नोटबंदी को कितना ढंक पाया जीडीपी का आंकड़ा

नोटबंदी को कितना ढंक पाया जीडीपी का आंकड़ा

सरकार ने एलान करवा दिया है कि देश की अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का ज्यादा असर नहीं पड़ा. विश्वसनीयता के प्रबंधन के लिए यह एलान बाकायदा केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के जरिए किया गया है. यह संगठन ही देश में सकल घरेलू उत्पाद की नापतौल करता है. चलन के मुताबिक हर तीन महीने में, यानी साल में चार बार यह आंकड़े जारी करवाए जाते हैं. इस आंकड़े ने इतनी हलचल मचा रखी है कि अब इस पर बहस की तैयारी है.

नोटबंदी वाली तिमाही का आंकड़ा है यह
ताजा एलान अक्टूबर से दिसंबर 2016 की तीसरी तिमाही का है. यह वही तिमाही है जिसमें देश में नोटबंदी का एलान हुआ था. नोटबंदी के सबसे ज्यादा भयावह असर वाले 50 दिन इसी तिमाही के बीच में पड़े थे. सारे अखबार नोटबंदी से मची भारी तबाही की खबरों से भरे रहे थे. टीवी चैनलों पर दिन रात किसानों, मजदूरों, दुकानदारों  और उद्योग धंधे करने वालों के हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने के दृश्य दिखाए जा रहे थे. सरकार के भी हाथपैर फूले जा रहे थे. देशवासियों को सता देने के लिए उसी बीच सरकार को एलान करना पड़ा था कि सारी परेशानी पचास दिन की है और उसके बाद खूब फायदे दिखेंगे. यानी यह आंकड़ा उसी तिमाही के 90 दिनों का है जिसमें नोटबंदी के वे पचास दिन शामिल हैं. इसीलिए जीडीपी पर नोटबंदी का ज्यादा असर नहीं पड़ने वाली नई बात पर सबको हैरानी है.

कैसे होती है जीडीपी की गणना
इस गणना में हम पता करते हैं कि देश की भौगोलिक सीमा के भीतर एक साल में कितना उत्पादन हुआ. इस उत्पादन को तौलने के लिए हमारे पास आसान तरीका यही है कि माल की खरीद फरोख्त के लिए रकम का लेन देन कितना हुआ. उत्पादन सिर्फ वजन वाली चीजों का ही नहीं होता बल्कि सेवा क्षेत्र को भी हम उत्पादन ही मानते हैं.  जीडीपी की गणना के हमारे अपने तरीके में एक लोचा भी है. जनता के बीच प्रचार के लिए सरकारें जीडीपी में बढ़ोतरी को प्रतिशत में बताती हैं. एक साल में उत्पादन  कितने फीसद बढ़ा इसे पिछले साल की उसी तिमाही से तुलना करके निकाला जाता है. लोचा यह है कि पिछला आंकड़ा अनुमानित होता है. उसका संशोधित आंकड़ा बाद में ही जारी होता है. एक नहीं दो बार संशोधित होता है. अब तक का आश्चर्यजनक अनुभव है कि शुरू का अनुमान ज्यादा होता है और बाद में घटकर कम हो जाता है. यानी यह गुंजाइश होती है, पिछले साल की तिमाही का अनुमान संशोधित करके कम कर दें और फिर उससे तुलना करने पर मौजूदा उपलब्धि का आंकड़ा बड़ा हो जाता है. हालांकि यह भी एक तथ्य है कि पांच साल या एक दशक में जीडीपी के आंकड़े पर इस गुंताड़े का असर नहीं पड़ता. इसीलिए इस गुंताड़े पर कोई ज्यादा आपत्ति भी नहीं की जाती.

उत्पादन के ये आठ क्षेत्र
इतना हमें पहले से पता है कि जीडीपी के लिए आठ क्षेत्रों में उत्पादन को लेखा जाता है-
कृषि, वानिकी और मत्स्यपालन
खनन
विनिर्माण
बिजली, गैस और पानी
निर्माण
व्यापार, होटल, यातायात, संचार
वित्त पोषण, बीमा, रीयल एस्टेट, व्यापारिक सेवाएं
सामाजिक, सामुदायिक और वैयक्तिक सेवाएं


खेती किसानी पर दबाव  
इनमें से प्रमुख क्षेत्रों की हालत तीसरी तिमाही में देखें तो कृषि वह क्षेत्र है जिस पर अचानक भारी संकट आ गया था. नोटबंदी के एलान का समय देश में बुआई का वक्त था. सरकार की तरफ से हालांकि अच्छी बारिश के अनुमान का ताबड़तोड़ प्रचार करवाया गया था. सरकारी वैज्ञानिकों ने अनुमान बताया था कि सामान्य से ज्यादा यानी 109 फीसद पानी गिरेगा. लेकिन बारिश हुई सिर्फ 95 फीसद. ऊपर से नोटबंदी के कारण देश में लोगों के पास नगदी का ऐसा टोटा पड़ गया कि खाद बीज खरीदने के लिए किसान हाहाकार करते रहे.

बाकी क्षेत्र
देश की माली हालत जानने के लिए वाहनों की बिक्री को एक अघोषित संकेतक माना जाता है. नोटबंदी के दिनों में यह क्षेत्र मंदी का शिकार हो गया था. तीसरा बड़ा क्षेत्र रीयल एस्टेट पहले ही नाजुक हालत में चल रहा था लेकिन नोटबंदी ने उसे लगभग तबाह कर डाला था. नोटबंदी के पचास दिनों में बैंक से अपने ही पैसे की निकासी पर जो राशनिंग हुई उसने खुदरा व्यापार के हाथपैर फुला दिए. उद्योग धंधों में ऐसा सन्नाटा छा गया कि मजदूरों को काम से हटाया जाने लगा. गांव से शहर की ओर होने वाला पलायन उल्टे शहर से गांव की तरफ हो गया था.

मसला सिर्फ नोटबंदी का असर जानने का
चूंकि दावा यह किया गया है कि जीडीपी पर नोटबंदी का असर नहीं पड़ा, सो आने वाले हफ्ते में बारीकी से पड़ताल की जाएगी कि तीसरी तिमाही के जीडीपी का चैंकाने वाला शानदार आंकड़ा बना कैसे होगा. मसला बहुत ही पेचीदा है. एक सौ बीस लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का हिसाब किताब एक नजर में देखना और दिखाना विद्वानों के ही बस की बात है. इसकी सही-सही पड़ताल हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों के विद्वान, आईएमएफ जैसी वैश्विक संस्था या हमारे मनमोहन सिंह और चिदंबरम जैसे अनुभवी विशेषज्ञ ही कर सकते हैं. पता नहीं ये सब लोग कब बताना शुरू करेंगे.
 
पर्दे के पीछे की बात  
नोटबंदी कालेधन को बाहर लाने के लिए की गई थी. भले ही सरकार का यह इरादा लगभग नाकाम हो गया हो लेकिन इसके वे असर भी तो पड़ने ही थे जो सोचे नहीं गए थे. जिनके पास हजार पांच सौ के वे नोट थे और जो सरकारी लेखे में नहीं थे उन्हें भी किसी तरह बदलने का तरीका तो निकाल ही लिया गया. और आखिर कुल मुद्रा का 86 फीसद हिस्सा अस्थाई तौर पर यानी कम से कम एक बार बैंक प्रणाली में दर्ज हो ही गया. इस प्रक्रिया में जब 14 लाख करोड़ की रकम अचानक इधर से उधर हुई हो तो एक दो लाख करोड़ की गैरकानूनी रकम का कानूनी बन जाना कौन सी बड़ी बात है. जिन्होंने अपनी छुपी हुई रकमों को मजबूरी में उजागर किया है उसे उन्होंने अपने काम धंधों से कमाई हुई रकम बताया है. तो फिर नोटबंदी के समय वाली तीसरी तिमाही में कामधंधों के चौपट होने के बाद भी उत्पादन के आंकड़े में फर्क न दिखना कौन से आश्चर्य की बात है.

और क्या क्या हुआ उस दौरान
ढाई लाख से ज्यादा रकम जमा करने पर पूछताछ नहीं होनी थी. जिनके पास इससे ज्यादा था सो उन्होंने अपने पुराने नोटों को बाजार में ही खपाने के तरीके ढूंढे. मसलन जिसका उधार देना था वो पुराने नोटों में ही निपटाया. जिसे सालों से अपनी उधारी नहीं मिल रही थी वो पुराने नोट लेने पर राजी हो गया. अलबत्ता उसे अगल-बगल से पुराने नोट जमा करवाने के लिए दस बीस फीसद खर्चा करना पड़ा होगा. इसके अलावा पुराने नोट में सरकारी उधारी को चुकाने की तो छूट दे ही दी गई थी. आमतौर पर यह भी सुनने में आया कि खुदरा व्यापारियों ने थोक व्यापारियों से आगे का सामान खरीदने की बुकिंग कर दी और पुराने नोट टिपा दिए. सिर्फ दो तीन फीसद मार्जिन पर व्यापार करने वाले बड़े व्यापारियों के लिए नंबर एक के पैसे में लेन देन में वैसे ही दिक्कत नहीं होती. और फिर बैंक के स्टाफ से नजदीकी संबंधों के कारण उन्हें क्या दिक्कत आनी थी. यानी चारों तरफ लेन देन का दौर चल पड़ने से आंकड़ों में यह दिखना कौन से आश्चर्य की बात है कि नोटबंदी के दिनों में उद्योग धंधों और व्यापार में बहार आ गई. आंकड़ों में इतनी ज्यादा बहार आ गई कि नोटबंदी के कारण मची तबाही के असर को भी उसने ढंक दिया. आगे के लिए अब यह सवाल बनता है कि यह खुशफहमी टिकाऊ कितनी होगी?

भयावह मंदी की हालत
किसानों को नगदी फसल यानी साग सब्जी, इन्हीं महीनों में सड़कों पर फेंकने के लिए मजबूर होना पड़ा था. आलू-प्याज और टमाटर के मामले में यह हालत चौथी तिमाही के शुरुआती दिनों तक चलती रही.

महंगाई
महंगाई के बारे में कहा जाता है कि जब माल कम पड़ने लगता है तो चीजें महंगी होने लगती हैं. चीनी और खाने के तेल जैसी चीजों के महंगे होते चले जाने से साबित हो रहा है कि इनके उत्पादन में कमी आई है. चीनी उत्पादन के अनुमान में गफलत हो जाने की खबरें अभी दो महीने पहले सुन ही चुके हैं. इन आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दाम बता रहे हैं कि इन चीजों का पर्याप्त उत्पादन नहीं हो पा रहा है. दालों और गेंहूं का आयात करने का जो हमने पहले से प्रबंध किया है वह भी साबित कर रहा है कि देश में उत्पादन को लेकर हम उतने आश्वस्त नहीं हैं.
 
इसी तिमाही में बेरोजगारी और बढ़ी
पिछले तीन साल से देश में बढ़ रही बेरोजगारी भयावह रूप लेती जा रही थी. इसी बीच यानी इस साल की इसी तिमाही में नोटबंदी ने आग में घी का काम किया. वो तो यकीन के साथ बताने के लिए जीडीपी का कोई सीधा संबंध बेरोजगारी से बन नहीं पाया है वरना यह साबित करने में देर नहीं लगती कि जीडीपी ने बेरोजगारी की समस्या भी कम कर दी.

बैंकों की हालत
वित्त पोषण एक बड़ा क्षेत्र है. लेकिन क्या इसे दोहराने की जरूरत है कि बैंक अपने डूबते कर्ज से किस तरह परेशान हैं. जो नकदी के रहस्य के जानकार हैं वे इशारों की भाषा में बैंकों की हालत समय-समय पर बताते ही रहे हैं. इसीलिए कहने वाले तो यह भी कह चुके हैं कि नोटबंदी के फैसले के पीछे सबसे बड़ा कारण  बैंकों को फौरी तौर पर आक्सीजन देना था. बेशक बैकों की तिजोरियां लोगों से जबरन जमा कराए गए नोटों से भर गई हैं लेकिन क्या यह एक वास्तविकता नहीं है कि नए नोटों की शक्ल में यह पैसा लोगों को वापस भी करना है. अभी तो नए नोटों की छपाई का बहाना है लेकिन क्या जल्द ही बैंकों में अपना पैसा निकालने वालों की भीड़ फिर नहीं लगेगी. यानी यह मानकर चलने में समझदारी नहीं है कि नोटबंदी का सबसे बुरा दौर गुजर चुका है. सतर्क रहना इसलिए जरूरी है क्योंकि जीडीपी के आंकड़े हमें एक बार फिर फिजूल की खुशफहमी में डाल सकते हैं.
 
जीडीपी पर बहस का मंच तैयार
जीडीपी का यह आंकड़ा एक वस्तुनिष्ठ वास्तविकता के रूप में है. लेकिन अर्थतंत्र के सभी आठों क्षेत्रों का विषयगत पर्यवेक्षण करें तो कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं दिख रहा है जो हमें निकट भूत, वर्तमान और निकट भविष्य में आश्वस्त करता दिखता हो. बेशक नई फसल आने को ही है. लेकिन वहां हमने रिकार्ड तोड़ उत्पादन के अनुमान का इतना ताबड़तोड़ प्रचार कर रखा है कि किसान खुश होने की बजाए उसी से डर गया है. उसे इस साल अपनी उपज का वाजिब दाम मिलने की चिंता सता रही है. ऊपर से अनाज और दालों को विदेशों से खरीदने के कारण अपनी देशी उपज के दाम गिरने का संकट हैं ही. यानी जीडीपी के आंकड़े अपनी जगह हैं लेकिन जिन बातों के लिए ये आंकड़े बताए जाते हैं वे बातें बिल्कुट उलट कहानी बता रही हैं.

परेशान करेगी आंकड़ों का मजाक उड़ाने की आदत    
पिछले दो दशकों में जब-जब अच्छी आर्थिक वृद्धि दर हमने हासिल की है तब-तब उस उपलब्धि को कमतर बताने का अभियान भी चलता था. उस वृद्धि को जॉब लैस ग्रोथ यानी रोजगार विहीन आर्थिक वृद्धि कहा जाता था. जॉब लैस ग्रोथ का वह नारा समझदार जनता के दिमाग में अभी भी गूंजता है. आज भयावह बेरोजगारी की जिस हालत में हम फंस गए हैं उसमें तो जीडीपी की बात करना वैसे भी राजनीतिक खतरे से खाली नहीं है.
 
लब्बोलुआब यह है कि जीडीपी के आंकड़ों के सही या गलत होने की पड़ताल देश के मौजूदा माहौल में  मुश्किल है. अर्थशास्त्रियों और विद्वानों का मजाक उड़ाकर और उनके बोलने पर देश अहित का बंध लगाकर उन्हें फिलहाल चुप रहने को मजबूर किया जा चुका है. लेकिन लक्षण देखकर रोग को समझें तो देश का आर्थिक स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं दिख रहा है. यानी जीडीपी जैसी एक्सरे रिपोर्ट के भरोसे बैठे रहना ज्यादा समझदारी नहीं है. बेशक, सरकारों के लिए चिंतित दिखना अच्छी बात नहीं मानी जाती. लेकिन सरसरी तौर पर हालात जैसे दिख रहे हैं उनमें अपनी सरकार को चिंताशील जरूर होना पड़ेगा.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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