नामवर सिंह अस्पताल में हैं. 92 बरस की उम्र में उन्हें सिर पर चोट लगी है. अगर प्रार्थना जैसी कोई चीज़ होती है तो हिंदी के संसार को उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए. हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हमने उन्हें उनके उत्तरार्द्ध में देखा- उस उम्र में जब उनकी तेजस्विता का सूर्य ढलान पर था. मेरी पहली मुलाकात उनसे तब हुई, जब वे सत्तर पार कर चुके थे. बेशक, उनसे पहले उनके कुछ भाषण सुनने का मौक़ा मिला था. बस यह कल्पना की जा सकती है कि अपने बनते हुए दिनों में उनका ताप कैसा रहा होगा, उनकी तीक्ष्णता कितनी गहरी रही होगी.
मैं उन सौभाग्यशाली छात्रों में नहीं रहा जिन्हें उनसे पढ़ने का मौक़ा मिला. न हिंदी मेरा विषय था न जेएनयू या दिल्ली में मैंने पढ़ाई की. इसलिए मैं उनके बलशाली भीम-अर्जुनों में नहीं रहा. ये भीम-अर्जुन देश भर में फैले हुए हैं और अपने द्रोण के प्रति कृतज्ञता के बोझ से दबे हुए हैं. लेकिन हिंदी की दुनिया में इन भीम-अर्जुनों से कहीं ज़्यादा बड़ी तादाद उन एकलव्यों की रही जिन्होंने नामवर की मूर्ति का ध्यान करते हुए अपने हिस्से का ज्ञान अर्जित किया. मैं भी ऐसा ही एकलव्य था जो रांची में बैठ कर नामवर सिंह की सक्रियता को करीब से देखता-पढ़ता था और हिंदी की दुनिया के बारे में एक राय बनाया करता था.
नामवर होने का असल मोल यही है. उन्होंने हिंदी के खेतों को सींचा है. उन्होंने दूरदराज के क्षेत्रों में यात्राएं कीं, लोगों और लेखकों से मिलते रहे, रचना और आलोचना का मोल समझाते रहे. लोकार्पण-विमोचन करते रहे, सेमिनार-संगोष्ठियों के लगभग स्थायी मुख्य अतिथि और अध्यक्ष बनते रहे. बेशक, कई अपनों को उपकृत भी किया और कई दूसरों की आलोचना भी झेली, लेकिन नामवर जी कबीर के शहर के होने के बावजूद शायद चदरिया जस की तस धर देने में यकीन नहीं करते हैं. वे दुनिया की धूल-मिट्टी में बने और सने आलोचक हैं. एकांत साधना जैसी कोई चीज़ उनकी जीवन शैली या विचार शैली में नहीं रही, वे लगातार संवादरत आलोचक हैं जिन्होंने लिखने से ज्यादा बोल कर यश कमाया. यह पहले भी मैंने एकाधिक बार लिखा है कि डॉ. रामविलास शर्मा पहाड़ सरीखे थे- सुस्थिर, अटल-अविचलित, समकालीनता के कोलाहल से दूर. वे किताबों का पहाड़ खड़ा करते रहे. लेकिन उन तक पहुंचना, उनके पास जाना आसान काम नहीं था. यह कल्पना और भी दुश्वार थी कि वे आपके पास आएंगे.
मगर नामवर नाम की नदी आपके पास आती है- हिंदी के मैदानों में बहते हुए, हिंदी की मिट्टी को उपजाऊ बनाते हुए और उसका बहुत सारा कचरा अपने भीतर समेटते हुए. दिल्ली आकर यह नदी बहुत सारे लोगों को यमुना जैसी लगने लगी थी तो उसमें नदी का कम, उस पर्यावरण का दोष ज्यादा था जो अपना कचरा बेहिचक नदी में उंडेलता रहा. बेशक, इस नदी ने अपने कूल-किनारे इतने ऊंचे नहीं किए कि बाहर की मिट्टी भीतर न आ सके.
नामवर सिंह विद्वान हैं, लेकिन विद्वता के आतंक को परे रखते आए हैं. उनकी बौद्धिक सक्रियता उनको सतत समकालीन बनाए रखती है और वे चाव से युवा लोगों को पढ़ते हैं.
हिंदी के बहुत सारे युवा लेखकों का अनुभव यह होगा कि उनके लेख पढ़ कर, उनकी कविता पढ़ कर, नामवर सिंह ने उन्हें फोन किया.
मेरा निजी अनुभव भी है. जब 1996 में मैंने जनसत्ता में कुछ टिप्पणियां लिखीं तो उन्होंने मेरे बारे में पूछताछ शुरू की. जब पहली मुलाकात हुई तो वे सब कुछ जैसे जान चुके थे. उस पहली मुलाकात के बाद वे जब मिले, हमेशा उसी उत्फुल्लता से मिले, हमेशा किसी लिखे हुए की चर्चा करते रहे, कुछ नया लिखने के लिए प्रेरित करते रहे.
नामवर सिंह उन विद्वानों में रहे जिन्होंने हिंदी को उसके धोती-कुर्ते, जनेऊ से निजात दिलाई. हिंदी वालों को मार्क्सवाद सिखाया, मार्क्सवादी आलोचना सिखाई. उन्होंने खूब हमले किए और ख़ूब हमले झेले. यह हमारे समय की ही बात है जब एक ही गोष्ठी में वे राजेंद्र यादव पर और राजेंद्र यादव उन पर ताना कसने में कोई कसर नहीं छोड़ते. इसके पीछे साहित्यिक प्रतिस्पर्द्धा जितनी भी रहती हो, लेकिन दोस्ताना चुहल इस पर भारी पड़ती थी. लेकिन हमने नामवर सिंह पर ऐसे हमले भी देखे जिनके पीछे उनको प्रतिष्ठाच्युत करने की मंशा दिखती रही. जिन लोगों ने 'आलोचना' के प्रकाशन के समय उनकी बेहद 'पूर्वग्रहपूर्ण' आलोचना की थी, वे बाद में अवसर मिलने पर 'आलोचना' के वैसे अंक नहीं निकाल सके.
बहरहाल, फिलहाल नामवर सिंह के स्वस्थ होने की कामना करें. हिंदी के लगातार अबौद्धिक होते संसार में उनकी उपस्थिति अब भी प्रकाश स्तंभ का काम करती है. हाल के दिनों में कई बार स्मृति उनका साथ छोड़ती दिखी है, उनका संवेदन तंत्र कमज़ोर पड़ता दिखा है, लेकिन उनके विवेक की चमक अब भी अपनी कौंध से प्रभावित करती है. वे हिंदी के समाज में मीठे पानी की नदी जैसे हैं- उन्होंने हमें कुछ सींचा है, हमारे भीतर भी उनका कुछ पानी है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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