विदेश नीति में बदलाव का संकेत दे दिया। उन्होंने तभी इराक और अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी का भी संकेत दे दिया था। अब आइए देखें कि मोदी सरकार ने अपने दो साल में क्या हासिल किया?  इसमें दो राय नहीं कि सरकार ने स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, जन धन योजना, उज्ज्वला योजना जैसी कई नई शुरुआत काफी जोरशोर से कीं। हालांकि कुछ लोगों की राय में इनमें से कई पूर्व यूपीए सरकार की योजनाएं थीं जिनको नए रंग-रूप और जज्बे के साथ पेश किया गया। लेकिन प्रधानमंत्री एक बार संसद में कह चुके हैं कि सरकारें अमूमन निरंतरता में चलती हैं और अच्छी योजनाओं को आगे ले जाने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।

बहरहाल, अगर कुछ प्रमुख मीडिया समूहों के जनमत सर्वेक्षणों को देखें तो सरकार के कामकाज के बारे में तस्वीर कुछ मिली-जुली सी दिखती है। टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सर्वेक्षण में मोदी की लोकप्रियता करीब 62 प्रतिशत बताई गई, जो पहले साल के 75 प्रतिशत से कुछ घटी है। इंडिया टुडे के फरवरी 2016 के सर्वेक्षण के मुताबिक मोदी अभी भी सबसे बेहतर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। इस साल अप्रैल में इकोनॉमिक टाइम्स के सर्वेक्षण के मुताबिक ‘‘सरकार के आर्थिक प्रदर्शन को सही ठहराने वाले 86 प्रतिशत लोग थे जबकि 62 प्रतिशत ने कहा कि सरकार ने रोजगार के अवसर पैदा किए हैं और 58 प्रतिशत के अनुसार भविष्य बेहतर होने की उम्मीद है।’’

लेकिन हाल में आए पांच राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरि के विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या मोदी सरकार के कामकाज के बारे में यही तस्वीर पेश करते हैं? आइए इनके आंकड़ों की जरा छानबीन करें। इन राज्यों की कुल 824 सीटों में से कांग्रेस को 115 जबकि भाजपा को 64 सीटें ही मिली हैं। वाम मोर्चे को इन चुनावों में 124 सीटें (बंगाल में 33 और केरल में 91), तृणमूल कांग्रेस को 211 सीटें, अन्नाद्रमुक को 134 सीटें, द्रमुक को 94 सीटें मिली हैं। यह भी गौर कर सकते हैं कि इनके दबदबे वाले इलाकों में भाजपा की पैठ न के बराबर ही है। पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में उसका वोट प्रतिशत 2014 के मुकाबले घट गया है। असम में भाजपा की वोट हिस्सेदारी (29.5 प्रतिशत) काफी बढ़कर भी कांग्रेस (31 प्रतिशत) के मुकाबले कम है। अगर भाजपा की वोट हिस्सेदारी में अगप के (8.1) और बोडो पीपुल्स फ्रंट के (3.9) वोट प्रतिशत को जोड़ दें तब भी वह 41.5 प्रतिशत ही बैठता है, जो कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल के ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के 13 प्रतिशत वोट के योग 44 प्रतिशत से कम है। इसलिए भाजपा को अपने ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे को साकार करने के लिए अभी काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी।

बेशक, भाजपा पूर्वोत्तर के बड़े राज्य असम में धूम-धड़ाके के साथ लगभग आधी 60 सीटें (कुल सीटें 126) हासिल करने में कामयाब हो पाई है। लेकिन यह ध्यान में रखना होगा कि उसकी यह विजय कांग्रेस के एक धड़े के बड़े नेता हेमंत विस्वा शर्मा (जिन पर भाजपा ही पहले भ्रष्टाचार के कई मामलों में हमलावर रही है और हाल तक उनकी जांच बैठाने का वादा करती रही है) को शामिल करने और असम गण परिषद तथा बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट से गठजोड़ कायम करने से हुआ है। इस मायने में दिल्ली में भले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह फूलों की बारिश के बीच अपने सिर जीत का सेहरा बांध लें मगर राज्य में यह सर्वानंद सोनोवाल, हेमंत विस्वा शर्मा और प्रफुल्ल महंत की तिकड़ी के परिश्रम से ही हुआ है। सर्वानंद भी एक समय अगप में ही रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि भाजपा को यह हासिल करने में कम से कम हाल के तीन चुनाव और केंद्र में एक अदद सरकार की दरकार पड़ी है। यह भी गौर किया जाना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली एनडीए की सरकार बनी थी तब भी पूर्वोत्तर और बंगाल के साथ केरल वगैरह में भाजपा के प्रति दिलचस्पी कुछ बढ़ गई थी।

यह भी गौर करें कि असम में मोदी और शाह के प्रचार को काफी सीमित करना पड़ा। यानी यह चुनाव मोदी सरकार के कामकाज पर बहुत अनुकूल टिप्प्णी नहीं करते, जैसा कि मीडिया हाउसों के सर्वेक्षणों से जाहिर होता है। यह भी देखें कि बंगाल, केरल और तमिलनाडु में तीन सरकारें भारी बहुमत से ऐसी बनी हैं जो मोदी सरकार की नव-उदारवादी नीतियों के बरक्स कल्याणकारी नीतियों की हिमायती हैं।

मोदी और उनके मंत्री अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि यह बताते हैं कि इन दो साल में देश को भ्रष्टाचार मुक्त शासन का अहम तोहफा मय्यसर हुआ है। यूपीए-2 की पूर्व मनमोहन सिंह सरकार के अनेक घपलों-घोटालों के खुलने की बात पर गौर करें तो यह उपलब्धि जैसा लगता है। लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि यूपीए-1 के पांच साल में घोटाले नहीं के बराबर उभरे थे और एनडीए-1 की अटलबिहारी सरकार में भी घोटालों की फेहरिस्त तीसरे-चौथे साल से खुलनी शुरू हुई थी। मोदी सरकार के अभी तो दो ही साल हुए हैं।

मोदी अपनी उस छवि पर खरे नहीं उतर पाए हैं कि वे साहसिक सुधारक हैं। आजकल तो उनको सुनने से लगेगा कि वे किसी कांग्रेस सरकार के मुखिया की तरह कल्याणकारी योजनाओं के जरिए ग्रामीण गरीबों और किसानों पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। लेकिन मोदी ने तो यह वादा किया था कि वे ऐसा माहौल बनाएंगे जिसमें कोई गरीब रहेगा ही नहीं। उनके दो साल के राज में गरीबी मिटा देने वाले बड़े सुधार नहीं दिखे हैं। वे उन सुधारों की ओर भी आगे नहीं बढ़ पाए जिसके लिए संसदीय मंजूरी की दरकार नहीं है। कोई प्रशासनिक, पुलिस कार्यप्रणाली या शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार नहीं किए जा सके हैं।

इसी तरह मोदी का बहुप्रचारित ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम भी सिर्फ सेमिनारों में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। मोदी की दूसरी समस्या यह है कि वे बहुत ज्यादा बोलते या वादे करते हैं और उस पर आगे ज्यादा कुछ नहीं करते। मसलन, उन्होंने बड़े जोर-शोर से ‘‘स्वच्छ भारत’’ अभियान की शुरुआत की। लेकिन उन्होंने इसकी कोई व्यवस्था नहीं की कि कैसे इस पर अमल हो।

मोदी यह बताने का भी कोई मौका जाया नहीं जाने देते कि भारत में आबादी के गणित के काफी फायदे हैं, खासकर यहां की आधी आबादी युवा है। लेकिन इस क्षमता का दोहन तभी हो सकेगा जब यह युवा अच्छे रोजगार  पाएंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यही आबादी दुर्दशा का कारण बन जाएगी। इस संदर्भ में श्रम ब्यूरो से हाल ही में जारी हुए आंकड़े वाकई चिंताजनक हैं। आठ श्रम साध्य क्षेत्रों (कपड़ा, सिले-सिलाए कपड़े, चमड़ा, जेवरात, बीपीओ, हथकरघा, धातु और वाहन) में रोजगार सृजन 2015 में महज 1.35 लाख ही हुआ जबकि उसके पिछले साल यह आंकड़ा 4.9 लाख था और 2009 में तो 12.5 लाख था। इससे भी बुरी खबर यह है कि 2015 की आखिरी तिमाही में इन आठ क्षेत्रों में और गिरावट आई है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मोदी उन उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए अभी बहुत कुछ नहीं कर पाए हैं, जो उन्होंने दो साल पहले भारतीयों में जगाई थी।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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