भीड़ में विवेक नहीं होता... भीड़ भेड़ चाल में चलती है... यदि भीड़ को सुव्यवस्थित तरीके से नियंत्रित न किया जाए तो उसके अनुशासन तोड़ने में भी देर नहीं लगती. हाथरस (Hathras) में भीड़ के बेकाबू होने से बड़ा हादसा हुआ. इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई. ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति चिंता में डालने वाली है. देश में खास तौर पर धार्मिक आयोजनों में इस तरह की दुर्घटनाएं होती रही हैं लेकिन इन्हें रोकने के लिए अब तक कोई मैकेनिज्म विकसित नहीं हो सका है. यदि कोई व्यवस्था है भी तो, उसको लेकर प्रशासनिक प्रतिबद्धता के बजाय लापरवाही, सैकड़ों लोगों की मौत का कारण बनती है.
उत्तर प्रदेश के हाथरस के सिकंदरराऊ इलाके के फुलरई गांव में मंगलवार को नारायण साकार विश्व हरि यानी ‘भोले बाबा' के सत्संग में उनके लाखों अनुयायी पहुंचे थे. इसी आयोजन के दौरान भगदड़ मच गई और 21 लोगों की मौत हो गई.
जैसा कि हमेशा होता है सरकार ने इस हादसे में मरने वालों के परिवारों को दो-दो लाख रुपये और घायलों को 50-50 हजार रुपये की आर्थिक मदद देने की घोषणा कर दी. हादसे की मजिस्ट्रियल जांच का लिए एक समिति गठित की गई जो कि पता लगाएगी कि इस दुर्घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? यह कमेटी इस बात की भी जांच करेगी कि क्या यह साजिश थी?
जांच के निष्कर्षों से क्या लिए जाते हैं सबक?जब भी इस तरह की कोई घटना होती है, इसी तरह के आदेश जारी किए जाते हैं. घटनाओं की जांच लंबी चलती है.. काफी हफ्तों, महीनों और कई बार वर्षों बाद जांच की रिपोर्ट आती हैं, लेकिन इनके निष्कर्ष भी अक्सर अस्पष्ट ही होते हैं. फिर सबसे बड़ी बात की हादसे दर हादसे होते रहने के बावजूद इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं बनाई जाती.
हाथरस के हादसे से सरकार और प्रशासन के कामकाज के तरीकों को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं. बड़े धार्मिक आयोजनों को लेकर क्या प्रशासन आयोजकों से कभी पूछता है कि उसमें कितने लोग शामिल होंगे? यदि पूछा भी जाता है तो क्या आयोजन के दौरान आए लोगों की तय संख्या की पुष्टि की जाती है? यदि निर्धारित तादाद से अधिक लोग आ रहे हैं, तो क्या उन्हें रोकने के लिए कोई इंतजाम होते हैं? क्या प्रशासन आयोजन स्थल की क्षमता की तुलना में वहां आने वाले लोगों की संख्या को लेकर इंतजामों का आकलन करता है?
क्या आयोजकों को दी जाती हैं हिदायतें?प्रशासन की ओर से आयोजकों से क्या यह पूछा जाता है कि उन्होंने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए क्या इंतजाम किए हैं? यदि यह जानकारी मिल गई है तो क्या आयोजकों की व्यवस्था का मौके पर आकलन किया जाता है? यदि जरूरत के मुताबिक व्यवस्था नहीं है तो क्या प्रशासन की ओर से आयोजकों को जरूरी निर्देश और हिदायतें दी जाती हैं? यदि आयोजकों की व्यवस्था पुख्ता नहीं है तो क्या प्रशासन जरूरत के मुताबिक अपना अतिरिक्त अमला तैनात करता है?
इसी तरह के और भी कई सवाल हैं जो इस तरह के हादसों को लेकर सरकारी व्यवस्थाओं पर उंगली स्वाभाविक तौर पर उठा रहे हैं. निश्चित तौर पर सार्वजनिक आयोजनों के दौरान प्रशासन का उक्त सभी मुद्दों को लेकर आश्वस्त होना जरूरी है, लेकिन जमीन पर क्या हमेशा ऐसा होता है? जब हाथरस के सत्संग में 80 हजार लोग आने थे, तो फिर तीन लाख लोग कैसे पहुंच गए? क्या प्रशासन मूक बनकर बेतहाशा भीड़ बढ़ती देखता रहा? सत्संग में तीन लाख लोग और उनको नियंत्रित करने के लिए सिर्फ 40 पुलिस कर्मी? प्रशासन ने 80 हजार लोगों के शामिल होने की अनुमति दी थी. यदि इस हिसाब से भी तैनात किए गए पुलिस कर्मियों की संख्या देखें, तो क्या यह युक्तिसंगत है?
हाथरस में सत्संग स्थल पर न फायर ब्रिगेड थे, न डॉक्टरों का दल था, न ही एंबुलेंस थीं. वहां न तो खानपान का समुचित इंतजाम था, न ही गर्मी से बचाव के लिए पंखों आदि का कोई प्रबंध था. इससे भी बड़ी खामी यह कि, भारी भीड़ वाले आयोजन में लोगों के आने और जाने के लिए कोई स्थान तय नहीं था. देश में पहले हुए हादसों में भी यह एक बड़ी खामी पाई गई थी.
धार्मिक सत्संगों, प्रवचनों, मंदिरों में होने वाले विशेष आयोजनों में अनियंत्रित भीड़ के कारण देश में पिछले कुछ वर्षों में कई घटनाएं हुई हैं.
महाराष्ट्र के नासिक जिले में 27 अगस्त 2003 को कुंभ मेले में स्नान के दौरान भगदड़ में 39 लोगों की मौत हुई थी और करीब 140 लोग घायल हो हुए थे. इसके दो साल बाद महाराष्ट्र के ही सतारा जिले में 25 जनवरी 2005 को मंधारदेवी मंदिर में एक सालाना तीर्थयात्रा के दौरान भगदड़ मची थी. इसमें 340 से अधिक लोगों की भीड़ द्वारा कुचले जाने से मौत हो गई थी. सैकड़ों घायल हो गए थे.
सन 2008 में 3 अगस्त को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में नैना देवी मंदिर में मची भगदड़ में 162 लोगों की मौत हुई थे और 47 व्यक्ति घायल हो गए थे. भगदड़ चट्टान गिरने की अफवाह की वजह से मची थी. इसी साल 30 सितंबर को राजस्थान के जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में बम विस्फोट की अफवाह फैल गई थी. इससे भगदड़ मच गई थी जिसमें लगभग 250 लोगों की मौत गई थी. हादसे में 60 लोग घायल हो गए थे.
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में 4 मार्च 2010 को कृपालु महाराज के राम जानकी मंदिर में मची भगदड़ में 63 लोगों की मौत हुई थी. केरल के इडुक्की जिले के पुलमेडु में 14 जनवरी 2011 को सबरीमला के दर्शन करके लौट रही भीड़ में भगदड़ मच गई थी. इसमें 104 लोग मारे गए थे और 40 घायल हो गए थे. इसी वर्ष में 8 नवंबर को उत्तराखंड के हरिद्वार में गंगा नदी हर-की-पौड़ी घाट पर भगदड़ मचने पर करीब 20 लोगों की मौत हो गई थी.
बिहार की राजधानी पटना में 19 नवंबर, 2012 को गंगा नदी के किनारे अदालत घाट पर छठ पूजा के दौरान एक अस्थायी पुल ढह गया था. इसके बाद भगदड़ मच गई थी, जिसमें करीब 20 लोग मारे गए थे. मध्य प्रदेश के दतिया जिले में 13 अक्टूबर, 2013 को रतनगढ़ मंदिर के पास नवरात्रि उत्सव में भगदड़ मचने से 115 लोगों की जान चली गई थीं और सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे. पटना में ही 3 अक्टूबर 2014 को शहर के गांधी मैदान में दशहरा समारोह खत्म होने के बाद मची भगदड़ में 32 लोगों की मौत हो गई थी. हादसे में 26 अन्य लोग घायल हो गए थे.
आंध्र प्रदेश में 14 जुलाई, 2015 को राजमुंदरी में 'पुष्करम' उत्सव में गोदावरी नदी के तट पर स्नान स्थल पर भगदड़ मच गई थी. इससे 27 लोगों की मौत हो गई थी. जम्मू-कश्मीर में एक जनवरी, 2022 को वैष्णो देवी मंदिर में भीड़ में भगदड़ से 12 लोगों की मौत हो गई थी और 24 व्यक्ति घायल हो गए थे. मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में 31 मार्च, 2023 को एक मंदिर में रामनवमी पर्व के दौरान एक पुरानी बावड़ी पर बना स्लैब ढह गया था जिससे कम से कम 36 लोगों की मौत हो गई थी.
धार्मिक आयोजनों में भारी भीड़ में भगदड़ की यह घटनाएं देश के अलग-अलग राज्यों में हुईं. इनसे यह साफ है कि इस तरह के आयोजनों को लेकर देश भर में कोई पुख्ता मैकेनिज्म नहीं है ताकि इन घटनाओं को रोका जा सके. क्या केंद्र सरकार इस पर नियंत्रण के लिए कोई सख्त कदम उठाएगी?
सूर्यकांत पाठक ndtv.in के डिप्टी एडिटर हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.