हिंदी के विलक्षण कवि-लेखक विष्णु खरे नहीं रहे. बुधवार दोपहर बाद दिल्ली के गोविंद वल्लभ पंत अस्पताल में उनका निधन हो गया. करीब हफ़्ते भर पहले वे मस्तिष्काघात के शिकार हुए थे और नीम बेहोशी में अस्पताल लाए गए थे. कुछ ही महीने पहले उन्होंने दिल्ली को दूसरी बार अपना ठिकाना बनाया था. उन्होंने 79 साल की उम्र में हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद संभाला था. दिल्ली के जिस मयूर विहार फ़ेज़ वन से वे अपना मकान बेच कर गए थे, वहीं किरायेदार की हैसियत में लौटे थे- बेशक किसी लाचारी में नहीं, बल्कि अपने स्वभाव की बीहड़ता के अनुकूल अपना जीवन अपने ढंग से जीते हुए एक नई वापसी के लिए.
इत्तेफाक से इस वापसी में मेरी उनसे सबसे ज़्यादा बातें हुईं- बेशक फोन पर ही, मिलने का वादा मुल्तवी होता रहा- अब हमेशा मुल्तवी रहेगा. वे हिंदी अकादमी में काफी कुछ नया करने की सोचते थे और पाते थे कि इसमें कुछ मुश्किलें भी हैं. मेरी सलाह थी कि एक राज्य की अकादमी होने का उपाध्यक्ष होने के नाते वे कुछ लोकप्रिय क़िस्म की चीज़ों की गुंज़ाइश छोड़ते हुए अपने ढंग से कुछ साहित्यिक आयोजन करें. ऐसे आयोजन हुए भी.
आखिरी बार मेरी बातचीत उनके साथ हुए हादसे के कुछ दिन पहले हुई थी. 14 सितंबर को वे हिंदी दिवस पर एक आयोजन करना चाहते थे और चाहते थे कि मैं उसमें संचालक का दायित्व निभाऊं. उस दिन समय निकालना मेरे लिए मुश्किल था और मैंने उन्हें सुशील बहुगुणा का नाम सुझाया था. इन्होंने मान लिया था. यह चर्चा भी हुई कि आने वाले दिनों में कुछ और रचनात्मक आयोजनों की बात सोची जाए.
लेकिन वे दिन नहीं आए. दिल्ली में एक अंधेरी रात मौत ने उन पर जैसे झपट्टा मारा. सुबह अचेतावस्था में मिले. अगले कई दिन तक हिंदी की दुनिया उनके लिए दुआएं करती रही. सारी दुआएं मगर बेअसर रहीं.
विष्णु खरे बहुत बीहड़ विलक्षण व्यकित्व के मालिक थे. ख़ुद नाराज़ होना और दूसरों को नाराज़ करना उन्हें ख़ूब आता था. ऐसे कम लोग होंगे जो उनके क़रीब रहे होंगे और उनसे झगड़े न होंगे. उनकी बीहड़ता से आक्रांत नवभारत टाइम्स के उनके कुछ सहकर्मी उन्हें उल्टे सीधे नामों से बुलाते थे, लेकिन इसके बावजूद उनके प्रति सम्मान और स्नेह कभी किसी के मन में कम नहीं रहा.
इस स्नेह या सम्मान की क्या वजह थी? क्या यह हिंदी समाज का अपना बड़प्पन था कि वह एक तुनकमिज़ाज या तल्ख लेखक को झेलता रहा? सच्चाई इसके उलट है. शायद यह समाज यह महसूस करता रहा कि वह विष्णु खरे की तल्ख़ी, तुनकमिज़ाजी का पात्र है. बल्कि धीरे-धीरे विष्णु खरे हिंदी भाषी समाज की बची-खुची उत्कृष्टता के मानक होते जा रहे थे. वे हिंदी की उन विरल शख्सियतों में रह गए थे जो एक साथ कई विधाओं और क्षेत्रों में दख़ल रखते थे. वे बिल्कुल नए और युवा लेखकों को भी ध्यान से पढ़ते थे और उन पर अच्छी-बुरी टिप्पणी देने में गुरेज़ नहीं करते थे. अंतरराष्ट्रीय कविता में भी उनकी गति और पकड़ पर्याप्त समृद्ध थी और अलग-अलग भाषाओं के नए-पुराने कवियों से उनका परिचय किसी को आश्चर्य में डाल सकता था. वे खासकर सिनेमा की विषय-वस्तु पर अनूठे ढंग से लिखते थे. हिंदी लेखन और साहित्य की परंपरा पर तो उनकी पकड़ अचूक थी ही.
सबसे बड़ी बात- वे संवाद में भरपूर यकीन रखते थे. यह यक़ीन अच्छी-मीठी बातों वाला दिखाऊ यकीन नहीं था, बल्कि बहुत सख़्त असहमतियों को सख़्त ज़ुबान में रख सकने वाला यक़ीन था. वे इस लिहाज से बिल्कुल बेलाग-बेपरवाह कवि-लेखक-पत्रकार थे. करीब दो दशक पहले दिल्ली में पत्रकारिता के एक सेमिनार में उन्होंने कई बड़े संपादकों की उपस्थिति में उनकी धज्जियां उड़ाई थीं. ऐसे अवसर अनेक होते थे जब वे अपनी कटुता को अपने प्रखर हास्यबोध के साथ जोड़ते हुए सामने वाले पर बिल्कुल कशाघात करते थे. इस लिहाज से वे हिंदी के दुर्वासा से कुछ अधिक थे.
लेकिन विष्णु खरे का असल मोल उनकी कविता में निहित था. हिंदी की समृद्ध काव्य परंपरा में उनका योगदान बहुत अलग से पहचाना जा सकता है. उनकी कुछ कविताएं तो अपने प्रकाशन के साथ ही लगभग क्लासिक हो गईं. 'लालटेन जलाना', 'सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा', 'बेटियों के बाप' जैसी कविताएं इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं. वे लगभग नामुमकिन लगते विषयों पर कविता लिख सकते थे. उनकी एक कविता अज्ञेय से मिलने गए रघुवीर सहाय के बारे में है. खास बात ये है कि वे बिल्कुल अकाव्यात्मक शिल्प में- लगभग अख़बारी ख़बर की तरह- कविता लिखते थे. एक तरह की तनी हुई तटस्थता, निर्लिप्तता और निर्ममता उनका काव्य विधान बनाती थी. जैसे वे कविता नहीं लिख रहे, तथ्य रख रहे हों और अचानक इन तथ्यों के बीच छुपी काव्यात्मकता को वे उजागर कर देते हों. जाहिर है, उनकी कविता तात्कालिक आवेगों या प्रतिक्रियाओं पर निर्भर नहीं हुआ करती थी, बल्कि उसमें एक सुदीर्घ वैचारिकता से बनती हुई संवेदना थी जो पढ़ने वाले को एक नया कोण दे जाती थी.
उनके संग्रह 'काल और अवधि के दर्मियान' में एक कविता 2002 के गुजरात दंगों के बारे में है. गुजरात दंगों पर बहुत सारे लोगों ने बहुत मार्मिक कविताएं लिखी हैं. लेकिन विष्णु खरे जैसे बहुत विचलित मन के साथ उन दंगों की एक-एक परत खोलते हैं, जैसे पूरी प्रदक्षिणा कर रहे हों, खुद को कसूरवार भी ठहराते हैं- अपने बेटों को खो चुकी मांओं के सामने अपराधी के तौर पर किसी नखजले विजेता की तरह खड़े होने को तैयार. यह अपने पूरे प्रभाव में एक अद्भुत कविता है.
ऐसी कविताएं विष्णु खरे के यहां भरी पड़ी हैं. उनके बाद के संग्रह 'पाठांतर' की एक कविता गणेश का सिर काटे जाने के बारे में है, एक कविता शंबूक पर है. एक कविता बादशाह अकबर के एक प्रयोग पर है जो देखना चाहता है कि ईश्वर कौन सी बोली बोलता है और कई नवजात शिशुओं को एक गुंगमहल में रखवा देता है. वह पाता है कि इंसानी बोली के संसर्ग से कटे ये बच्चे बिल्कुल जानवरों जैसे हो गए हैं, कि कोई खुदा कोई ईश्वर इनको अपनी भाषा सिखाने नहीं आया.
दरअसल इस तात्कालिक टिप्पणी में उन सारी कविताओं का ज़िक्र लगभग नामुमकिन है जो विष्णु खरे को हिंदी का अप्रतिम कवि बनाती हैं. इन कविताओं में एक ख़ास बात और दिखती है- भाषा पर उनकी अद्वितीय पकड़. एक ही कविता के भीतर ठेठ तत्सम शब्दों से लेकर ठेठ उर्दू तक वे इतनी सहजता से जाते हैं कि हैरानी होती है. अचानक समझ में आता है कि जिसे हम शुष्क वर्णनात्मकता की तरह देख रहे हैं, उसके भीतर का रस उनकी वाक्य रचनाओं में है जो बेहद मार्मिक हुआ करती हैं.
मैंने उनके कविता संग्रह 'काल और अवधि के दरमियान' पर एक टिप्पणी लिखी थी. इस टिप्पणी के बाद उनका फोन आया था. उन्होंने कहा कि वे मुझसे वही कह सकते हैं जो उनसे बीस बरस पहले रघुवीर सहाय ने कहा था जब उन्होंने रघुवीर सहाय की किताब पर टिप्पणी लिखी थी. मेरे पूछने पर विष्णु खरे ने बताया, रघुवीर सहाय ने कहा था कि जब तुमने 95 नंबर दे दिए तो पांच काट क्यों लिए. मैंने हंसते हुए कहा- 5 नंबर तो आपको काल दे देगा.
आज निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वे ऐसे नंबर के लिए काल के मोहताज नहीं थे. पत्रकारिता में भी उन्होंने लंबा समय गुज़ारा और 'नवभारत टाइम्स' के स्वर्णिम दिनों की कुछ बेहतरीन टिप्पणियां उनकी कलम से निकलीं.
अनुवाद, पत्रकारिता, आलोचना, कविता- सबमें जैसे वे अप्रतिम थे. वे बेहद पेशेवर लेखक थे और अवसरानुकूल सयानापन भी कई बार दिखाते थे. लेकिन पिछड़ों, दलितों, और अल्पसंख्यकों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कमाल की थी. आप कहीं से भी उनकी कविता, उनके लेख उठा लें, उनका पूरा लेखन अचूक ढंग से कमज़ोर लोगों के पक्ष में खड़ा है.
वे दिल्ली छोड़ कर मुंबई गए थे, फिर उन्होंने अपनी पैदाइश के शहर छिंदवाड़ा में पांव टिकाए, लेकिन अंततः अचानक, बहुत अप्रत्याशित ढंग से दिल्ली लौट आए. क्या यह मौत का बुलावा था जिसने उन्हें एक रात घेर लिया? ऐसे नियतिवाद पर हमारा यक़ीन नहीं, लेकिन जिस तरह वे गए, उसमें एक विडंबना दिखती है- कहना मुश्किल है- यह अकेला लेखक होने की विडंबना है या इसका कोई सामाजिक आयाम भी है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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This Article is From Sep 19, 2018
हिंदी के बीहड़ और दुर्धर्ष व्यक्तित्व का अवसान
Priyadarshan
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 19, 2018 21:22 pm IST
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Published On सितंबर 19, 2018 21:22 pm IST
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Last Updated On सितंबर 19, 2018 21:22 pm IST
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