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This Article is From Nov 21, 2016

हे प्रभु, बुलेट ट्रेन पर आशंका बढ़ती जा रही है…

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 21, 2016 14:46 pm IST
    • Published On नवंबर 21, 2016 14:46 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 21, 2016 14:46 pm IST
भारत जैसे पाखंडी देश में किसी भी मुद्दे पर शोध करना, जानकारी इकट्ठा करना, संवाद करके, अलग-अलग विचारों को सुनना, अपनी धारणा बनाना किसी को भी फ़्रॉयड या चंकी पांडे बना सकता है. और इसी कठिन सफर पर मैं निकला था. अपनी राय बना रहा था. और वक्त के साथ कैसे मेरी सोच में तब्दीलियां आती जा रही हैं आज वही आपके सामने रख रहा हूं, बिना किसी दावे-बिना किसी ताने के, सिर्फ आग्रह* के साथ. (*आग्रह दरअसल एक दूरस्थ आध्यात्मिक सौरमंडल का गोला है जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह के बाद आता है)

वो आग्रह था बुलेट ट्रेन के लिए. नई सरकार ने बड़े तामझाम से इस योजना का ऐलान किया था. ऐसे क्रांतिकारी ऐलान पहले भी होते रहे हैं ... हम मुंबई को मुंबई नहीं बना सकते, शंघाई बनाने की बात की. काशी को काशी नहीं रहने दे सकते लेकिन क्योटो बनाने पर अड़ गए. गुड़गांव को पता नहीं क्या बनाना था और क्या बन गया, इस पर कोई नारा भी याद नहीं आ रहा. वैसे ये नारे मुझे पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर काफी इस्तेमाल होने वाला जुमला याद दिलाते हैं- एहसास-ए-कमतरी.  पर बात अभी आगे ले जानी पड़ेगी.  प्रजातंत्र में अगर विरोध नहीं हो तो वो बीमारी का लक्षण है. तो  बुलेट ट्रेन के मुद्दे पर भारी मतभेद और सवालों से ये तो साफ था कि प्रजातंत्र बहुत ज्यादा अलाइव एंड किकिंग है. कहा गया कि भारत में एक लाख करोड़ के बजट वाली बुलेट ट्रेन की आखिर जरूरत क्या है, भारत जैसे देश के लिए, अर्थव्यवस्था के लिए. कहा गया कि आखिर मुंबई और अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन लाने की जरूरत आखिर क्या है, सवा पांच सौ किलोमीटर के लिए एक लाख करोड़ का क्या तर्क है. जापान से कर्जा लेकर इस विकसित रूट पर यह परियोजना क्यों हो? पहले से कई ट्रेनें हैं. कई फ़्लाइट हैं. तो इन सब सवालों और तर्कों से परे मेरी समझ कुछ और थी बुलेट ट्रेनों के लिए.

मुझे न तो देश के बहीखाता की पूरी जानकारी है, न उस पर अभी मैं जाना चाहूंगा. कई जानकारों की तरह बुलेट ट्रेन की तुलना मैं देश के स्वास्थ बजट से नहीं करूंगा, या शिक्षा बजट से भी नहीं. यह भी नहीं कहूंगा कि देश में किसान मर रहे हैं, भुखमरी के आंकड़ों पर सरकार ने स्याही गिरा दी है. ये भी नहीं कि रेलवे ठीक से चल नहीं रहा तो इसका मतलब कि बुलेट ट्रेन नहीं चल सकती. इन सब सवालों के बावजूद, मंशा पर शंका के बावजूद मैंने खुद को बुलेट ट्रेन के पक्ष में पाया था. मुझे यह लगा कि गरीबों का उत्थान और रेलवे का उत्थान साथ-साथ भी किया जा सकता है, नहीं तो सत्तर सालों में किसी एक की हालत तो बेहतर हो ही जाती. और मुझे - जाओ पहले उसका-उसका साइन लो, वाला लॉजिक भी ठीक नहीं लगता. एक लाख करोड़ के बजट की तुलना केवल स्वास्थ्य बजट से क्यों करें. फिर तो स्वास्थ्य और शिक्षा बजट की तुलना सड़क दुर्घटनाओं की वजह से देश को हो रहे आर्थिक नुकसान से भी कर सकते हैं, जो एक अंदाज़े से कुल जीडीपी का तीन फीसदी है, एक आंकड़े से लगभग चार लाख करोड़ रुपये का आता है. पर उस पर इस वेलफेयर स्टेट का ध्यान नहीं जाता है. न ही डेवलपमेंटल बुद्धिजीवियों का. तो यह तो एक पक्ष हुआ.

फिर यह भी बात है कि बुलेट ट्रेन को मैंने केवल तेज रफ्तार ट्रेन नहीं माना. मेरे लिए वह टेक्नालॉजी का एक प्लेटफॉर्म है, जिसका असर दूसरी चीजों पर भी पड़ता है. जैसे मोटरस्पोर्ट्स में इस्तेमाल टेक्नालॉजी से हम आम गाड़ियों को ज्यादा सुरक्षित बनते देखते हैं वैसे ही. मुझे लगा कि रेलवे में सुरक्षा के इंतजाम, इंफ़्रास्ट्रक्चर पर बुलेट ट्रेन का असर पड़ेगा. क्योंकि अभी जो हालत है उसमें बुलेट ट्रेन का चलना नामुमकिन है. इसे बदलना ही होगा. और मेरी उम्मीद रही कि इसी का असर मौजूदा रेल नेटवर्क पर पड़ेगा. दिल्ली मेट्रो का असर देश के कई शहरों के मेट्रो पर पड़ा है यह हम सब जानते हैं. और लगा कि मेट्रो की तरह ही यह बदलाव आम हिंदुस्तानियों की सुविधा के लिए होगा. पर अब भरोसा डोल रहा है.

शुरू में जब सुरेश प्रभु आए तो उनके फैंस ने ऐसा हल्ला किया कि लगा कि रेल हवाई जहाज हो जाएंगे. फिर सोशल मीडिया में तस्वीरें वाइरल होने लगीं कि फलां ने सुरेश प्रभु को ट्वीट कर दिया तो किसी के बच्चे को दूध मिल गया, किसी के बच्चे को डायपर. ऐसी खबरें चलने लगीं मानों पूरी रेलवे ट्विटर पर चलने लगी. जिसका अर्थ अगर आज देखें तो लगेगा कि आखिर किस युग में हम जी रहे हैं जहां पर कर्तव्य भी मेरिट हो गया है. पिछली सरकारों ने इतना रद्दी काम किया था कि बच्चों को दूध पहुंचाना भी प्रशंसनीय काम हो गया है आज. और जिनके पास ट्विटर एकाउंट नहीं है उनका क्या ? आखिर यह पूरा तंत्र किस तरफ और किसके लिए जा रहा है?

हाल की कुछेक घटनाओं ने मेरे भरोसे को झकझोरा है. जैसे फ्लेक्सी फेयर किराए. आखिर यह कौन सा गणतंत्र है जहां सरकार ही प्राइवेट कंपनी की तरह जरूरत के वक्त आठ सौ के टिकट का दाम सैंतीस सौ रुपए वसूल रही हैं. और पांच गुना किराए के बाद क्या सुविधाएं भी पांच गुना हुई हैं? और जब आप इन घटनाओं को मनरेगा के लिए फंड में कटौती की खबर से जोड़ें, स्मार्ट सिटी के तहत पहले से ही विकसित शहरों को स्मार्ट बनाने की पहल को जब देखें, नोटबंदी को ही देखें, तो लगेगा कि स्कीम जितने भी जनवादी बताए जाएं पर बनाई ऐसे गई हैं कि बिना प्लास्टिक मनी, बिना ट्विटर एकाउंट, बिना डिजिटल बुद्धि वाले अपने आप उनमें से एलिमिनेट होते जा रहे हैं. अभी भी साफ यह है कि सत्तर साल से अगर कांग्रेस पार्टी, पुरानी भारतीय तथा जनता पार्टी ने देश का बंटाधार कर दिया है तो इसके लिए भरपाई दरअसल गरीबों को ही करनी है. हर ट्रांज़िशन में गरीब को ही लाइन में लगना है. एक स्कीम से दूसरे पर जाने के दरमियानी वक्त में गरीबों को ही लाइन में लगना है. खड़े-खड़े लुढ़कना है. समस्या यह है कि ऐसे गरीबों के समर्थन में जब राहुल गांधी सरकार को सूट-बूट की सरकार कहते हैं तो अविश्वसनीय लगते हैं. बल्कि आज की तारीख में कोई भी नेता कहे तो अविश्वसनीय लगेगा, क्योंकि ऊपर से भले यह सभी कुर्ता-पाजामा-धोती या ओवरसाइज़ शर्ट पहन अलग-अलग पार्टी के मेंबर बनते हों पर अंदर से सब सूट-बूट वाले ही हैं.  

दुनिया में सबसे बड़े ट्रैक नेटवर्क में से एक है. रोजाना सवा दो करोड़ लोगों की सवारी. सालाना करीब 28 हजार मौत. अगर इन आंकड़ों को बिना रखे रेलवे का जिक्र करें तो शायद हम सबके मन में रेलवे की एक रोमांटिक छवि उभरेगी. यादगार सफर पर ले जाने वाली ट्रेन, अपने घर ले जाने वाली रेल. पर असलियत में वह रोमांस लगातार कम होता जा रहा है और उसकी जगह लेती जा रही हैं आशंकाएं. और आशंका यह है कि गरीबों के लिए बन रही योजना वाली किताब में यह गरीब फिर से आखिरी पन्ने के फुटनोट बने हैं.

भारतीय प्रजातंत्र की दुर्दशा का ठोस सबूत चाहिए तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट को देखना चाहिए. आखिर वह कौन सा ग्लोबल सुपरपावर होगा जिसके नागरिक जानवरों से भी बुरी हालत में सफर करते हैं. विडंबना यह है कि इंसान जिस हालत में सफर करते हैं, वैसे जानवरों को भी ट्रांसपोर्ट नहीं कर सकते हैं, पुलिस पकड़ लेगी. मेनका गांधी की कोशिशों ने जानवरों को तो इज्जत दिलाई, इंसानों को नहीं दिलवा पाई. दिल्ली में डीटीसी की बसों को देखिए. मुंबई की लोकल में देखिए. कस्बों में ट्रेकर, ट्रैक्स, विक्रम, ट्रैक्टर देखिए. हाईवे पर देखिए. जानवरों की तरह ठुंसे, कटने के लिए जा रहे मुर्गों की तरह लटके लोग... कुछेक को संघर्ष की कहानी, रोमांटिक गरीबी या सर्वहारा की व्यथा कथा लग सकती है. मुझे यह एक फेल किया हुआ प्रजातंत्र लगता है.

मैं आज यह ब्लॉग इसलिए नहीं लिख रहा क्योंकि कानपुर में सवा सौ लोग ट्रेन हादसे में मर गए हैं.  वो एक दुर्घटना थी, भयावह दुर्घटना थी. इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि हमारी सरकारों के सरोकार ऐसी ही दुर्घटनाओं के बीच दिखाई देते हैं, जो अब तक तो दिखाई नहीं दिया है. सड़क पर मरने वालों का कुछ हुआ नहीं, ट्रैक पर मरने वालों की हालत बेहतर होगी लगता नहीं है. नजदीकी भविष्य में सरोकार बदलेंगे लगता नहीं है, क्योंकि मरने वाले लोग आम आदमी हैं.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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