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This Article is From Jul 12, 2016

कश्मीर के सबक न सीखने का नतीजा और घाटी में बगावत की नई धारा

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 12, 2016 18:05 pm IST
    • Published On जुलाई 12, 2016 17:56 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 12, 2016 18:05 pm IST
कश्मीर में 22 साल के हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मौत बरबस फिल्म 'हैदर' की याद दिला देती है। फिर वही 90 के शुरुआती दशक के खौफनाक नजारे दिखने लगे हैं, बल्कि कुछ लोगों की राय में हालात और बेकाबू हो सकते हैं। बुरहान के जनाजे में शामिल होने के लिए और उसके बाद लोगों के हुजूम ने कर्फ्यू की परवाह किए बगैर सुरक्षा बलों से जिस तरह सीधे भिड़ने की फितरत दिखाई, वह भारी अपशकुन के ही संकेत हैं। यह जाहिर करता है कि केंद्र की कश्मीर में सख्त सैन्य कार्रवाई से उग्र अलगाववादियों व आतंकियों पर काबू पाने और राज्य में लोकतांत्रिक सरकार के जरिए लोगों को मरहम लगाने की दोहरी नीति नाकाम होने लगी हैं। इसे समझकर कोई राजनैतिक हल निकाले बगैर यह समस्या भयावह रूप धारण कर सकती है।

बढ़ता ही जा रहा है मौत का आंकड़ा
भीड़ पुलिस बैरिकेडों, फौजी बंकरों और थानों को निशाना बना रही है। इसमें अब तक करीब 30 लोगों की जान चली गई और आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। घायलों की संख्या तो सैकड़ों में पहुंच गई है। श्रीनगर के पुलिस के छर्रों से आंख में गंभीर चोट के साथ अस्पताल में पहुंचने वालों नौजवानों की तादाद ही सैकड़ों में पहुंच गई है। अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक, इनमें से कइयों के हमेशा के लिए आंख की रोशनी गंवा बैठने का खतरा है। इन छर्रों को प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए गोलियों के बदले इस्तेमाल किया जाने लगा है ताकि हताहतों की संख्या कम की जा सके। हालांकि खबरों के मुताबिक कम घातक 9 से 12 नंबर के छर्रों के इस्तेमाल की इजाजत है जबकि सुरक्षा बला 6 नंबर के छर्रें इस्तेमाल कर रहे हैं, जो ज्यादा घातक हैं। इससे कम से कम आंख गंवानों के लिए तो आगे की जिंदगी मौत से भी बदतर हो सकती है। यह असंतोष को और तीखा ही कर जाएगा।

सत्ता प्रतिष्‍ठान की सोच
हमारे सत्ता प्रतिष्ठान की एकांगी सोच शायद इसे और विकराल कर सकती है, जैसा कि बुरहान के मामले में देखा गया। दरअसल कई खबरें ऐसी हैं कि बुरहान के कथित तौर पर मुठभेड़ में मारे जाने से पहले तक घाटी में कई लोग उसे ‘हिंदुस्तानी एजेंट’ के तौर पर शक की निगाह से देखा करते थे लेकिन अब उसे शहीद नायक का वही दर्जा मिल गया है, जो 90 के दशक में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के कमांडर इशफाक मजीद को हासिल हो गया था।

टेक-सेवी नौजवानों के उग्रवाद का प्रतीक बना बुरहान
सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय बुरहान नए दौर के टेक-सेवी नौजवानों के उग्रवाद का प्रतीक बन गया था और इस कदर लोकप्रिय होता जा रहा था कि उस पर सरकार ने 10 लाख रु. का इनाम रख रखा था। बुरहान अच्छे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय परिवार से था। वह सुरक्षा बलों के हाथों अपने बड़े भाई के उत्पीड़न की वजह से उग्रवाद की ओर मुड़ गया था। वह जिस दक्षिण कश्मीर के इलाके का रहने वाला था, वह बाकी इलाकों के मुकाबले एक हद तक समृद्ध और ठीक-ठाक माना जाता है। हाल के दौर में यही इलाका उग्रवाद के ठिकाने के तौर उभरा है और सुरक्षा बलों के लिए चुनौती बन गया है। इसी इलाके के युवकों में उग्रवाद का आकर्षण बढ़ रहा है और निरंतर फौजी निगहबानी में रहने से मौजूदा व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता जा रहा है।

सुरक्षा बलों के रवैये पर नाखुशी जता रहीं महबूबा
यही वजह है कि महबूबा मुफ्ती की सरकार ने सुरक्षा बलों के रवैये पर भारी असंतोष जाहिर किया है। यही वह इलाका है जहां महबूबा 90 के दशक के अंतिम वर्षों और बाद के दौर में सक्रिय रही हैं, जिससे पीडीपी को अपना आधार व्यापक करने में मदद मिली थी। लेकिन इस घटना के बाद पीडीपी कितनी कारगर रह जाएगी, कहना मुश्किल है।  दरअसल 90 के दशक के दौर और इस बार असंतोष के इस उभार में एक मूलभूत फर्क है। नए युवा गुरबत की परेशानी या मदरसे में पढ़े पुरानी सोच के कायल नहीं, बल्कि आधुनिक पढ़ाई-लिखाई करने वाले ठीक-ठीक मध्यवर्गीय परिवारों से आ रहे हैं। ये सिर्फ इस्लाम के नाम पर नहीं, बल्कि राजनैतिक-सामाजिक हालात से जन्मे तीखे प्रतिरोध से भी प्रेरित हैं। बुरहान हाल में ऐसे ही नौजवानों का प्रतीक बन गया है।

ढाका के ज्यादातर हमलावर भी थे अभिजात्‍य वर्ग से
अगर हम ढाका के गुलशन मोहल्ले में होली आर्टिशन बेकरी के हमलावरों पर भी गौर करेंगे तो उनमें आधुनिक पढ़ाई न करने वाले एकाध लडक़े ही थे। उनका नेता निब्रास इस्लाम तो बांग्लादेश के अभिजात्य वर्गों के टर्किस होप स्कूल में पढ़ा था और कुछ समय पहले बॉलीवुड एक्‍ट्रेस श्रद्धा कपूर से हाथ मिलाकर इतना उत्‍साहित हो गया था कि फौरन उसने सोशल मीडिया पर इसकी घोषणा कर दी थी। मगर मलेशिया में इस्लाम की पढ़ाई करने गया तो वह लापता हो गया और उसके बाद ढाका के रेस्तरां करीब आधे दर्जन आतंकियों को निर्देशित करता देखा गया।

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इस नई घटना पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से जुड़े अर्थशास्त्री एलान क्रुगर ने अपनी किताब ‘ह्वाट मेक्स ए टेरररिस्ट : इकोनॉमिक्स एंड द रूट्स ऑफ टेरररिज्म’ में दलील दी है कि आतंकवाद की ओर गुरबत में जी रहे या मदरसे में पढ़े युवक उतना नहीं झुक रहे हैं, जितना आधुनिक शिक्षा पाए मध्यवर्गीय युवक झुक रहे हैं क्योंकि उनमें व्यवस्था की ज्यादतियों से असंतोष अधिक तीखा होता है। इस असलियत को समझना होगा तभी हम किसी हल की ओर बढ़ सकेंगे। महज पुलिसिया डंडा फटकारने की सोच के उलटे ही नतीजे निकल सकते हैं। इसलिए यह समझने की दरकार है कि कश्मीर में बार-बार आग क्यों सुलग उठती है..।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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