शायद सुप्रीम कोर्ट की जानकारी में न हो मगर अब अस्पताल भी आधार नंबर मांगने लगे हैं. अस्पताल का आधार से क्या लेना देना मगर मांगने का चलन ऐसे बढ़ गया है कि हम और आप बिना जाने समझे आधार नंबर दिए जा रहे हैं. यहां तक कि बैंक वाले दिन रात आधार मांग रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को है कि जब तक अंतिम फैसला नहीं आ जाता, आधार को अनिवार्य नहीं किया जाएगा. यह काम पहले ही हो जाना चाहिए था क्योंकि एक तरफ सुनवाई हो रही है और दूसरी तरफ आधार नंबर हर तरह के सेक्टर में मांगा जाने लगा है. लोग बिना सोचे समझे इस नंबर को किसी को भी सौंपते जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिन्हें सब्सिडी दी जा रही है, समाज कल्याणकारी योजनाओं में ही आधार नंबर की ज़रूरत है. मगर सामाजिक कार्यकर्ता बार-बार उदाहरण दे रहे हैं कि वहां भी इसके कारण दिक्कतें आ रही हैं. उन मामलों में छूट दिए जाने की ज़रूरत है.
जैसे ही किसानों के जत्थे ने मुंबई में प्रवेश किया, उनके लिए मुंबई बदल गई. लाल बाग का फ्लाईओवर ख़त्म होते ही मोहम्मद अली रोड पर आम लोग पूरी तैयारी के साथ किसानों की मदद के लिए खड़े थे. पानी की बोतल देने लगे, केला और बिस्कुट खिलाने लगे. इनके साथ डॉक्टरों की टीम भी थी जो किसानों के पांव की मरहम पट्टी करने लगी. पेन किलर देने लगे. लोग किसानों के बीच जाकर पूछने लगे कि बताइये आपको कोई तकलीफ तो नहीं है. रुला देने वाला मंज़र था ये. यही नहीं, जब इनके जत्थे रात को सोमाया ग्राउंड से आज़ाद मैदान की तरफ बढ़ने लगे तो स्थानीय लोगों ने बुज़ुर्ग किसानों को अपनी गाड़ी में बिठाकर आज़ाद मैदान तक छोड़ा. उस रात जब हम बेखबर रहे, मुंबई के ये लोग हिन्दुस्तान के उस हिस्से के लिए जाग रहे थे जो अपने अकेलेपन में न जाने कितने साल से फांसी के फंदे पर लटकर कर जान दे रहे थे. शायद उन्हीं के रतजगे का असर है कि आज भी इस पर प्राइम टाइम कर रहा हूं ताकि यह जज़्बा और भी दूसरे शहरों में फैल जाए और आप दर्शकों की तरफ से मुंबई के इन शहरियों को सलाम भी भेज सकूं. शिवसेना ने भी ठाणे में इन किसानों के लिए रुकने, ठहरने और शौचालय का इंतज़ाम किया था. चाय के ठेले लगाए थे. उनके विधायक एकनाथ शिंदे तो छह लोगों की कमेटी में भी थे. बाद में आज़ाद मैदान में हर दल के लोग किसानों की मदद के लिए आ गए. शायद यह पहला मौका होगा जब महाराष्ट्र के इन किसानों को लगा होगा कि उनके लिए भी कोई है. कोई है जो रातों को जाग सकता है. ये सारी तस्वीरें हमें न्यूज़ क्लिक के आनंद ने उपलब्ध कराईं हैं.
क्या सिर्फ उनके अनुशासन और अपनी मांगों के प्रति कमिटमेंट के कारण मुंबईकर अपने घरों से निकल उनकी मदद करने लगे या फिर उन्हें किसानों की ज़िंदगी के साथ हो रहे मज़ाक का खेल समझ आ गया कि कोई हज़ारों करोड़ का लोन लेकर आराम से भाग जाता है और कोई अपनी ग़रीबी और कर्ज़े से लड़ने के लिए 180 किमी पैदल चल कर सरकार के पास आता है. जब ये किसान चले तो दो दिनों तक उनका अपना खाना था मगर इनके इरादे ने रास्ते में पड़ने वाले कस्बों शहरों को बदल दिया. रैली के आयोजक अनाज और सब्जी मांगकर खाना तैयार करने लगे.
सीरिया के जंगी हालात में मदद के लिए पहुंच जाने वाले खालसा एड के लोग भी पानी की बोतल सुबह से बांटने लगे. इन्हीं के बीच में रेज़िडेंट्स वेलफेयर वाले चप्पल लेकर बांटने लगे. कोई खाना ले आया तो कोई चाय ले आया. मुंबई के डब्बा वाले भी खाना लेकर आ गए. छात्रों का जत्था भी यहां मदद के लिए आ गया. लोगों ने सरकार से ज़्यादा अपनी जेब से इन किसानों का ख़्याल रखकर बता दिया कि इनकी उपेक्षा अब और बर्दाश्त नहीं की जाएगी.
पिछले एक साल तक किसानों ने कई जगहों पर प्रदर्शन किए. सीकर को छोड़कर कहीं भी उन्हें आम जनता का समर्थन नहीं मिला. वे दिल्ली आए तो उनके लिए दिल्ली नहीं गई. वे लौट गए दिल्ली ने राहत की सांस ली. दिल्ली के जंतर-मंतर पर किसान आते रहते हैं, न समाज को फर्क पड़ता है न सरकार को. तमिलनाडु से किसान यहां 40 दिनों तक प्रदर्शन करते रहे. उन्होंने खुली सड़क पर दाल और भात रखकर खा लिया मगर किसी का दिल नहीं पिघला. मुंबई में पूरे शहर के पास भले वक़्त न हो मगर बहुतों के पास उनके लिए एक रात काफी थी.
जंतर-मंतर पर भारतीय किसान यूनियन के किसान जमा हुए हैं. इन किसानों की मांग भी वही है जो महाराष्ट्र के किसानों की है. यूपी के आलू किसान बर्बादी के कगार पर हैं. बीमा कंपनियों के दबाव में बैंक वाले किसानों की जानकारी के बग़ैर प्रीमियम काट ले रहे हैं. किसान अब ब्याज़ के साथ प्रीमियम भी दे रहा है. भारतीय किसान यूनियन की मांग है कि मौजूदा फसल बीमा योजना किसानों के हक में नहीं है. इससे सिर्फ बीमा कंपनियों को लाभ हो रहा है. इस बीमा के तहत पूरी पंचायत के नुकसान को आधार मानकर नुकसान का आंकलन किया जाता है. भारतीय किसान यूनियन की मांग है कि खेत को और किसान को आधार मांग कर बीमा दिया जाए न कि पंचायत को. जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनके परिवार के पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति बने. लागत का डेढ़ गुना दाम किसानों को देने की व्यवस्था की जाए. गन्ने की बकाया राशि का भुगतान तुरंत किया जाए.
चाहे बीजेपी की सरकार हो या कांग्रेस की सरकार हो, किसानों को लागत का डेढ़ गुना किसी ने नहीं दिया. कांग्रेस को किसान आंदोलन से खुश होने से पहले अपने बचे हुए राज्यों में पता करना चाहिए कि वहां किसानों की स्थिति क्या अन्य राज्यों से बेहतर है. पंजाब के किसानों की शिकायतें अभी दूर नहीं हुई हैं. भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले कुछ किसान पंजाब से भी आए थे जहां कांग्रेस की सरकार है.
समझौता तो हो जाता है, अखबार में ख़बर भी छप जाती है लेकिन क्या मुंबई का किसान आंदोलन सफल रहा है, बाकी जगहों का क्यों फेल हो गया?
This Article is From Mar 13, 2018
देश का पेट भरने वालों की हमें कितनी चिंता?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 13, 2018 22:19 pm IST
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Published On मार्च 13, 2018 22:19 pm IST
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Last Updated On मार्च 13, 2018 22:19 pm IST
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